लोकतंत्र का, संविधान का, नियमों का जितना दुरूपयोग जनप्रतिनिधि होने के नाम पर
जनप्रतिनिधियों ने किया है शायद ही किसी अन्य ने इतिहास में किया हो। फिर बात चाहे
सारे राह तिरंगा जलाने की हो, जनभावना को उकसाने की हो, अपनी अभिलाषा के लिए जनता
को भीड़तंत्र में बदल मरवाने की हो, भीड़तंत्र के सहारे
शासकीय एवं अशासकीय सम्पत्ति को नुकसान पहुचाने की हो, अपने
अनुयाईयों को भड़का किसी पर हमला करने की हो, संसद-विधानसभाओं
में अध्यक्षों के साथ-साथ जनप्रतिनिधियों की लडाई किसी गेंगवार की तरह हो? सुप्रीम कोर्ट कोई आदेशों की दुहाई देने वाले उसकी ही बातों पर प्रश्न
चिन्ह लगाने की हो? घपले घोटालों, भ्रष्टाचार
के माध्यम से अकूत सम्पत्ति अर्जित करने की हो, स्वयं अपनी
पगार बढ़ाने की हो? अधिकांश मामलों में जनप्रतिनिधि अपने को
नियमों से अपने को ऊपर या परे से समझते नजर आते रहे है। ये बराबरी तो आई. ए. एस.
के वेतनों से करेंगे लेकिन किसी शासकीय अधिकारी/कर्मचारियों की तरह नियमों के बंधन
से छिटकते ही नजर आयेंगे क्या ये बेईमानी नहीं हैं?
जनता के पैसों पर जनसेवा के नाम पर खुद का
रातों-रात धन कुबेर बना लेना, जनता के माल पर डाका नहीं? निरीह जनता की दम पर
सत्ता की मलाई खाने वाले अपने को जनता से अलग समझने की ठसक और अभिमान में चूर हो
जनता की पीड़ा को अनदेखा करना, अनसुनी करना, रातों रात बने धन कुबेर द्वारा अर्जित सम्पत्ति का सबूत न बताना कहां तक
उचित है? यदि वास्तव में लोकतंत्र में जनता मालिक, जनप्रतिनिधि सेवक है तो जनता की प्रतिक्रिया या उसकी आवाज को डॉन की तरह
भूमिका अदा कर आवाज दबाने से क्या लोकतंत्र खतरे में नहीं पड़ता?
विगत् दो वर्षों में क्या केन्द्र सरकार, क्या राज्यों की सरकार
घपले-घोटालों, भ्रष्टाचार, अत्याचार,
अनाचार, कुपोषण, बेरोजगारी
महंगाई को सुनामी के थपेड़ों से बुरी तरह लड़खड़ा रही है। ऐसी त्रासदी में भी
तथाकथित नेता जनता की समस्याओं की और न देख अपनी राजनीति चमकाने में व्यस्त है। सब
कुछ ऐसा लगता है कि किसी के घर में गमी हुई हो और पड़ोसी डिस्को गाने बजाये और गाए
और लोगों के विरोध करने पर या हमला होने पर अपनी अभिव्यक्ति का संवैधानिक हनन होने
की बात करें। आज एसा ही कुछ कृत हमारे माननीय कर रहे है यहां यक्ष प्रश्न स्वतः उठ
खड़े होते है मसलन जनप्रतिनिधि/मंत्री किसके लिए है? जनता या
उद्योगपति के लिए? महंगाई पर अगर नियंत्रण नहीं पा सकते या
लाचार है तो कम से कम ऊल-जुलुल भविष्यवाणी कर जनता के घावों को तो न कुरेदों,
चौतरफा महंगाई की जली जनता के ऊपर नमक तो मत छिड़को? यदि महंगाई पर काबू नहीं होता हो तो इसे अपनी अक्षमता समझ इस्तीफा दे जनता
की आवाज क्यों नहीं बनते? मंत्री जैसे जिम्मेदार पदों पर बैठ
गैर जिम्मेदाराना बयानबाजी करना आज एक स्टेंड सा बन गया है। ये तो भारतीय जनता है
कई वर्षों तक गुलाम रही है, काफी सहनशील है, जल्द क्रांति घटित नहीं होती। हकीकत में आज भी भारत का नागरिक गुलाम ही
है। मेरी इस बात को पढ़ चौकिये मत हाँ ये सही है। अन्तर सिर्फ इतना है इतिहास से
आज तक सिर्फ शासन बदला, जनता आज भी उतनी ही गुलाम और शोषित
है जितनी पहले थी। आज तथाकथित नेताओं ने केवल युवाओं की गुलाम फौज ही तैयार करी है
जो सिर्फ ‘‘हुक्म मेरे आका’’ का ही न केवल इंतजार करती है बल्कि मर कटने, काटने को भी तैयार रहती है। यदि गलती से इन्हीं युवाओं में कोई स्वाभिमानी
निकल गया तो ये आका उसे सीखचों के पीछे पहुंचाने और मरवाने में भी देरी नहीं करते।
आखिर गुलाम, गुलाम ही रहता है उसकी अपनी कोई मर्जी हो भी
नहीं सकती।
प्रणव मुखर्जी कितने भोलेपन से कहते है कि
‘‘आखिर में देश किधर जा रहा है’’ पेड़ बबूल का वो आखिर आम की इच्छा करना ही बेमानी
है। गलत हमेशा गलत रहेगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कृत्य करने वाला छोटा है, बड़ा है या प्रभावी है। हाल ही
में एक युवक द्वारा माननीय मंत्री शरद को चांटा मारना किसी भी सूरत में उचित नहीं
ठहराया जा सकता। हमारे संविधान में कोई भी व्यक्ति नियम से ऊपर नहीं है चाहे वो छोटा
हो या बड़ा हो या मंत्री हो? गलती जो भी करेगा यदि उसे हम
संविधान के अनुसार, नियमों के अनुसार दण्ड दे तो ऐसी नौबत ही
नहीं आयेगी, दिक्कत तब आती है ‘‘बड़े करे सो क्षम्य है,
छोटे करे सो दण्ड’’ भेदभाव की नीति हमेशा विद्रोहियों को ही जन्म
देगी जिसे रोकना भी मुश्किल है?
मंत्री, जनप्रतिनिधि और जनता को संविधान की रक्षा के लिए अपनी-अपनी
जवाबदेही, कर्त्तव्यनिष्ठा का पालन, स्वस्थ
लोकतंत्र के लिए करना ही चाहिए। कहते भी है बुराई का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर
होता है। ऊपर वाले सुधरेंगे तो नीचे वाले अपने आप ही सुधर जायेंगे। अन्त में हम
सुधरेंगे तो जग सुधरेगा।
मो. 9425677352
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