Friday, May 04, 2012

मुस्लिम वैवाहिक कानून में सुधार की पहल


तथाकथित फतवों के नाम पर मुस्लिम महिलाओं पर जो ज्यादतियां होती हैं उनसे निज़ात दिलाने के लिए और उन्हें इस्लाम और कुरान के नियमों के अनुसार समाज में बराबरी का स्थान दिलाने के लिए वैवाहिक परिवार कानून का प्रारूप तैयार किया गया है। कानून का प्रारूप अनेक न्यायविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने मिलकर तैयार किया है। इस प्रारूप पर राष्ट्रीय विमर्श जारी है। विमर्श की इसी श्रृंखला में एक आयोजन भोपाल में किया गया था। प्रारूप में निकाह, मैहर के साथ तलाक पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। तलाक के नाम पर मुस्लिम महिलाओं पर भारी जुल्म किया जाता है। अनेक मामलों में मोबाईल पर एस.एम.एस. द्वारा किये गये तलाक को जायज ठहराया जाता है।

प्रारूप में बताया गया है कि तलाक का वह तरीका सर्वोत्तम तरीका है जो तीन महीने के पीरियड में दिया जाता है। इस बीच यदि पति पत्नी के संबंध सुधर जाते हैं और समझौता हो जाता है तो दोनों फिर साधारण जीवन बिता सकते हैं। प्रारूप में तलाक की अनेक प्रक्रियाओं का उल्लेख किया गया है। ये प्रक्रियाये हैं तलाक-हसन, तलाके-तफवीह, तलाके मुबारता। प्रारूप में बताया गया है कि तलाक देना सिर्फ पुरूष का अधिकार नहीं है जैसा आमतौर पर समझा जाता है। पत्नी भी तलाक मांग सकती है। पत्नी द्वारा तलाक मांगने को “खुल“ कहा जाता है।

प्रारूप के अनुसार निकाह मुस्लिम विवाह की वह प्रक्रिया है जिसका लिखित सुबूत होना चाहिए। लिखित सुबूत में विवाह संबंधी सभी शर्तों को शामिल किया जाएगा। विवाह के इस समझौते की तीन प्रतियां तैयार की जाएंगी। जिनमें से एक दुल्हन को दी जाएगी, एक दूल्हे को दी जाएगी और एक उस मस्जिद में रखी जाएगी जिसमें वैवाहिक कार्यक्रम संपन्न होगा। विवाह का लिखित सुबूत होने से भविष्य में किसी प्रकार की अनिश्चितता पैदा नहीं होगी। यह आम अनुभव है कि लिखित सुबूत के अभाव से सबसे ज्यादा मुसीबत का सामना महिला को ही करना पड़ता है।

प्रारूप में निकाह की विस्तृत व्याख्या की गई है। निकाह एक पुरूष और महिला के बीच हुआ एक ऐसा समझौता है जिसमें महिला से उतने ही कर्तव्यों की अपेक्षा होती है जितने उसे अधिकार दिये जाते हैं। एक बात जिस पर बार-बार जोर दिया गया है वह यह है कि पति अकेला परिवार का मुखिया नहीं है वरन् दोनों पति-पत्नी मिलजुलकर पारिवारिक उत्तरदायित्व का वहन करते हैं। परिवार संबंधी निर्णय लेने में भी दोनों की बराबर की भागीदारी होती है। पति-पत्नी दोनों का निवास कहां हो इसका निर्णय करने का बराबर का अधिकार दोनों प्राप्त है। विवाह के बाद उपलब्ध संपत्ति पर दोनों का बराबर अधिकार है। घर की जिम्मेदारी निभाना भी दोनों का कर्तव्य है। दोनों को परिवार का प्रतिनिधित्व करने का बराबर अधिकार प्राप्त है।

प्रारूप में इस बात पर जोर दिया गया है कि विवाह का पंजीकरण अनिवार्य रूप से होना चाहिए। राज्य सरकार को काजी या अन्य अधिकारी की नियुक्ति करना चाहिए जो विवाह का पंजीकरण करेगा। राज्य सरकार को ऐसे व्यक्ति को पंजीकरण के लिए नियुक्त करना चाहिए जो भारत का नागरिक हो, जिसमें आवश्यक योग्यता हो और जिसका धर्म इस्लाम हो। राज्य सरकार निकाह का पंजीकरण करने के लिए लाइसेंस जारी करेगी और ऐसा अधिकारी निकाह रजिस्ट्रार कहलाएगा। निकाह रजिस्ट्रार  के पास निकाहनामा का फार्म होगा, निकाह दर्ज करने के लिए उसके पास रजिस्टर होगा। राज्य सरकार के पास निकाहों का रिकार्ड रहेगा। निकाहनामा में दंपत्ति से संबंधित सभी जानकारी दर्ज रहेगी। इन जानकारियों में मियां-बीबी का स्टेटस, तलाक, विधवा- विधुर या दूसरी शादी जो भी स्थिति हो दर्ज रहेगी। निकाह में वधू की सहमति आवश्यक है। यदि सहमति प्राप्त नहीं की गई हो तो निकाह वैध नहीं समझा जाएगा।

प्रारूप में यह व्यवस्था की गई कि काजी स्वयं स्पष्ट रूप से सुने कि दुल्हन ने विवाह के लिए सहमति दी। सहमति किसी और रिश्तेदार माँ, दादी या बहन के माध्यम से प्राप्त नहीं की जानी चाहिए। सहमति दो गवाहों की उपस्थिति में प्राप्त की जानी चाहिए। सहमति देते समय दुल्हन को दूल्हे का नाम भी लेना चाहिए और मैहर की रकम का भी स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए। दुल्हन स्वतः इस बात का फैसला करेगी कि वह मैहर किस रूप में लेगी - नगद, अचल संपत्ति, सोना या चाँदीं। विवाह की आयु वह होगी जो उस देश के कानून में निर्धारित है।

गुजारा भत्ता एक ऐसा मुद्दा है जिस पर भारी मतभेद हैं। प्रारूप में इस बात का प्रावधान किया गया है कि यदि पति सही ढंग से पत्नी का पालन-पोषण नहीं करता है तो उसकी पत्नी और एक से ज्यादा पत्नी हो तो उन्हें अधिकार होगा कानून का सहारा लेने के साथ ही आरबीटेशन काउंसिल से भी हस्तक्षेप की मांग कर सकती है। उसके बाद काउंसिल गुजारा भत्ते की रकम तय करेगी जिसे पति को देना पड़ेगा। यदि पति-पत्नी दोनों में से कोई भी चाहे तो गुजारा भत्ता की रकम में बढौत्री की मांग भी कर सकते हैं। यह मांग जिलाधीश से की जा सकती है जिसका निर्णय अंतिम होगा। यदि तयशुदा रकम का भुगतान नहीं होता है तो उसे पति की संपत्ति से वसूला जा सकता है।

इस्लाम में बहुविवाह जायज है परंतु कुरान में उसके लिए अत्यधिक सख्त शर्तों का प्रावधान है। उन समस्त शर्तों का उल्लेख प्रारूप में किया गया है। जिनके बिना एक से ज्यादा विवाह संभव नहीं है।

प्रारूप में मध्यस्तता के लिए एक काउंसिल के गठन का प्रावधान किया गया है। विवाह संबंधी सभी विवाद काउंसिल द्वारा सुलझाये जायेंगे। यह काउंसिल ही तय करेगी कि एक से ज्यादा विवाह आवश्यक है कि नहीं।

इस वैवाहिक कानून से मुस्लिम महिलाओं को काफी राहत मिलेगी। वहीं इस बात की पूरी संभावना है कि मुस्लिम पुरूषों का एक बड़ा हिस्सा इसे स्वीकार नहीं करेगा। इस बात के संकेत भोपाल में आयोजित कार्यक्रम के दौरान मिले। कार्यक्रम के दौरान कुछ मुस्लिम युवक हाल में घुस आये और प्रारूप की आवश्यकता पर ही प्रश्न उठाया। उन्होंने इतना हो-हल्ला किया कि पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा।

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