भारत में मुसलमान अल्पसंख्यक बिरादरी का दर्जा
रखता है. देश के संविधान ने दूसरे वर्गों के साथ-साथ इस देश के मुसलमानों को भी
बराबर के अधिकार दिए हैं, लेकिन
आज़ादी के 60 साल से भी ज़्यादा का वक़्त गुज़र जाने के बाद भी, आज
मुसलमानों को अपना हक़ मांगना पड़ रहा है. ये अपने आप में हमारे देश के लोकतांत्रिक
ढांचे पर एक सवालिया निशान है. इसका सीधा अर्थ यही निकलता है कि देश में अब तक
बनने वाली सरकारें मुसलमानों को उनका संवैधानिक अधिकार दिलाने में असफल रही हैं.
देश के अंदर क्रिमिनल जस्टिस का यह हाल है कि पुलिस खुलेआम मानवीय अधिकारों की
अवहेलना कर रही है और मुसलमानों को सबसे ज़्यादा परेशान कर रही है, लेकिन पुलिस के इन अत्याचारों पर रोक लगाने के लिए क़ानून कोई काम नहीं आ
रहा है. वोट पाने की खातिर राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों को रिझाने के लिए बहुत से
क़ानून बनाती हैं, लेकिन वे सरकारी अधिकारी जिन पर इस क़ानून
को लागू करने की ज़िम्मेदारी है, वे या तो इसमें कोताही करते
हैं, या फिर अल्पसंख्यकों ख़ासकर मुसलमानों के लिए जारी किए
गए फंड को लूटने में लगे रहते हैं और उनको सज़ा नहीं होती. केंद्रीय सरकार की तऱफ
से जब मुसलमानों के पिछड़ेपन का कारण जानने की कोशिश होती है और पता चलता है कि
पिछले 60 सालों से सरकार की तऱफ से लगातार अनदेखी के कारण आज इस देश का मुसलमान
जीवन के हर क्षेत्र में पिछड़ा हुआ है, उसकी शिक्षा का कोई
अच्छा प्रबंध नहीं है. हर जगह भेदभाव की वजह से उसे सरकारी या निजी संस्थाओं में
नौकरी नहीं मिलती. अगर वह अपना कोई कारोबार करने की कोशिश करता है तो सांप्रदायिक
दंगे कराकर आर्थिक तौर पर उसे पिछड़ा बना दिया जाता है. मुसलमान होने की वजह से उसे
बैंकों से क़र्ज़ नहीं मिलता, अपनी बेटियों की शादी का खर्च
सहन करने के लिए उसे अपने खेत तक बेचने पड़ते हैं.
इसलिए उसके पास अब कृषि लायक़ भूमि भी नहीं बची है, जहां
से वह अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके और अब तरक्क़ी के सारे रास्ते बंद
होने के बाद वह मेहनत मज़दूरी के कामों में लगा हुआ है, जहां
उसकी ज़िंदगी दलितों से भी बदतर है. इन कारणों को जान लेने के बाद सरकारी स्तर पर
मुसलमानों के शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए कुछ
नीतियां बनाई जाती हैं. लेकिन चूंकि सत्ता पक्ष की नीयत साफ़ नहीं है, इसलिए काम कम किया जाता है और उसका ढिंढोरा ज़्यादा पीटा जाता है, ताकि मुसलामनों को बेवक़ू़फ बनाकर उनका वोट हासिल किया जा सके. ऐसे में भला
मुसलमानों को दूसरे वर्गों के बराबर कैसे खड़ा किया जा सकता है और इक्कीसवीं
शताब्दी में भारत सुपर पॉवर बनने के सपने को कैसे पूरा कर सकता है? यही वे सवाल और चिंताएं हैं, जिन पर सोच-विचार करने
के लिए डॉ. मंज़ूर आलम की अध्यक्षता में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ ऑब्जेक्टिव स्टडीज़
यानी आईओएस पिछले 25 वर्षों से कार्यरत है. वैसे तो मुस्लिमों की समस्याओं पर
चिंतन-मनन करने के लिए सैकड़ों मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम संस्थाएं काम कर रही हैं,
लेकिन आईओएस की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह संस्था स़िर्फ
मुसलमानों की बात नहीं करती, बल्कि देश में रहने वाली तमाम
बिरादरियों में सौहार्द्र बनाए रखने की बात करती है और साथ ही उसकी यह भी कोशिश है
कि मुसलमानों को इस बात के लिए कैसे तैयार किया जाए कि उन्हें इस देश से स़िर्फ
लेना ही नहीं है, बल्कि बहुत कुछ देना भी है.
पिछले साल मार्च में आईओएस ने अपनी स्थापना के 25 वर्ष पूरे
कर लिए. इसे यादगार बनाने के लिए और सिल्वर जुबली के उपलक्ष्य में देश के अलग-अलग
शहरों में 14 सेमिनार करवाए गए, जिनमें हर जाति, धर्म, संप्रदाय और वर्ग के पढ़े-लिखे लोगों ने भाग लिया. इसी
प्रोग्राम के तहत 13 से 15 अप्रैल, 2012 तक दिल्ली के
कांस्टिट्यूशन क्लब में भी एक संगोष्ठी का इंतज़ाम किया गया, जिसमें बहुत से
बुद्धिजीवियों ने हिस्सा लिया. अपने-अपने क्षेत्रों के माहिर इन लोगों ने
अल्पसंख्यकों के अधिकार और उनकी पहचान पर अपनी बात रखी और बताया कि तेज़ी से बदलती
हुई दुनिया में उन्हें किन-किन चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है और इसके लिए
उन्हें कैसे तैयारी करनी है.
अल्पसंख्यकों के अधिकार और पहचान
वैश्विक परिदृश्य में चुनौतियां और संभावनाएं की थीम पर
दिल्ली में होने वाली संगोष्ठी के उद्घाटन समारोह के दौरान दिल्ली हाई कोर्ट के
पूर्व चीफ जस्टिस राजेंद्र सच्चर ने कहा कि किसी भी देश में अल्पसंख्यकों को जब तक
इत्मीनान न हो कि उनके साथ अच्छा बर्ताव होगा, उन्हें बराबरी की हिस्सेदारी मिलेगी और उनके साथ इंसा़फ
होगा, तब तक कोई भी देश
विकास की ओर अग्रसर नहीं हो सकता. जस्टिस सच्चर ने कहा कि हमारे सेकुलर ढांचे में
आज ज़ंग लग चुका है, जिसकी बदतरीन मिसाल मेरठ के 1987 के दंगों में पीएसी द्वारा
41 बेगुनाह लोगों को मारकर नदी में बहा देना है. उन्होंने कहा कि इससे ज़्यादा दुखद
बात क्या होगी कि 25 साल बीत जाने के बाद भी इस घटना केदोषियों को कोई सज़ा नहीं
मिली है और पीड़ित परिवार इंसा़फ की तलाश में दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं. सुप्रीम
कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस, एएम अहमदी ने कहा
कि इस देश में विभिन्न धर्मों के मानने वालों के
दरम्यान सहनशीलता की बजाय सौहार्द्र की भावना को बढ़ावा देना चाहिए. अगर ऐसा
हो गया तो देश का अल्पसंख्यक समाज खुद-ब-खुद आगे ब़ढेगा. साथ ही उन्हें इत्मीनान
और चैन भी हासिल होगा. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज और प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया के
चेयरमैन मार्कंडेय काटजू ने कहा कि आज़ाद भारत में सेकुलरिज्म को मुग़ल सम्राट अकबर
के सुलह-ए-कुल के फलस़फे से परिभाषित किया गया है और शायद यही वजह थी कि भारत को
हिंदू राष्ट्र का नहीं, बल्कि सेकुलर राष्ट्र का दर्जा मिला. केंद्रीय राज्य मंत्री
हरीश रावत ने कहा कि हिंदुस्तान को एक सुपर पॉवर बनता हुआ देखने के लिए देश के
ट्रेन रूपी हर डिब्बे को मज़बूत करना होगा और इस काम को करते समय अल्पसंख्यकों पर
फोकस करना पड़ेगा, क्योंकि वे हर मैदान में पिछड़े हुए हैं. लेकिन उन्होंने यह
सवाल भी उठाया कि मुसलमानों के विकास के लिए जब केंद्रीय बजट से 65 करो़ड रुपये
दिए जाते हैं तो उसका उपयोग न करके उसे वापस क्यों लौटा दिया जाता है?
नेशनल माइनॉरिटी कमीशन के चेयरमैन वज़ाहत हबीबुल्लाह ने
बेक़सूर मुस्लिम युवाओं पर पुलिस द्वारा किए जा रहे अत्याचार और उनकी बेधड़क
गिरफ़्तारी पर चिंता जताते हुए कहा कि यह बहुत बड़ी समस्या है और ऐसे अधिकारियों के
खिला़फ कार्यवाही होनी चाहिए. आईओएस के चेयरमैन डॉ. मंज़ूर आलम और एडवोकेट सलार एम
खान सहित वहां पर उपस्थित दूसरे बुद्धिजीवियों ने भी इस पर सहमति जताई. इस सिलसिले
में डॉ. मंज़ूर आलम ने दलितों का हवाला देते हुए कहा कि दलितों की स्थिति मुसलमानों
से बेहतर हुई है, लेकिन उनकी लाचारी में कोई कमी नहीं आई है, क्योंकि दलितों
का खून उत्तर प्रदेश में लगातार बहाया जाता रहा है, और खुद मायावती सरकार में भी दलित सुरक्षित नहीं थे. इस
प्रकार देखा जाए तो दलित खुद मुसलमानों, सिक्खों, ईसाइयों और उन आदिवासियों की तरह हैं, जिनकी सुरक्षा
में देश या तो नाकाम रहा है या फिर देश ने उन्हें सुरक्षा प्रदान करने से मना कर
दिया है. राज्यसभा के उप सभापति के. रहमान खान ने कहा कि मुस्लिम समाज आज अलग-अलग
टुकड़ों में विभाजित है और उसे खुद पता नहीं है कि उसे सरकार और संविधान से कौन से
अधिकार प्राप्त करने हैं और न ही उसके पास आगे के लिए कोई रोड मैप है. इसलिए अभी
मुसलमानों को अच्छी तरह से अपना होम वर्क करने की ज़रूरत है.
इस कांफ्रेंस में विभिन्न धर्मों के धर्म गुरुओं ने भी भाग
लिया, जिनमें ईसाई
धर्मगुरु फादर डोमनिक इमानुएल, सिक्ख धर्मगुरु डॉ. महेंदर सिंह, हिंदू धर्मगुरु
स्वामी ओमकरानंद सरस्वती और बुद्ध धर्मगुरु जेशे दुर्जी दमदल के नाम प्रमुख हैं.
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