Friday, March 23, 2012

भारत भाग्य विधाता


किसान, भारत भाग्य विधाता-किसान भगवान-अन्नदाता आदि नामों से पुकार कर उसको महिमा मंडित कर सबसे ज्यादा शोषण उसी का किया जाता है। किसान मुख्य उत्पादक है। उसी के द्वारा उत्पादित वस्तुओं से मानव शरीर संचालित होता है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में उसी की व्यवस्था के लिए राजस्व, न्याय, लोकतंत्र, समानता जैसे शब्द बने हैं, लेकिन वस्तु स्थिति इसके विपरीत है। कर्नाटक, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, पंजाब में किसान आत्महत्या कर रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार सन् 1995 से 2010 तक किसानों की आत्महत्या का आँकड़ा 2 लाख 56 हजार 9 सौ तेरह बताई गई है। वहीं राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आँकड़े भ्रमित करने वाले हैं। वास्तविकता यह है कि देश में हर घण्टे दो किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं। इसका मुख्य कारण बढ़ती लागत, कम होती आमदनी से कर्ज का मकड़जाल कसना है।
किसान आत्महत्याओं को छुपाने के लिए शासन और प्रशासन तरह-तरह की बातें करता है। अखबारों में यह छपवाते हैं कि ‘नौजवान ने बीबी की आशनाई से मजबूर होकर आत्महत्या की, शराबी पति ने आत्महत्या की, गृहकलह के कारण आत्महत्या, सूदखोरों के उत्पीड़न से आत्महत्या, पुलिस उत्पीड़न से आत्महत्या समाचार प्रकाशित होते हैं। वास्तविक स्थिति यह है कि किसानों की आत्महत्याओं का ग्राफ सामने न आने पाए इसलिए यह बाजीगरी की जाती है।
राहुल गांधी, मुलायम सिंह यादव, मायावती, गडकरी, आडवाणी से लेकर विभिन्न राजनैतिक दलों के नेतागण किसानों की समस्याओं को हल करने के लिए परेशान, हैरान 24 घण्टे रहते हैं। इन लोगों की परेशानियों को ही देखकर शायद किसान आत्महत्या कर रहे हैं। ये नेतागण जितना परेशान होते हैं, पूँजीपति वर्ग राष्ट्रीय से बहुराष्ट्रीय हो जाता है और किसान अपनी दयनीय हालत से मजबूर होकर आत्महत्या कर लेता है।
केन्द्र सरकार द्वारा 2007, 2008 में किसानों को कर्ज माफी के नाम पर 70 हजार करोड़ रूपये दिए गए, जिसका भी लाभ किसानों को नहीं मिला। किसानों के नाम पर बैंक अधिकारियों और दलालों के गठजोड़ ने फर्जी ऋण निकाल लिए थे उसको कर्जमाफी योजना में समायोजित कर बैंक अधिकारियों व दलालों ने अपनी गर्दन बचा ली।
बुवाई के समय बाजार में ‘बीज’ और खाद गायब हो जाते हैं। किसान व उसके संगठन हल्ला मचाकर रह जाते हैं। शासन व अधिकारी गण व्यवस्था बनाने की बात करने लगते हैं और जब फसलें तैयार होती हैं तो उनको खरीदने के लिए सरकारी एजेंसियाँ कभी बोरा नहीं है तो कभी चेक बुक नहीं है, कभी ट्रान्सपोर्ट की व्यवस्था नहीं है, कहकर भुलावा देते हैं। किसान हल्ला मचाते रहते हैं और सरकारी एजेंसियाँ व्यापारियों का गेहूँ, धान चुपके-चुपके खरीदकर गोदामों को भर देती हैं और इसमें भी किसानों को अपनी उपज का उचित मूल्य न मिलने के कारण हजारों का नुकसान होता है।
यदि राहुल गांधी, मुलायम सिंह यादव, मायावती, गडकरी, आडवाणी जैसे नेतागण किसानों की चिंता छोड़कर अम्बानियों, टाटाओं, बिरलाओं की चिंता करने लगें तो शायद किसानों की स्थिति में सुधार संभव हो, क्योंकि इन राजनैतिक दलों की सहमति द्वारा इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, उद्योगपतियों को लाखों करोड़ रुपये के बेल आउट पैकेज दिए जाते हैं जिनकी चर्चा भी नहीं होती है।
किसानों की संख्या घट रही है, उनकी जमीने किसी न किसी बहाने छीनी जा रही हैं। ये सरकारें और इनके नेतृत्वकारी लोगों का चरित्र किसान विरोधी है। ये बहुराष्ट्रीय, राष्ट्रीय कम्पनियों के अभिकर्ता मात्र हैं।

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