हम एक अजीब-से दौर से गुजर रहे हैं। एक ओर
विज्ञान, तकनीक और तार्किक सोच ने हमें
मानवता की बेहतरी के लिए अनेक भौतिक और बौद्धिक उपाय दिए हैं वहीं हमारी दुनिया ने
इन दिनों भड़काऊ बातें कहने का फैशन सा बन गया है। साहित्य और विशेषकर फिल्मों के
जरिए एक धर्म विशेष – इस्लाम -का दानवीयकरण करने के प्रयास हो रहे हैं। मुस्लिम
समुदाय का एक हिस्सा स्वयं को आतंकित और असुरक्षित महसूस कर रहा है और अपने धर्म
के अपमान के विरोध में सड़कों पर उतर आया है। अभिव्यक्ति की आजादी पर बहस भी जारी
है परन्तु यह समझना मुश्किल है कि अभिव्यक्ति की आजादी का उपयोग हमेशा एक धर्म
विशेष को अपमानित करने और उसका दानवीयकरण करने के लिए ही क्यों किया जाता है।
इन दिनों (सितम्बर 2012) दुनिया के विभिन्न
हिस्सों में अमेरिकी दूतावासों के सामने विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। इन विरोध
प्रदर्शनों में हिंसा भी हुई है जिसमें राजदूत क्रिस स्टिवेंस सहित चार अमेरिकी
राजनयिक बेन्गाजी में मारे गये हैं। कई देशो ने गूगल, जो कि यूट्यूब का मालिक है,
से कहा है कि यूट्यूब से यह उत्तेजक और अपमानजनक विडियो क्लिप हटा
दी जाए। अमेरीका अब तक “अभिव्यक्ति की आजादी” के नारे पर अटका हुआ है और बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी देश की सड़कों पर
अपना विरोध व्यक्त कर रहे हैं।
यह विडियो क्लिप लगभग 14 मिनट लम्बी है और एक
फीचर फिल्म का हिस्सा है, जिसके निर्माता अमेरिका में रहने वाले एक ईसाई नकोला बेसीले हैं। फिल्म
में इस्लाम का जम कर अपमान किया गया है। दाढ़ी वाले आधुनिक मुसलमानों की भीड़ को
ईसाईयों पर हमला करते दिखाया गया है। फिल्म अपने दर्शकों को अतीत में भी ले जाती
है जहां पैगंबर मोहम्मद के जीवनवृत्त को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है। फिल्म
मे बताया गया है कि पैगंबर साहब का व्यक्तित्व व सोच, अत्यंत
नकारात्मक और आक्रामक थी। इस फिल्म में देखने लायक कुछ भी नही है और इसे बनाने
वालों के इरादे भी संदिग्ध हैं। मुसलमानों के एक तबके ने इस फिल्म पर तीव्र
प्रतिक्रिया व्यक्त की है। यहां यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि इस मामले मे सभी
मुसलमानों की प्रतिक्रिया एक सी नही रही है। कुछ धर्मगुरूओं ने मुसलमानो से धैर्य
बनाये रखने के लिए कहा है। इन लोगों का कहना है कि इस्लाम शांति का धर्म है और
इसलिए किसी भी प्रकार के हिंसक विरोध प्रदर्शन नही होने चाहिए। कुत्सित इरादों से
बनाई गई इस घटिया फिल्म का सबसे अच्छा जवाब दिया है मुसलमानो के एक समूह ने,
जो कि अमन के संदेशवाहक, पैगंबर मोहम्मद के
जीवन पर लिखी गई किताबें बांट रहे हैं।
पिछले कुछ सालों से पश्चिमी देशों और यहां भारत
में भी, इस्लाम का दानवीकरण करने की
परंपरा सी बन गई है। हम सब को वह डैनिश कार्टून याद है जिसमें पैगम्बर मोहम्मद को
अपनी पगड़ी में बम छुपाए एक आतंकवादी के रूप में दिखाया गया था। फ्लोरिडा के एक
पास्टर ने यह घोषणा की थी कि चूंकि कुरान हिंसा सिखाती है इसलिए वे उसे सार्वजनिक
रूप से जलाएंगे। अफगानिस्तान में कुछ अमेरिकी सैनिको ने भी यह कह कर कुरान की
प्रतियां जलाईं थीं कि उनमें आतंकवादियों के कुछ गुप्त संदेश लिखे हुए हैं।
इस्लाम और मुसलमानों के दानवीकरण में हम एक
प्रकार की योजना और एजेंडा देख सकते हैं। ये कार्टून और फिल्में, दरअसल, उस
राजनैतिक प्रक्रिया की उपज हैं, जिसका उद्देश्य पश्चिम एशिया
में तेल के कुओं पर कब्जा करना है। इरान में अमेरिका के पिट्ठू रज़ा पहलवी को हटा
कर अयातुल्लाह खुमैनी के सत्ता में आने के बाद से ही, अमेरिका
“इस्लाम-नया खतरा” का नारा बुलंद करता आ रहा है।
अमेरिका ने ही पाकिस्तान में मदरसे स्थापित किए ताकि मुस्लिम युवकों को
अलकायदा और तालिबान के झंडे तले अफगानिस्तान पर काबिज़ सोवियत सेना से लड़ने के लिए
प्रोत्साहित किया जा सके। इससे हालात और बिगड़े। इन मदरसों में काफिर और जिहाद जैसे
शब्दो का अर्थ तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाता था ताकि मुस्लिम युवको को धर्म के
नाम पर हिंसा करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकी
हमले के बाद, अमेरिकी मीडिया ने बड़ी चालाकी से “इस्लामिक
आतंकवाद” शब्द गढ़ लिया। इस शब्द का अन्य देशों का मीडिया भी इस्तेमाल करने लगा और
धीरे धीरे यह सामूहिक सामाजिक सोच का हिस्सा बन गया। यह पूरा घटनाक्रम एक
साम्राज्यवादी ताकत द्वारा अपने राजनैतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए धर्म के
दुरूपयोग का उदाहरण है। दरअसल, इस्लाम का दानवीकरण, अमेरिकी नीति का भाग है। इसके पीछे अमेरिका अपने असली उद्देश्य – अर्थात
तेल संसाधनो पर कब्जा – को छिपाना चाहता है। नोयम चोमोस्की ने एक शब्द गढ़ा था
“सहमति का उत्पादन”। अमेरिका ने इस्लामिक आतंकवाद शब्द को इसलिए गढ़ा ताकि उसके,
अफगानिस्तान और ईराक पर सैनिक आक्रमण करने के लिए “सहमति का
उत्पादन” किया जा सके।
अमेरिका की इस नीति से दो अलग-अलग प्रक्रियाएं
शुरू हुई हैं। एक ओर इस्लाम के खिलाफ घृणा फैलाने के अभियान ने हालिया फिल्म, डेनिश कार्टून और पास्टर द्वारा
कुरान को जलाने जैसी घटनाओं को जन्म दिया है। अमेरिकी प्रचार को विश्वसनीयता
प्रदान करने के लिए अमेरिका ने “सभ्यताओं का टकराव” के सिद्धांत का अविष्कार किया
है। इस सिद्धांत के अनुसार, आधुनिक विश्व इतिहास, पिछड़ी हुई इस्लामिक सभ्यताओं के विकसित पश्चिमी सभ्यताओं पर आक्रमण का
इतिहास है। इसी तोड़ी-मरोड़ी हुई सोच और विचारधारा का इस्तेमाल पश्चिम एशिया मे
अमेरिकी एजेंडे को लागू करने के लिए किया जाता है। इस सबसे पूरे विश्व के
मुसलमानों की सोच में अंतर आया है। कुछ मुसलमान यह मानने लगे हैं कि अफगानिस्तान व
इराक पर अमेरीकी हमले के बाद, वे इस दुनिया में सुरक्षित
नहीं रह गये हैं। भारत में संघ परिवार की राजनीति ने इस समस्या को नया आयाम दिया।
संघ ने राममंदिर का मुद्दा उठाकर मुसलमानो को कटघरे में खड़ा कर दिया। भारतीय
मुसलमानों के एक बड़े हिस्से को यह लगने लगा कि उसे आतंकित किया जा रहा है और सब ओर
से घेर लिया गया है। इस परिस्थिति में पहचान से जुडे़ मुद्दो को लेकर मुसलमानों को
एक करना आसान हो गया। जब भी कोई समुदाय स्वयं को हर तरफ से घिरा हुआ पाता है तब
उसे उत्तेजित करना और किसी भी आक्रामक धार्मिक अभियान का हिस्सा बनाना, आसान हो जाता है।
यह एक तरह का दुष्चक्र है जिसमें इस्लाम का डर
एक ओर है और घुटन महसूस कर रहा आतंकित
मुस्लिम समाज दूसरी ओर। इन परिस्थितियों में वे मुस्लिम धर्मगुरू ही समुदाय की
प्रेरणा के स्त्रोत हो सकते हैं जो शांति
की बात कर रहे हैं। जो मुसलमान पैगम्बर मोहम्मद के जीवन पर आधारित पुस्तकें बांट
रहे हैं, वे बधाई के हकदार है समुदाय की
प्रतिक्रिया इसी प्रकार की होना चाहिए। अमेरिका के साम्राज्यवादी इरादों और उसके
भारी भरकम प्रचार तंत्र से कैसे निपटा जाए, जिनके जरिए
अमेरिका दुनिया के कई इलाकों में गड़बडियां फैला रहा है? क्या
इस पर किसी तरह से नियंत्रण पाया जा सकता है?
जिन दिनो कोफी अन्नान संयुक्त राष्ट्रसंघ के
महासचिव थे, एक
उच्चस्तरीय समिति ने एक रपट तैयार की थी जिसका शीर्षक था “सभ्यताओं का गठजोड़”।
परन्तु इस्लाम को बदनाम करने के अभियान की तुलना में इस रपट को समुचित प्रचार न
मिल सका। अब समय आ गया है कि मानवता, उन मानवीय मूल्यों को
अपनाए जो हमारी सभ्यता में सदियों के विचार-विनिमय के आधार पर उभरे हैं – उन
मूल्यों को, जिनके कारण संयुक्त राष्ट्रसंघ ने सभी के लिए
मूल मानवाधिकारों के घोषणापत्र जारी किये हैं और जिनके कारण “सभ्यताओं के गठजोड़”
जैसी रपटें बनती हैं।
मुसलमानों का एक तबका ऐसा भी है जो अनुचित ढंग
से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है। दरअसल जो लोग या ताकतें इस्लाम के दानवीकरण
और इस तरह की फिल्मों के निर्माण के पीछे हैं, वही कुछ मुसलमानों की हिंसक कार्यवाहियों के लिए भी जिम्मेदार
हैं। क्या हम संयुक्त राष्ट्रसंघ को एक ऐसे वैश्विक मंच के रूप में पुनर्जीवित नही
कर सकते जो यह सुनिश्चित करे कि विभिन्न राष्ट्रों और उनके मीडिया का आचार-
व्यवहार ऐसा हो जिससे प्रजातंत्र और मानवीय गरिमा में अभिवृद्धि हो? क्या पूरा विश्व दुनिया की एकमात्र विश्वशक्ति के आक्रामक तेवरों से
निपटने के लिए आगे नहीं आ सकता? अगर ऐसा हुआ तो इस तरह की
फिल्मों पर हिंसक प्रतिक्रिया नहीं होगी। बल्कि शायद दूसरों के धर्म को अपमानित
करने के प्रयासों ,में भी कमी आयेगी। अगर कुछ लोग इस तरह की
फिल्म बनांएगे तो कुछ वैसी फिल्मे भी बनेंगी जो पैगंबर मोहम्मद के दुनिया को शांति
के संदेश पर आधारित होंगी।
अंत में, हमें अभिव्यक्ति की आजादी को तो कायम रखना होगा। परन्तु इसकी
कुछ सीमाएं भी तय करनी होंगी। हमे विरोध व्यक्त करने के ऐसे तरीकों का विकास करना
होगा जिनसे उन्माद के स्थान पर मर्यादित व तार्किक ढंग से विरोध दर्ज कराया जा
सके।
(लेखक आई.आई.टी.
मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् २००७ के नेशनल कम्यूनल
हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
No comments:
Post a Comment