"दुनिया की चौथाई आबादी होने के बाद भी आज मुसलमान
वैज्ञानिक-तकनीकी तौर पर पिछड़े हैं, राजनीतिक रूप से भी हाशिये पर हैं और आर्थिक रूप से बहुत ग़रीब ऐसा क्यों
है? विश्व के सकल घरेलू उत्पाद, जो 60
ट्रिलियन डॉलर है, में मुसलमानों की भागीदारी केवल 3
ट्रिलियन डॉलर है, जो फ्रांस जैसे छोटे देश, जिसकी जनसंख्या 70 मिलियन है, से भी कम है और जापान
के सकल घरेलू उत्पाद की आधी है तथा अमेरिका, जिसकी जनसंख्या 300 मिलियन है, के सकल घरेलू उत्पाद का पांचवां
हिस्सा है. ऐसा क्यों है?"
अमेरिका स्थित पिऊ रिसर्च सेंटर की हाल में आई एक रिपोर्ट
के अनुसार, पूरे विश्व में एक बिलियन
और 570 मिलियन मुसलमान हैं. मतलब दुनिया का हर चौथा आदमी मुसलमान है. क्या इस
रिपोर्ट में कुछ ऐसा है, जिस पर खुश हुआ जा सके? मेरे हिसाब से तो नहीं. अलबत्ता मुसलमानों के लिए यह एक विचारणीय बात है
और उन्हें इस पर चिंतन करना चाहिए. दुनिया की चौथाई आबादी होने के बाद भी आज
मुसलमान वैज्ञानिक-तकनीकी तौर पर पिछड़े हैं, राजनीतिक रूप
से भी हाशिये पर हैं और आर्थिक रूप से बहुत ग़रीब. ऐसा क्यों है? विश्व के सकल घरेलू उत्पाद, जो 60 ट्रिलियन डॉलर है,
में मुसलमानों की भागीदारी केवल 3 ट्रिलियन डॉलर है, जो फ्रांस जैसे छोटे देश, जिसकी जनसंख्या 70 मिलियन
है, से भी कम है और जापान के सकल घरेलू उत्पाद की आधी है तथा
अमेरिका, जिसकी जनसंख्या 300 मिलियन है, के सकल घरेलू उत्पाद का पांचवां हिस्सा है. ऐसा क्यों है? यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि विश्व की 35 फ़ीसदी जनसंख्या ईसाई है,
लेकिन यही 35 फ़ीसदी लोग विश्व की 70 फ़ीसदी धन-संपत्ति के मालिक
हैं.
मानव विकास सूचकांक यानी एचडीआई में भी यदि कुछ तेल निर्यात
करने वाले देशों को छोड़ दिया जाए तो बाक़ी सभी मुसलमान देश बहुत नीचे आते हैं.
विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी मुसलमान देश बहुत पीछे हैं. विज्ञान के
क्षेत्र में बस पांच सौ शोध प्रबंध यानी पीएचडी जमा होते हैं. यह संख्या अकेले
इंग्लैंड में तीन हज़ार है. 1901 से लेकर 2008 तक लगभग पांच सौ नोबल पुरस्कारों
में से यहूदियों को 140 बार यह पुरस्कार पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जो लगभग 25 फ़ीसदी है, जबकि यहूदियों कि जनसंख्या विश्व की जनसंख्या की केवल 0.2 फ़ीसदी है. इसके
विपरीत आज तक मात्र एक मुसलमान को यह पुरस्कार पाने का अवसर मिला है. (एक और भी था,
लेकिन पाकिस्तान ने उसे ग़ैर मुसलमान घोषित कर दिया) मतलब यह कि
मुसलमानों की इस पुरस्कार में भागीदारी 0.2 फ़ीसदी है. यानी विज्ञान के क्षेत्र
में मुसलमानों का योगदान नगण्य है. एक और नकारात्मक तथ्य निकल कर आया शंघाई
विश्वविद्यालय द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट के आधार पर. इसमें विश्व के चार सौ
सबसे बढ़िया विश्वविद्यालयों की एक सूची है और इस्लामी देशों का एक भी
विश्वविद्यालय इस सूची में नहीं है. यह बड़ी दु:खद बात है, क्योंकि
सातवीं शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक दुनिया के सबसे बड़े और आलिम
विश्वविद्यालय मुस्लिम देशों में स्थित थे. कोरडोबा, बग़दाद
और काइरो इस्लामिक तालीम के नामचीन केंद्र थे.
विज्ञान के जाने-माने इतिहासकार जिलेस्पी ने ऐसे 130 महान
वैज्ञानिकों एवं और प्रौद्योगिक विशेषज्ञों की सूची बनाई है, जिनका मध्य युग में बहुत बड़ा योगदान था.
इनमें से 120 ऐसे थे, जो मुसलमान देशों से थे और केवल चार
यूरोप से थे. क्या यह तथ्य खुद में इतना अर्थपूर्ण नहीं कि मुसलमान अपने भूत को
विवेचित करें, अपने आज को ईमानदारी से देखें और अपने भविष्य
की तार्किक रूप से कल्पना करें. मैं मुसलमानों की इस आबादी के बारे में कुछ और
रोचक तथ्य बता सकता हूं, जो अलग-अलग संस्थाओं द्वारा किए गए
शोधों पर आधारित हैं. आज की प्रजनन रफ़्तार से मुसलमानों की जनसंख्या अगले 50सालों में दोगुनी हो जाएगी. तब मुसलमान संख्या में ईसाइयों से अधिक हो जाएंगे,
जिनकी जनसंख्या भी दोगुनी होगी. मतलब यह कि मुसलमानों की समस्याएं
और बढ़ जाएंगी. आज की बेरोज़गारी और आर्थिक ग़रीबी, जो
मुस्लिम समाज और मुस्लिम देशों में व्याप्त है, वह ज़ाहिर
तौर पर और बढ़ेगी. अगले पचास सालों में अगर मुस्लिम जनसंख्या बढ़कर दोगुनी हो गई
तो मुसलमान और ईसाई देशों के बीच आर्थिक विकास की दूरी और बढ़ेगी. प्रश्न फिर यह
उठता है कि इस शताब्दी या आने वाली सदी में विश्व पर किसकी सार्वभौमिकता और
प्रभुसत्ता रहेगी, पांच फीसदी संसाधन वाले मुसलमानों की या 70 फीसदी संसाधन वाले ईसाइयों की?
मुसलमानों को यह याद रखने की ज़रूरत है कि आज के वैज्ञानिक
विकास से परिभाषित विश्व में किसी भी देश की इज़्ज़त और शक्ति उसकी जनसंख्या पर
आधारित नहीं है. आज के विश्व में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विकास ही
शक्ति, इज़्ज़त और संसाधनों की गारंटी है. ऐसे कई
उदाहरण हैं, जहां अधिक जनसंख्या के साथ आर्थिक पिछड़ापन और
कम सामरिक सामर्थ्य है. यहूदी देश इजराइल को देखिए, इतना छोटा
देश पूरे अरब पर हावी रहता है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि यह एक
आर्थिक, सामरिक और वैज्ञानिक रूप से समृद्ध देश है, जिसके सामने पिछड़ेपन के शिकार अरब देशों को झुकना पड़ता है, हार मान लेनी पड़ती है. एक तरफ वे मुसलमान हैं, जो
आज पश्चिमी देशों में रहते हैं और अपनी समृद्धि से खुश हैं. जबकि वहीं वे मुसलमान
भी हैं, जो मुस्लिम बाहुल्य देशों के वाशिंदे हैं और आर्थिक
रूप से पिछड़ेपन में डूबे हुए हैं. यूरोप में रहने वाले 20 मिलियन मुसलमानों का
सकल घरेलू उत्पाद पूरे भारतीय महाद्वीप के 500 मिलियन मुसलमानों से अधिक है.
निस्सीम हसन एक ख्याति प्राप्त इस्लामिक विद्वान हैं. वह
कहते हैं कि मुसलमानों में ज्ञानार्जन की घटती प्रवृत्ति ही उनके आर्थिक और
राजनीतिक पतन का मुख्य कारण है. हमने सदियों से मानवता का नेतृत्व छोड़ दिया है.
हम लकीर के फ़कीर बनकर रह गए हैं. महातिर मोहम्मद, जो मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री हैं, ने मुसलमानों
को सही सलाह दी. उन्होंने ओआईसी की मीटिंग में कहा कि मुसलमानों को अपनी
रूढ़िवादिता छोड़कर नए समय में नई पहचान बनानी चाहिए, क्योंकि
सामाजिक परिस्थितियां अब बदल चुकी हैं. यह याद रखने की बात है कि आठवीं से चौदहवीं
शताब्दी के बीच जब मुसलमान स्पेन पर राज करते थे, तब स्पेन
की आमदनी बाक़ी सारे यूरोप से अधिक थी. ऐसा इसलिए था, क्योंकि
स्पेन तब उच्च शिक्षा का बहुत बड़ा केंद्र हुआ करता था. आज स्थिति उलट-पुलट हो गई
है. आज ईसाई स्पेन का सकल घरेलू उत्पादन विश्व के बारह तेल निर्यात करने वाले
मुस्लिम देशों से कहीं अधिक है. मुस्लिम शासन के दौरान सभी देशों का इतना ही अच्छा
हाल था. बग़दाद, डमास्कस, काहिरा एवं
त्रिपोली अपनी वैज्ञानिक दूरदृष्टि के लिए विख्यात थे. इन मध्ययुगीन शताब्दियों
में मुस्लिम देशों को आर्थिक, सांस्कृतिक एवं बौद्धिक रूप से
बहुत विकसित माना जाता था. इसके विपरीत डोनाल्ड कैम्बेल (सर्जन-फ्रांस) के अनुसार,
जब मुस्लिम देशों में विज्ञान की आंधी चल रही थी, तब यूरोप अंधकार में जी रहा था. जब इस्लाम का उद्भव हो रहा था और वह संसार
पर हावी हो रहा था, तब मुसलमानों की जनसंख्या बमुश्किल 10
फीसदी थी.
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने कहा था कि यह सारी स्थिति
सोलहवीं शताब्दी से बदलने लगी. इस समय मुस्लिम समाज निष्क्रिय हो गया और यूरोपीय
अंधकार को अपनाने लगा. वहीं दूसरी ओर ईसाई जनता मुस्लिम विज्ञान की ओर उन्मुख हो
रही थी. ऐसे में वही हुआ, जिसका डर था.
वह मुसलमान समाज, जिसने पूरी दुनिया को आठ सौ सालों तक अपना
मुरीद बनाए रखा, उभरते हुए यूरोप के सामने झुक गया. इस
संदर्भ में मौलाना अबुल हसन अली नदवी, जो एक बहुत बड़े
इस्लामविद् थे, का कथन बहुत प्रासंगिक है कि सोलहवीं
शताब्दी के बाद मुसलमानों ने तर्क और विज्ञान को छोड़ दिया. इसलिए इस समाज में कोई
महान व्यक्तित्व नहीं उभर पाया और मुसलमान अपनी परंपरागत जीवनशैली में बंधकर रह
गए. कुछ समय पहले सैमुअल हंटिंग्टन ने पश्चिम और मुस्लिम देशों के बीच के विवाद को
दो सभ्यताओं का विवाद कहा था. यह बिल्कुल ग़लत बात है. यह विवाद अमीर और ग़रीब
देशों का है, अमीर मनमानी करना चाहते हैं और ग़रीब पिस रहे
हैं.
दुनिया के ग़रीब देशों को समझ लेना चाहिए कि अमीर देशों से
बिन बात के झगड़ों से उनकी ही हानि होगी और वह भी तब, जब यह झगड़ा धर्म के नाम पर हो. ग़रीब
देशों (मुस्लिम या ग़ैर मुस्लिम) की भलाई विश्व शांति में ही अधिक है. मुस्लिम
समाज की भलाई का एक ही रास्ता है कि वह यूरोप के पुनर्जागरण जैसे वैज्ञानिक रास्ते
पर चले और वह भी आज के यूरोप से तेज़ रफ़्तार में. सबसे पहले मुसलमानों को अपने मन
से कट्टरपंथ और चरमपंथ को उखाड़ फेंकना होगा और सच्चे इस्लाम के तहत भाईचारे और
सहिष्णुता को अपनाना होगा. पश्चिम के विरोध और पश्चिमी देशों के वीसा और ग्रीन
कार्ड हासिल करने की जद्दोजहद में बहुत बड़ा विरोधाभास है. कुछ अरब देशों के
शासकों की सराहना करनी होगी, क्योंकि हाल में उन्होंने विश्व
के धर्मों में आपसी तालमेल को बढ़ावा देने के लिए जो क़दम उठाए हैं, वे निश्चय ही दूरगामी हैं. एक कांफ्रेंस के दौरान सऊदी अरब के राजा
अब्दुल्लाह ने कहा कि इस्लाम को चरमपंथ से दूर रहना होगा. कुछ मुसलमानों ने
कट्टरपंथ की आड़ में सच्चे इस्लाम पर बट्टा लगाया है. हमें पूरी दुनिया को बताना
होगा कि इस्लाम मानवता की आवाज़ है, सहिष्णुता की पुकार है
और मेलजोल का हिमायती.
आज मुसलमानों को खोखले शब्दों और आश्वासनों की ज़रूरत नहीं
है. उन्हें धार्मिक असहिष्णुता की भी दरकार नहीं है. अब समय आ गया है कि मुस्लिम
देश पश्चिम के देशों के साथ ज़िम्मेदाराना बातचीत के रास्ते पर आएं. उन्हें बराक
ओबामा द्वारा काहिरा में दिए गए बयान का आदर करना चाहिए, जिसमें उन्होंने मुस्लिम देशों को पश्चिमी
देशों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर विश्व शांति के लिए काम करने का न्योता दिया.
ओबामा के हाथ और मज़बूत करने चाहिए, यही आज समय की मांग है.
आज मुस्लिम देशों को ओबामा के साथ कदम से क़दम मिलाकर चलने की ज़रूरत है.
khadija siddiqui says:
ReplyDeleteयह लेख अपने आप में बहुत अर्थपूर्ण और चिंता का विषय है.लेखक ने जिस प्रकार से अपने इस लेख में बताया है कि दुनिया में मुसलामानों की क्या स्थिति थी? मुसलमान कितने प्रगतिशील और आर्थिक रूप से कितने मज़बूत थे? पर जो मुसलामानों की वर्तमान स्थिति आज दुनिया भर में है वह वाक़ई में बहुत दुखदायी है.पर सवाल यह उठता है कि मुसलामानों की स्थिति पूरी दुनिया में इतनी बेहतर रहते हुए भी आज हाशिये की कगार पर क्यों पहुँच गयी है?इसकी कई वजहें हो सकती हैं.बहुत सरे तर्क और सुझाव दिए हैं लेखक ने मुसलामानों की स्थिति बेहतर करने के लिए.उसमें से कुछ बातें सही भी हैं कि मुसलमान अगर रूढ़िवादिता और परम्परागत जीवन शैली को छोड़ दे तो काफ़ी हद तक वे अपनी सफलता का मार्ग आसान कर सकते हैं.लेकिन फिर भी आख़िर उनकी परंपरागत जीवन शैली और उनकी रूढ़िवादिता है क्या?आख़िर मुसलामानों से ही उनकी जीवन शैली बदलने की उम्मीदें क्यों बाँधी जाती हैं?और जिस तरह से लेखक ने ये बात कही है कि दुनिया के ग़रीब देशों को समझ लेना चाहिए कि अमीर देशों से बिन बात के झगड़ों से उनकी ही हानि होगी और वह भी तब, जब यह झगड़ा धर्म के नाम पर हो. लेखक ने यहाँ पर बहुत कठोर शब्दों का प्रयोग किया है,लेखक को समझना चाहिए कि जहाँ के लोग दो जून की रोटी जुटाने के लिए दिन-रात संघर्ष करते हैं उनके अंदर इतनी ताक़त कहाँ से आएगी कि अमीर देशों को लड़ने के लिए ललकार सकें.और अंत में लेखक अमेरीका और ओबामा का बहुत अधिक पक्ष करते दिख रहे हैं.लेखक शायद यह भूल गए कि यह वही अमेरीका है जिसने अपने दो भवनों को गिराए जाने के बदले में वो दो मुस्लिम देश गिरा दिए जो शायद बहुत ग़रीब थे.रही ओबामा की बात तो शायद बुश भी इतने diplomat नहीं थे जितने कि ओबामा हैं और ये बात जग ज़ाहिर है. तो उस अमेरीका को मुसलमान अपना आदर्श कैसे मान सकते हैं?कैसे उसे अपना हमक़दम समझ सकते हैं?जिसने कभी ग़रीब मुल्कों और मुसलामानों की फ़लाह-ओ -बहबूद के बारे में सोचा ही नहीं.लेखक कहते हैं कि मुसलामानों को ओबामा के हाथ मज़बूत करने चाहिए.आख़िर क्यों?लेकिन लेखक की भी शायद कोई ग़लती नहीं है वे ऊंचे स्तर के वैज्ञानिक हैं शायद उन्होंने अपनी तरक्क़ी में अमेरीका का हाथ माना हो.तभी वे अमेरिका की इतनी वकालत कर रहे हों.