आगरा से दिल्ली को जोड़नेवाली सड़क यमुना एक्सप्रेसवे को आम
उपयोग के लिए खोल दिया गया है। छह लेन की इस 165 किलोमीटर सड़क के कारण आगरा से दिल्ली
का सफर मात्र तीन घंटे में पूरा किया जा सकता है। लेकिन यह एक सड़क मात्र नहीं है।
इसके साथ पांच-पांच सौ हेक्टेयर की पांच टाउनशिप भी विकसित की जा रही है। इसे दिल्ली-एनसीआर
के विस्तार के एक नये अध्याय के बतौर देखा जा रहा है। इसके साथ ही पिछले साल इस परियोजना
क्षेत्र में विस्थापित भट्टा पारसौल के ग्रामीणों के पक्ष में कांग्रेस के युवराज राहुल
गांधी के उत्सवी सत्याग्रह का भी पटाक्षेप हो जाएगा, जबकि गांवों के बलात शहरीकरण से जुड़े सवाल लंबे समय तक विकास
की मौजूदा अवधारणा को मुंह चिढ़ाएंगे।
यह प्रसंग महज ग्रेटर नोएडा से आगरा तक सीमित नहीं बल्कि झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल,
ओड़िशा जैसे राज्यों में हाल के दिनों में भूमि-अधिग्रहण को लेकर सरकार,
रैयतों और कारपोरेट घरानों के बीच तीखे संघर्षों तथा विभिन्न हित-समूहों
की भूमिका से भी जुड़ा है। झारखंड की राजधानी रांची के समीप पिठोरिया रोड पर नगड़ी
गांव की लगभग 200 एकड़ जमीन तीन प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों को देने को लेकर जारी
तीखा विवाद भी एक देशव्यापी चिंता का एक अहम हिस्सा है।
यमुना एक्सप्रेसवे और नोएडा एक्सटेंशन को लेकर जारी विवाद हो
या फिर सिंगूर-नंदीग्राम-झाड़ग्राम या फिर नगड़ी, इन मामलों ने अंग्रेजों द्वारा वर्ष 1894 में बनाये गये भूमि-अधिग्रहण
कानून की असलियत सामने ला दी है, जिसमें राज्य सरकार को किसी
भी रैयत को उसकी भूमि से किसी भी क्षण बेदखल कर देने की निर्बाध ताकत प्राप्त है। अंग्रेजों
के जमाने में बने औपनिवेशिक कानूनों को अब तक बनाये रखने का नतीजा खुद सरकार को ही
नहीं, पूरे समाज और खासकर रैयतों को भुगतना पड़ रहा है।
भूमि-अधिग्रहण कानून की धारा चार के अनुसार अगर सरकार को किसी
सार्वजनिक हित या किसी कंपनी के लिए जरूरत हो तो किसी भी जमीन का अधिग्रहण करने की
सूचना जारी कर सकती है। ऐसी सूचना जारी होने के साथ ही तत्काल सरकारी अधिकारियों को
उस जमीन में घुसकर कुछ भी करने का अधिकार मिल जाएगा। वे चाहें तो जमीन का सर्वेक्षण
करें, या कोई खुदाई करें, यहां तक कि चहारदीवारी खड़ी कर लें या फिर खड़ी फसलों को काट डालें। अगर उस
जमीन पर कोई घर हो तो सरकार महज एक सप्ताह का नोटिस देकर उस घर के अंदर भी घुस सकती
है।
कानून की धारा पांच के मुताबिक अगर रैयत को कोई आपत्ति हो तो
जिला मजिस्ट्रेट उसकी आपत्तियां सुनकर रिपोर्ट देगा। रैयत के पुनर्वास और मुआवजे के
संबंध में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं होने के कारण रैयतों को आसानी से बेदखल करना संभव
हो जाता है। झारखंड में नगड़ी के उदाहरण से समझा जा सकता है कि 1957 में महज सात रुपये
डिसमिल पर जमीन छोड़ने को रैयत तैयार नहीं हुए, तो यह राशि कोषागार में जमा करके जमीन को अधिगृहीत मान लिया गया।
कानून की धारा 17 के दुरुपयोग ने इस समस्या को कुछ ज्यादा ही
जटिल बना दिया है। इसके अनुसार किसी आपातकालीन स्थिति में रैयतों की आपत्ति मांगे बगैर
ही किसी जमीन का अधिग्रहण कर लिया जाएगा। यह धारा किसी बाढ़ या आफत की स्थिति के लिए
बनायी गयी थी। लेकिन उत्तरप्रदेश के उदाहरणों में देखा जा सकता है कि आवासीय कालोनियां
बनाने और कारखाने लगाने के लिए इस धारा का कितना बेजा इस्तेमाल हुआ।
इस परिघटना को सभ्यताओं के टकराव के बतौर भी देखा जा सकता है, जहां शहरी परिवेश के लोगों की नजर में ग्रामीण
परिवेश को अविकसित माना जाता है और जहां प्राकृतिक जंगलों के बजाय कंक्रीट के जंगल
को विकास का पर्याय मान लिया जाता है। ग्रेटर नोएडा हो या गुड़गांव, हर जगह शहरीकरण के नाम पर हुए तथाकथित विकास में एक चीज सिरे से गायब है और
वह है स्थानीय लोगों की सहभागिता। दिल्ली एनसीआर के फैलाव की महत्वाकांक्षी योजनाओं
का महत्व समझा जा सकता है, लेकिन इसमें स्थानीय लोगों को पूरी
तरह दरकिनार करके किसी जेपी ग्रुप जैसे कारपोरेट को विकास का पूरा जिम्मा देने से एक
अपंग समाज का ही निर्माण होगा। वही हो भी रहा है। दिल्ली से आप बहादुरगढ़ की ओर जाएं
या फिर गाजियाबाद की ओर, हर जगह आपको ग्रामीण परिवेश के सामने
मौजूद अस्तित्व का संकट साफ दिख जाएगा। गगनचुंबी भवनों के बीच कहीं दबी-सहमी ग्रामीण
बस्तियों और खेत-खलिहानों से जुड़े लोग सहसा विकास पर पैबंद जैसे दिखने लगेंगे। ऐसे
लोगों का अपनी ही जमीन पर अचानक मिसफिट हो जाना इस तथाकथित विकास की सबसे बड़ी त्रासदी
है।
दिल्ली की महायोजना ने समीपवर्ती राज्यों से सटे इलाकों को कृषि
क्षेत्र, आवासीय क्षेत्र
हरित क्षेत्र सहित अन्य श्रेणियों में विभक्त कर रखा है। हुडा, ग्रेटर नोएडा, गाजियाबाद इत्यादि प्राधिकारों ने भी अपने
मास्टर प्लान बनाकर शहरीकरण की प्रक्रिया चला रखी है। ऐसे मास्टर प्लानों में इतनी
कड़ाई के नियम रखे जाते हैं, जो किसी भी तरह के अनियंत्रित व
अनियोजित निर्माण की इजाजत नहीं देते। लेकिन विडंबना है कि ऐसे ही प्रावधानों के कारण
बेतरतीब विकास की गुंजाइश ज्यादा निकलती है। कारण यह कि अपने मास्टर प्लान के मुताबिक
आवासीय घर या भूखंड आवंटित करने की प्रक्रिया इतनी जटिल, लंबी
व महंगी है कि गरीब लोगों की बात तो दूर, मध्यवर्गीय लोगों के
लिए भी अपनी छत एक सपना ही रह जाती है।
इसके कारण ऐसे लोगों को कानून के छिद्रों का सहारा लेकर या फिर
गैरकानूनी तरीके से बेतरतीब निर्माण के लिए विवश होना पड़ता है। कानून के छिद्रों का
सहारा लेने का उदाहरण दिल्ली में लाल डोरा की जमीनों में या फिर नोएडा में आबादी प्लाटों
में होने वाले चालाकीपूर्ण उपयोग व निर्माण के बतौर देखा जा सकता है। यही बात कृषि
जमीनों में तथाकथित फार्म हाउस के नाम पर चल रहे धंधे या फिर कारखानों के नाम पर इंडस्ट्रियल
क्षेत्रों में आवंटित जमीनों के मनमाने उपयोग में निहित है।
दिलचस्प यह कि दिल्ली-एनसीआर व उसके विस्तारित क्षेत्रों में
जमीन की बढ़ती कीमतों का फायदा भूस्वामियों के बजाय जमीन दलालों और बिल्डरों, कारपोरेट घरानों को ज्यादा मिल रहा है। जबकि
गांव से अचानक शहर में बदलते इलाको में जमीन बेचकर या जमीन से विस्थापित होकर कम या
ज्यादा रकम पाने वाले लोगों के पास जीवन-यापन या रोजगार का कोई दीर्घजीवी व मुकम्मल
रास्ता नहीं होने के कारण उनकी वर्तमान और भावी पीढ़ियों के लिए अस्तित्व का संकट तत्काल
सामने नजर आता है। जमीन बिकने या मुआवजे से मिले रुपयों से चमचमाती स्कार्पियो में
दौड़ने की होड़ में उन्हें पता ही नहीं चल पाता कि उनके नीचे की जमीन किस तेजी से खिसक
रही है। किसी सरकार ने किसी महायोजना में इस बात को ध्यान में रखने की जरूरत नहीं समझी
कि गांव से नगर में विकास की प्रक्रिया में आदमी की सदियों से चली आ रही जीवन-पद्धतियों
और जीविकोपार्जन के तरीकों का भी ध्यान रखना जरूरी है।
यह प्रक्रिया न तो गुड़गांव को गांव रहने देती है और न ही नगड़ी
को सचमुच किसी नगरी में बदलने देती है। गांव-नगर का यह द्वंद्व कहीं सभ्यताओं के संघर्ष
में तो कहीं वर्गीय हितों के टकराव में नजर आता है। ऐसे में कांग्रेस के युवराज राहुल
गांधी जब भट्टा पारसौल के लिए उत्सवी सत्याग्रह करते हैं, तो यह प्रहसन के सिवाय कुछ नहीं दिखता। ऐसे
मामलों का राजनीतिकरण करने या किसी दल या सरकार को निशाना बनाने से कुछ नहीं होने वाला।
मूल समस्या अंग्रेजों के बनाये औपनिवेशिक कानूनों और विकास की शहर-केंद्रित अवधारणा
में निहित है। इन पर दूरगामी फैसलों से ही कोई हल निकलेगा, बशर्ते
उसके केंद्र में आदमी की चिंता पहले हो।
(विष्णु
राजगढ़िया। वरिष्ठ पत्रकार। सूचना के अधिकार को लेकर पिछले कुछ वर्षों से सक्रिय। रांची
में रहते हैं। उनसे vranchi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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