आरएसएस और बीजेपी ने अपने फायदे के लिए देशभर
में यह भ्रम फैला रखा है कि सरदार पटेल उन्हीं की तरह हिन्दूवादी थे. आरएसएस ने यह
भ्रम तबसे फैलाना शुरू किया जबसे बाबरी मस्जिद विध्वंस को आरएसएस ने अपने एजेण्डे
पर ले लिया था. लेकिन क्या सरदार वल्लभ भाई पटेल उसी तरह के हिन्दूवादी थे जैसे
आरएसएस के लोग हैं. नहीं. यह निरा झूठ है. सरदार पटेल बहुत धर्मनिर्पेक्ष व्यक्ति
थे. मधु लिमये ने "सरदार पटेल: सुव्यवस्थित राज्य के प्रणेता" में बताया
है कि सरदार पटेल कैसे धर्मनिर्पेक्ष और समाजवादी विचारधारा के पैरोकार थे. मधु
लिमय के जन्मदिन 1 मई पर शेष नारायण सिंह की खोजबीन-
मधु लिमये होते तो ९० साल के हो गए होते. मुझे
मधु जी के करीब आने का मौक़ा १९७७ में मिला था जब वे लोकसभा के लिए चुनकर दिल्ली
आये थे. लेकिन उसके बाद दुआ सलाम तो होती रही लेकिन अपनी रोजी रोटी की लड़ाई में
मैं बहुत व्यस्त हो गया. जब आरएसएस ने बाबरी मस्जिद के मामले को गरमाया तो पता
नहीं कब मधु जी से मिलना जुलना लगभग रोज़ ही का सिलसिला बन गया. इन दिनों वे
सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुके थे और लगभग पूरा समय लिखने में लगा रहे थे.
बाबरी मस्जिद के बारे में आरएसएस और बीजेपी
वाले उन दिनों सरदार पटेल के हवाले से अपनी बात कहते पाए जाते थे. हम लोग भी दबे
रहते थे क्योंकि सरदार पटेल को कांग्रेसियों का एक वर्ग भी हिन्दूवादी बताने की
कोशिश करता रहता था. उन्हीं दिनों मधु लिमये ने मुझे बताया था कि सरदार पटेल किसी
भी तरह से हिन्दू साम्प्रदायिक नहीं थे. दिसंबर १९४९ में फैजाबाद के तत्कालीन
कलेक्टर केके नायर की साज़िश के बाद बाबरी मस्जिद में भगवान् राम की मूर्तियाँ रख
दी गयी थीं. केंद्र सरकार बहुत चिंतित थी. ९ जनवरी १९५० के दिन देश के गृहमंत्री ने
रूप में सरदार पटेल ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पन्त को लिखा
था. पत्र में साफ़ लिखा है कि "मैं समझता हूँ कि इस मामले दोनों सम्प्रदायों
के बीच आपसी समझदारी से हल किया जाना चाहिए. इस तरह के मामलों में शक्ति के प्रयोग
का कोई सवाल नहीं पैदा होता. मुझे यकीन है कि इस मामले को इतना गंभीर मामला नहीं
बनने देना चाहिए और वर्तमान अनुचित विवादों को शान्ति पूर्ण तरीकों से सुलझाया
जाना चाहिए."
मधु जी ने बताया कि सरदार पटेल इतने व्यावहारिक
थे कि उन्होने मामले के भावनात्मक आयामों को समझा और इसमें मुसलमानों की सहमति
प्राप्त करने की आवश्यकता पर जोर दिया. उसी दौर में मधु लिमये ने बताया था कि
बीजेपी किसी भी हालत में सरदार पटेल को जवाहर लाल नेहरू का विरोधी नहीं साबित कर
सकती क्योंकि महात्मा जी से सरदार की जो अंतिम बात हुई थी उसमें उन्होंने साफ़ कह
दिया था कि जवाहर लाल से मिल जुल कर काम करना है. सरदार पटेल ने महात्मा जी की
अंतिम इच्छा को हमेशा ही सम्मान दिया.
मधु लिमये हर बार कहा करते थे कि भारत की
आज़ादी की लड़ाई जिन मूल्यों पर लड़ी गयी थी, उनमें धर्म निरपेक्षता एक अहम मूल्य था. धर्मनिरपेक्षता भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है. धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक
प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। मौजूदा राजनेताओं को इस बात पर
विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता में बने रहने की रणनीति के तौर पर
नहीं राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में
संचालित करना पड़ेगा। क्योंकि आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909
में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था..
धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए बहुत
ज़रूरी है. इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह
स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास
धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता. जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल
है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था।
महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को
हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में
उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान
सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है।
मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो
उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके
हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना
पड़ेगा."
महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की
बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत
की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें
हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा
को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना
अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव
बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने
देना चाहती थी . महात्मा गाँधी के दो बहुत बड़े अनुयायी जवाहर लाल नेहरू और कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने धर्मनिरपेक्षता को इस देश के मिजाज़ से बिलकुल
मिलाकर राष्ट्र की बुनियाद रखी.
मधु जी बताया करते थे कि कांग्रेसियों के ही एक
वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें
कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को
घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।"
(हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के
रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले
मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं। सरदार पटेल अमृतसर गए और
वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में
मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के
लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और
कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल
करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से
मिला था। मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम
शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए. एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और
देखिए क्या होता है। मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी
लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।"
सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा
नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल
नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने
लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान
रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को
सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता.
बाद में इन चर्चाओं के दौरान हुई बहुत सारी
बातों को मधु लिमये ने अपनी किताब ,"सरदार पटेल: सुव्यवस्थित राज्य के प्रणेता" में
विस्तार से लिखी भी हैं. १९९४ में जब मैंने इस किताब की समीक्षा लिखी तो मधु जी
बहुत खुश हुए थे और उन्होंने संसद के पुस्तकालय से मेरे लेख की फोटोकापी लाकर मुझे
दी और कहा कि सरदार पटेल के बारे के जो लेख तुमने लिखा है वह बहुत अच्छा है.
No comments:
Post a Comment