दिल्ली से प्रकाशित होने वाले उर्दू समाचार पत्र ‘सहरोजा दावत’
में सुप्रीम कोर्ट के वकील एन0डी0 पंचोली से बातचीत पर आधारित एक लेख ‘‘मीडिया इन्टेलीजेन्स
के जेरे कन्ट्रोल (अधीन)’’ के शीर्षक से प्रकाशित हुआ, जिसमें कहा गया है ‘‘ इस वक्त सरकारों ने अवाम
(जनता) को गुमराह करने के लिए मीडिया का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। यही नहीं उस
पर इन्टेलीजेन्स का भी कंट्रोल है। खुफिया संस्थाएँ (एजेंसियाँ) जिस तरह की खबरें चाहती
हैं मीडिया उसी तरह की खबरें उसी अंदाज में पेश करता है। इससे अवाम की ताकत घटी है
और यह जमहूरियत (लोकतंत्र) के लिए बड़ा खतरा है। क्योंकि जो बातें आनी चाहिए वे नहीं
आती हैं और जो आ रही हैं उन्हें तोड़ मरोड़ कर पेश किया जा रहा है।’’ विद्वान अधिवक्ता,
माओवाद और आतंकवाद समेत देश की आन्तरिक सुरक्षा के समक्ष चुनौतियों तथा
सरकार एवं खुफिया एजेंसियों की भूमिका पर चर्चा कर रहे थे। आतंकवाद की समस्या से निपटने
के लिए खुफिया एवं जाँच एजेंसियाँ पिछले कुछ सालों से लगातार सवालों के घेरे में रही
हैं। इन्टेलीजेन्स ब्यूरो (आई0बी0) समेत पूरे खुफिया तंत्र पर साम्प्रदायिक आधार पर
मुसलमानों के प्रति भेदभाव पूर्ण रवैया अपनाने का आरोप भी लगता रहा है। हर आतंकी वारदात
के बारे में खुफिया एजेंसियों और उनके बेनामी सूत्रों के हवाले से प्रकाशित होने वाले
समाचार श्रृंखलाओं से इन आरोपों को बल मिलता है तो जाँच एजेंसियों की कार्यशैली इसे
और गंभीर बना देती है।
जहाँ तक आतंकी वारदातों के पश्चात खुफिया एजेंसियों और विभिन्न
सूत्रों के हवाले से आने वाले समाचारों, सुर, दिशा, आक्रामकता और कुछ मामलों
में निष्तेजता का प्रश्न है वह परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहा है। भगवा आतंकवाद
के सामने आने से पहले किसी घटना को अंजाम देने वाले सम्भावित संगठनों या व्यक्तियों
के नामों को लेकर सूत्रों के हवाले से छपने वाले समाचार बहुत कम देखने को मिलते थे।
घटना के तुरन्त बाद लश्कर, हूजी, या हिजबुल
जैसे संगठनों के साथ सिमी का नाम जोड़ दिया जाता है। शुरुआती दौर में गिरफ्तार होने
वाले कथित आतंकियों में कुछ कश्मीरियों के साथ उत्तर, मध्य या
दक्षिण भारत के कुछ मुसलमानों के नाम शामिल हुआ करते थे। कश्मीर के अलगाववादी आन्दोलन
और इन घटनाओं में कश्मीरियों के नाम शामिल होने के कारण जेहादी आतंकवाद तथा उससे मुसलमानों
के जुड़ाव को आम स्वीकार्यता प्राप्त हो गई थी। इसलिए किसी मीडिया ट्रायल या अभियान
की आवश्यकता ही नहीं रह जाती थी। आतंकवाद से मुक्ति दिलाने के नाम पर फर्जी इनकाउन्टरों
का भी एक दौर आया। कई मामलों में सच्चाई मीडिया तक पहुँची भी परन्तु वह कोई खबर नहीं
बन पाई। आजमगढ़ से हकीम तारिक और जौनपुर से मौलाना खालिद को क्रमशः 12 और 16 दिसम्बर
को उठा लिया गया। जब उन्हें किसी अदालत में पेश नहीं किया गया तो फर्जी इनकाउन्टर में
मार दिए जाने की आशंका को लेकर आन्दोलन शुरू हो गया। आतंकवाद के नाम पर होने वाली नाइंसाफियों
के खिलाफ भारत का यह पहला भरपूर आंदोलन था। अन्ततः इन दोनों को 22 दिसम्बर 2007 को
बाराबंकी रेलवे स्टेशन से हथियार तथा गोला बारूद के साथ हूजी के खूँखार आतंकी के तौर
पर गिरफ्तार दिखाया गया। अब तक जो समाचार पत्र उनके अपहरण और तलाश की खबरें छाप रहे
थे अचानक उन्हें कट्टर धार्मिक, हूजी एरिया कमाण्डर और आतंकवादी
लिखने लगे। पूर्व की खबरों के बिल्कुल उलट पुलिस की कहानी को वैधता प्रदान करने वाले
समाचारों से खुफिया एवं जाँच एजेंसियों का मीडिया पर अंकुश का पता चलता है। उन दोनों
की गिरफ्तारी की सत्यता जानने के लिए गठित जस्टिस निमेष कमीशन की जाँच के तीन साल से
भी अधिक समय से लंबित होने में भी इन एजेंसियों की भूमिका है। बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़
पर काफी बहस हो चुकी है और यह सिलसिला अब भी जारी है। परन्तु एक बात बहुत यकीन के साथ
कही जा सकती है कि यदि जेहादी आतंकवाद को आम स्वीकार्यता प्राप्त नहीं होती और मीडिया
पर इन एजेंसियों की इतनी मजबूत पकड़ न होती तो देश की राजधानी में, दिन के उजाले में दो मासूमों की फर्जी मुठभेड़ में हत्या न होती।
मसीहुद्दीन संजरी जी आपकी बात में दम नजर आता हे ,हिन्दुस्तान में सियासी फायदे के लिए नेता बिरादरी किसी की भी जान डाव पर लगा सकती हे .... यह बेहद दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति हे
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