हर संगठन के जन्म के
पीछे कोई ना कोई उद्देश्य जरुर होता है वो उद्देश्य स्पस्ट / उजागर भी हो सकता है और
छिपा हुआ भी हो सकता है. इसी तरह से RSS के जन्म के पीछे इसका
उद्देश्य क्या था?......... 1914 से 1917 तक प्रथम विश्व युद्ध
चला, जिससे विश्व में भूख और अकाल के हालत पैदा हुए, विश्व आर्थिक व्यवस्था चरमरा गयी, जिस कारण दुनिया में
सबसे पहले 1917 समाजवादी क्रन्ति हुई और समाजवादी देश रूस-सोवियतसंघ अस्तित्व में आया
और फिर "समाजवादी कम्युनिस्ट क्रांतिकारी" साहित्य रूस से छपकर भारत सहित
पूरी दुनिया में जाने लगा और जिसे पढ़ कर हिंदुस्तान का विद्यार्थी, युवा वर्ग भी क्रांतिकारी विचार धारा की तरफ मुड़ने लगा, कॉमरेड लेनिन विश्व के महान क्रांतिकारी के रूप में उभरकर सामने आये. हिन्दुस्तानी
युवा, विद्यार्थी वर्ग भी समाजवाद से प्रभावित हुए बिना ना रह
सका और इस तरह से 1920 में भगत सिंह, चंदरशेखर आजाद आदि क्रांतिकारियों
ने मिलकर "Hindustan socialist republican association" नाम से एक संगठन बनाया. सन 1921 में "भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी"
बनी और इस तरह से हिंदुस्तान में भी समाजवाद की हवा बहने लगी, जिससे हिंदुस्तान के जमींदारों और शर्मायेदारों में एक बैचेनी, घबराहट पैदा हुई कि कहीं, रूस की तरह हिंदुस्तान में
"समाजवादी कम्युनिस्ट क्रांति" ना आ जाये.
समाजवादी कम्युनिस्ट क्रांति को
रोकने के लिए हिंदुस्तान के जमींदार और शर्मायेदार रात-दिन सोचने लगे कि कैसे
"समाजवादी कम्युनिस्ट क्रांति" को रोका जाये? कैसे
नौजवानों को क्रांतिकारी बनने से रोका जाये? सोचा गया कि अगर
डायरेक्ट कम्युनिस्टों का विरोध करेंगे तो कोई भी नहीं मानेगा, उलटे इससे तो कम्युनिस्ट आन्दोलन बढेगा ही. कोई "indirect"
रास्ता सोचा जाये और फिर छुपे अजेंड़ें के तहत "indirect"
रास्ता सोचा भी गया और वो था कि "हिंदुस्तान में भाईचारा,
प्यार, मेल-महोब्बत, कौमीकता
पैदा ना होने दी जाये", चूँकि यह सामाजिक एकता ही
"क्रांति" लाती है और जब समाज में एकता ही नहीं होगी तो फिर क्रांति कैसे
आएगी? चूँकि क्रांति की पहली शर्त है "सामाजिक एकता"
और इसके विपरीत क्रांति ना होने देने की पहली शर्त है "समाज में विघटन,
वैमनष्य, विद्वेष, लड़ाई,
झगडे" आदि का बनाये रखना और फिर इसी "गुप्त अजेंडे" के
तहत समाज में "विघटन, वैमनष्य, विद्वेष,
लड़ाई, झगडे" फ़ैलाने के लिए "RSS"
नामक संगठन खड़ा किया गया, जिसका मुख्य काम था हिन्दू-मुस्लिम
दंगे करवाकर सामाजिक एकता को भंग करना और ये लोग इसमें कामयाब भी हुए. इधर अंग्रेंजों
ने भी इन्हें सराहा, चूँकि अंग्रेंज भी तो समाज में ज्यादा से
ज्यादा फूट, विघटन चाहते थे. अब अंग्रेंजों और RSS दोनों का काम / रास्ता एक ही था "समाज में फूट डालना", परन्तु दोनों के मकसद अलग-अलग थे. अंग्रेंजों का मकसद फूट डालकर और जयादा दिन
तक हिंदुस्तान में राज करना था, जबकि RSS का मकसद हिंदुस्तान में "समाजवादी क्रांति" को रोकना था. RSS
अंग्रेंजों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर काम करने लगा. आज़ादी की लड़ाई
लड़ने वाले देशभक्तों की मुखबरी करने लगे अर्थात आज़ादी की लड़ाई का विरोध किया जाने
लगा. 1942 में अटल बिहारी वाजपेई ने दो देशभक्त ननुआ और ककुआ के खिलाफ गवाही दी,
जिस कारण उनको सजा हुई. अगर RSS नामक संगठन ना
होता तो हम 1937 में ही आजाद हो गए होते. 1947 में आज़ादी के तुरंत बाद, RSS
ने एका-एक चाल चली, जैसे पडौस में चोरी करने वाला
चोर, जाग पड़ने पर अपने आप को बचाने के लिए "पकड़ो चोर-पकड़ो
चोर" का शोर मचाने लगता है और अक्सर वो अपने आप को बचाने में कामयाब भी हो ही
जाता है, ठीक वैसे ही RSS ने भी किया था
और फिर अपनी पीठ अपने आप थपथपाने लगे. हम देशभक्त-हम देशभक्त कहकर अपने मुहं मिया-मिट्ठू
बनने लगे, जो सिलसिला आज तक बदस्तूर जारी है. दंगे फ़ैलाने का
काम भी बदस्तूर जारी है और आगे भी जारी रहेगा, चूँकि भारतीय जनता
की नुमायिन्दगी ना करके, जमींदारों, शर्मायेदारों
और कोर्पोरेट घरानों की चाकरी जो करनी है, उनके हितों की रक्षा
जो करनी है, चूँकि RSS को चलाने के लिए
धन भी तो वही लोग उपलब्ध कराते हैं. जय हिंद.
शिव कुमार जोशी
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