पिछले दिनों लखनऊ से ग्वालियर जाना हुआ। लखनऊ से बरौनी
ग्वालियर मेल आमतौर पर इस रूट की सबसे अच्छी गाड़ी मानी जाती है। इसी लिहाज से
तत्काल कोटे में रिजर्वेशन कराकर स्लीपर कोच में अपनी बर्थ पर पहुँच गया। गाड़ी
स्टेशन से छूटी भी नहीं थी कि कोई न कोई सवारी आकर किसी-किसी सीट पर एक दूसरे से
थोड़ा बिठाने की गुजारिश करती दिखाई देने लगी।
मानवता के नाते ही शायद उन लोगों ने उन्हें बैठने के लिए
अपनी आरक्षित सीट में भी जगह दे दी। गाड़ी जैसे-जैसे अगले स्टेशनों पर रुकती जाती, इसी तरह के सज्जनों की संख्या बढती गयी। एक
महानुभाव ने हमारी सीट पर आकर भी रौब मारते हुए कहा ‘सरकिये जरा।’ हालांकि उनमें
रौब मारने जैसा कुछ दिखाई तो नहीं दे रहा था, पर शायद हो
सकता है किसी वरदहस्त के कारण वह उछल रहे हों।
उस समय इस तरह बैठे हुए लोगों को देखकर मुझे लगा कि
प्रतीक्षा सूची में इनकी सीट निश्चित नहीं हो पायी होगी, इसलिए ये सब कह रहे हैं। दूसरे सहयात्रियों
कि तरह यही समझते हुए मैंने भी उसे बैठने के लिए जगह दे दी। धीरे-धीरे सीटों पर उन
लोगों का आधिपत्य इस कदर बढ़ता चला गया कि थोडी ही देर में हम जैसे यात्री उनकी
पहली जैसी स्थिति मे आ गये।
बडी हैरानी की बात है साहब- तत्काल में रिजर्वेशन लिया, सीट निश्चित है फिर भी खडे होकर जाना पड़
रहा है। प्रथम दृष्टया लगा शायद क्षेत्रीयता का खून इन लोगों की नसों में प्रवाहित
है इसीलिए ऐसा हो रहा हो। पर कोई बात नहीं भारतीय रेलवे तो क्षेत्रवाद से ग्रस्त
नहीं है उसके सामने इस बात को कहेंगे।
वहां से जैसे ही हटने कि कोशिश की पूरी गैलरी ऐसी लगी कि
सामान्य कोच की यादें ताजा हो गयी, क्योंकि अक्सर नियम उन्हीं खूटियों में टंगे होते हैं, जिनमें यात्री अपना सामान टांग दिया करते हैं। एक सज्जन से पूछने पर कि
‘साहब टिकट निरीक्षक आयेंगे क्या?’ आंखे फैलाते हुए उन्होंने
मुझे ऊपर से नीचे देखा ओर कहा सीट नहीं मिली है शायद आपको, बाहर
बात नहीं की होगी। देखिये शायद आ जाये, नहीं तो खड़े रहिए,
कौन सी बड़ी समस्या है?
मैंने उनकी बात बीच मे ही काटते हुए कहा ‘नहीं सीट तो है
मेरे पास, पर कुछ सज्जन जो उस सीट पर पसर गये हैं
उनका कहना है कि टीटीई साहब ने कह दिया है। मुझे लग रहा है कि शायद कोई त्रुटि हो
गई है इसलिए मेरी सीट पर किसी ओर का आवंटन कर दिया होगा।' मेरे
इतना कहने पर उनके चेहेरे पर ऐसा भाव आया कि जैसे उन्हें पूरी बात की जानकारी हो।
वे कहने लगे 'टीटीई क्या करेगा, उसी के
आदेश पर तो हम लोग अन्दर बैठे हैं।'
इतना कहते ही उनके जैसे चार-छः लोगों ने अट्ठाहास करना शुरू
कर दिया। मेरी समझ मे कुछ भी नही आ रहा था। मुझे ऐसी हालत में देखकर मेरे एक
सहयात्री ने जो काफी देर से मेरे पीछे खडा था कहने लगा ‘साहब क्यों अपना मजाक बनवा
रहे हो, खडे रहिए बस कुछ घंटों की ही तो बात है। पर
मेरे रिजर्वेशन का तर्क देने पर उन्होंने तपाक से कहा 'सरकारी
नौकरी या दाखिला लेने की जगह थोड़ी है साहब जो आपके रिजर्वेशन को ध्यान में रखा
जाये। और वैसे भी साहब इस रूट पर तो यही होता है। अभी कुछ रोज पहले ही रास्ते के
एक स्टेशन पर कुछ लोगों ने आपकी ही तरह विरोध करने पर सब पर पत्थर बरसाये थे। आप
शायद पहली बार इधर चल रहे हैं इसीलिए ऐसा लग रहा है। अगर आना-जाना लगा रहा तो यकीन
मानिये, आदत पड़ जायेगी।’
मेरे सामान्य ज्ञान को बढाते हुए उन्होंने कहा ‘नीचे टीटीई
की सेवा की है इन सबने, तब उनकी कृपा
से इन्हें सीट प्राप्त हुई है। आप बिना वजह बात को बढा रहे हैं।’ ये सुनकर मै
अंचभित हो गया। फिर भी थोडी हिम्मत जुटाकर कहा ‘नहीं ऐसे कैसे हो जायेगा। आम
यात्री की समस्या ये नहीं सुनेंगे तो क्या, आरपीएफ है स्टेशन
मास्टर से कहेंगे, शिकायत पत्र भेजेंगे।’
इतना सुनने पर उन्होंने अपनी पूर्ण स्वीकृति जताते हुए हमें
आगे कि ओर जाने का इशारा किया और उस भीड़ की धक्कामुक्की ने मुझे वहां से दरवाजे
के पास तक लाने में जरा भी देरी नहीं की। दरवाजे के पास खड़े-खड़े दिमाग यक्ष
प्रश्न मे उलझा हुआ खुद से ही सवाल जवाब करने लगा कि बताओ ये भी कोई तरीका है, कितनी अव्वयवस्था है, कोई समाधान ही नहीं है। स्टेशन पर उतरते ही सबसे पहले इसकी शिकायत करूँगा।
इन्ही तानों-बानों के साथ गाड़ी रुकती रहती, चलती रहती। मेरे
जैसे लोगों की आमद बढने लगी, पर सुनने वाला वहाँ कोई भी
दिखायी नहीं पड़ा।
रात के नौ बजे के आसपास गाडी स्टेशन पर पहुँचती है और
प्लेटफार्म संख्या 3 पर रुक जाती है। एक जिम्मेदार नागरिक की तरह सोचते हुए
सर्वप्रथम मैं आरपीएफ थाने पहुँचा तो सामने बैठे दारोगा जी ने बड़े अनमने मन से
हमारी बात सुनी ओर टरकाने की हरसंभव कोशिश भी की. साथ ही यह नसीहत भी दी कि आपकी
बहस की वजह से ही ऐसा हुआ होगा। मेरा आवेशित होना स्वाभाविक था, फिर भी संयम से काम लेते हुए मैंने कहा
‘अपने अधिकार के बारे में कहना अगर बहस है, अव्यवस्थाओं के
बारे में बात करना बहस है तो आप मान लीजिए मैंने बहस की है।’
इतना सुनते ही उन्होंने हमे बाहर की ओर जाने का रास्ता दिखा
दिया। जैसे ही मैं वहां से चला, बगल में
ही स्टेशन अधीक्षक का कार्यालय था। यह सोचकर की ये सही जगह है इस बात को बताने की,
मैंने उन्हें सारी राम कहानी सुनाई तो महज बहकाने के अलावा उनके पास
भी कोई चारा दिखाई नहीं दिया। मुझे इस तरह के बर्ताव की कतई उम्मीद नहीं थी। बाहर
आकर सोचा शिकायत पेटिका मे अपनी बात लिखकर डाल देता हूं शायद कभी कोई सुधार हो
जाये।
यही सोचकर उस पत्र को डालने के लिए जैसे ही शिकायत पेटिका
खोली तो उसकी स्थिति तो मुझसे भी बदतर थी। गुटखे, तंबाखू, बीडी- सिगरेट के पाउच, पान की पीक के निशानों के साथ-साथ कुछ अंधनगे चित्र और कूड़ा-कबाड़ से पटा
हुआ था। मैं सन्न रह गया और ट्रेन में कही उस आदमी की बात को याद करने लगा कि
‘साहब, क्यों अपना मजाक उड़वाते हो।’
मैं खुद को कोस रहा था कि बिना वजह रिजर्वेशन के लिए इतनी
लम्बी लाइन में सुबह-सुबह जाकर लगा। क्या जरूरत थी किसी से कुछ कहने की, क्यों मुझसे चुप नहीं रहा जाता। किसी को
कोई शिकायत ही नहीं होती होगी, तभी तो उस शिकायत पेटिका को
इस प्रयोग में लाया जा रहा है। मैं ही क्यों इन अव्यवस्थाओं के बारे में सोचूं।
यही झल्लाहट अपने आप पर उतारते हुए उस पत्र को हाथ में लेकर
असहाय स्थिति में स्टेशन से बाहर निकल कर मुख्य सड़क पर आ गया तो देखा सामने एक
बड़े से होर्डिंग पर लिखा था ‘भारतीय रेलवे सदैव आपकी सेवा में तत्पर।‘ मैंने उसे
देखा और फिर अपने आप को।
bhai jaan mai aapsey naaraaz hu aur merey narazgi ki wajah bhi wajib honi chaiye aapki nazar me mai abhi zinda hu aap mujhey ek phone nahee kar saktey they kya bhai mai bhi toh dekhu kaun itna bada mafia ho gaya hai aur aapney mujhey mulakat ke liye bhi phone nahee kiya bhai ab mai dher sara naraz hu
ReplyDeleteab ..........