बटला हाउस
‘इनकाउंटर’ के चार साल पूरे हो गए. 19 सितम्बर 2008 की सुबह, दिल्ली
के जामिया नगर इलाके में बटला हाउस स्थित
एल -18 फ्लैट में एक कथित पुलिस ‘इनकाउंटर’ के दौरान दो मुस्लिम नौजवान, जिनका नाम आतिफ अमीन और मोहम्मद साजिद, मारे गए थे.
पुलिस के मुताबिक इन दोनों का सम्बन्ध आतंकी संगठन “इंडियन मुजाहिदीन” से था और
इन्ही लोगों ने 13 सितम्बर 2008 को दिल्ली में हुए सीरियल धमाको की घटना भी अंजाम
दी थी. इस विवादित इनकाउंटर में पुलिस द्वारा कथित दो आतंकी के अलावा दिल्ली पुलिस
स्पेशल सेल का एक इंस्पेक्टर, जो ‘इनकाउंटर’ स्पेस्लिस्ट’ के
नाम से ज़्यादा मशहूर था, मोहन चंद शर्मा और एक हवालदार भी
घायल हुए थे. बाद में शर्मा की नज़दीकी अस्पताल होली फैमिली में मौत हो गयी थी,
जबकि हवालदार बच गया.पुलिस के दावे के अनुसार इस मौके पर दो आतंकी
घटना स्थल से भागने में कामयाब हो गए,
जबकि उनका एक साथी मुहम्मद सैफ को वहीं से गिरफ्तार किया गया.
मारे जाने वाले
दोनों नौजवानों का सम्बन्ध उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले से था और ये लोग यहाँ
पढाई- लिखाई के सिलसिले में आये थे. आतिफ अमीन की उम्र लगभग 24 साल थी और वो
जामिया में एम. ए.- मानवाधिकार प्रथम वर्ष का छात्र था, वही
साजिद जिसकी उम्र 14 साल थी वो दसवीं की पढाई करके यहाँ ग्यारहवीं में दाखिले के
लिए आया था. उनके कुछ साथी जामिया नगर में
भी रहते थे.
फलस्वरूप, इस
घटना के बाद जामिया नगर और आजमगढ़ से पुलिस द्वारा उनके साथियों, जानने वालों और दुसरे मुस्लिम नौजवानों की गिरफ़्तारी का सिलसिला चल पड़ा.
बहुत सारे लोग उठाये गए, जामिया नगर और आजमगढ़ को ‘आतंक की
नर्सरी’ कह कर बुलाया जाने लगा.
लेकिन स्थानीय लोगों, मानवाधिकार
कार्यकर्ताओ/संगठनो और कुछ पत्रकारों द्वारा इस ‘इनकाउंटर’ ने पहले दिन से इस पूरी
घटना की सच्चाई पर सवाल कायम किया, जो आज भी जस के तस कायम
है. इन व्यक्तियों ने पुलिस द्वारा जारी किये हुए विरोधाभासी बयानों को नकारते हुए
पूरे मामले के न्यायिक जाँच करने की मांग की, जिसे आज तक
सरकार ने नहीं माना है. इसीलिए, आज भी, चार साल गुज़र जाने के बावजूद इस मांग को लेकर जामिया नगर, लखनऊ और आजमगढ़ में कार्यक्रम हुए और हो रहे हैं. और लोगों का मानना है कि
जब तक इस मांग को स्वीकार नहीं किया जाता हमारी लड़ाई जारी है.
क्या हैं वो सवाल?
पहला सवाल ये था कि
क्या पुलिस को पहले से पता था की उस जगह ‘खूंखार आतंकी’ छिपे हैं ? अगर
हाँ, तो पुलिस ने अपने शुरुआती बयानों में क्यूँ कहा कि वो
तो सिर्फ रेकी करने गए थे. लेकिन क्यूंकि ‘आतंकियों’ ने गोली चला दी, इसिलए जवाबी कार्यवाही करनी पड़ी. और अगर नहीं, तो
घटना के दो-तीन घंटे के अन्दर ही कैसे पुलिस ने ये घोषित कर दिया कि मारे जाने
वाले आतंकी थे? और यही नहीं, अहम सवाल
ये है कि अगर पुलिस को पता था, जैसा कि पुलिस ने आतीफ अमीन
के मोबाइल को 26 जुलाई 08 से सर्विलांस पर रखे होने का दावा किया था, तो इन लोगों 13 सितम्बर का सीरियल ब्लास्ट कैसे किया? पुलिस ने उन्हें पहले गिरफ्तार क्यूँ नहीं किया, क्या
पुलिस उनके बम धमाकों के इंतज़ार में थी?
दूसरा अहम सवाल:
क्या इस मुडभेड में शालिम पुलिस पार्टी ने बुलेट-प्रूफ जैकेट पहन रखा था? और
अगर पहन रखा था तो मोहन चंद शर्मा और बलवंत कैसे घायल हुए? और
अगर नहीं, जैसा कि पुलिस के दावा किया था, तो इतने अहम मामले में इतनी असावधानी क्यूँ बरती गयी और क्या उन्हें मालूम
नहीं थे के वो ‘खूंखार-आतंकी’ उन पर गोली चला सकते हैं और ऐसे में रिस्क लेना उचित
नहीं होगा? पुलिस का एक बयान ये भी कहता है कि पुलिस पार्टी
बुलेट प्रूफ जाकेट इसलिए पहन कर नहीं गयी क्यूंकि बात फ़ैल जाती और आतंकी भांप
लेते और फ़रार हो जाते. लेकिन उसी समय इस घटना के बाबत एफआईआर में कहा गया है कि
पुलिस ने रेड करने पहले दो स्थानीय लोगों को अपने साथ लेना चाहा पर वो नहीं आये,
क्या ऐसा करने बात नहीं
फैलती?
तीसरा अहम सवाल:
साजिद और आतिफ के शरीर पर मिले चोट, ज़ख्म और गोलियों के निशान क्या
बताते हैं? दोनों को दफ़नाने से पहले, उनके
शरीर की ली गयी तस्वीरों से पता चलता है
कि वो किसी मुडभेड में नहीं मारे गए हैं. साजिद के सर में ऊपर से मारे गए चार
गोलियों के निशान हैं, ये कैसे संभव हुआ? क्या ये निशान ये नहीं दर्शाता कि उसे बिठाकर, उसके
सर पर ऊपर से गोली मारा गया गया है? या फिर पुलिस वालों ने
छत से चिपक कर ऊपर से गोली मारी?! इसी प्रकार सवाल ये भी है कि आतिफ के पीठ की चमड़ी पूरी तरह कैसे छिली?
उसके पैर पर भी ताज़े ज़ख्म के निशान पाए गए, ये
सब कैसे मुमकिन हुआ?
चौथा सवाल: एक अहम
सवाल ये भी है कि दो ‘आतंकी’ कैसे भागे? जबकि पुलिस का खुद का दावा है
कि उन्होंने कार्यवाही से पहले उस गली को पूरी तरह से जाम कर दिया था. यहाँ पर एक
उल्लेखनीय बात ये भी है कि जिस बिल्डिंग में ये घटना हुई उस में अन्दर जाने और
बाहर निकलने का सिर्फ एक ही रास्ता है, और ये घटना चौथी
मंजिल पर हुई थी. जहाँ से भागने का भी कोई रास्ता नहीं है. क्या वो वहां से जिन्न
या भूत बनकर भाग गए?
पांचवा सवाल: पुलिस
ने दावा किया कि साजिद, जिसकी उम्र 14 साल थी, बम बनाने में माहिर था. सवाल ये उठता है कि अगर ऐसा था तो वहां से ऐसी कोई
चीज़ बरामद क्यूँ नहीं हुई? आपको जानकर हैरानी होगी कि पुलिस
ने जिन चीज़ों की बरामदगी दिखाई है उसमे ‘पंचतंत्र’ के कहानियों की किताब भी है!
आखिर सवाल ये है कि पुलिस क्या साबित करना चाहती है ? सवाल
ये भी है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के गाइडलाइंस के अनुसार प्रत्येक
अप्राकृतिक मौत की तरह इस घटना की भी मजिस्ट्रियल जाँच क्यूँ नहीं करवाई ? क्यों लेफ्टिनेंट-गवर्नर ने इस पर रोक लगा दिया ? कुल मिलाकर सवाल बहुत हैं और
इन्हीं सवालों ने इस घटना के फर्जी होने पर, या कम से कम
इसकी वास्तविकता पर सवालिया निशान खड़ा किया हुआ है. और पूरे घटना के न्यायिक जाँच
की मांग अभी तक जारी है. लेकिन सरकार है कि जिसके कान पर जूं ही नहीं रेंगता.
सरकार का जाँच न
कराने पीछे बुनियादी तर्क ये है कि वो इस मसले की जांच इसलिए नहीं करवा सकते
क्यूंकि इस से पुलिस का ‘मोरल डाउन’ हो जायेगा ! सरकार ये भी तर्क देती है क्यूंकि
एनएचआरसी जाँच कर चुकी है. इसलिए मामला साफ़ हो चूका है. कभी-कभी सरकार ये भी तर्क
देती है कि क्यूंकि इस घटना में एक पुलिस वाला भी मारा गया, इसलिए
ये साबित होता है कि मामला वास्तविक थी और इसपर कोई सवाल नहीं खड़ा किया जा सकता!
तो क्या सरकारी दावे
सही हैं?
पहला दावा कि इसकी
जाँच कराने से पुलिस का ‘मोराल डाउन’ हो जायेगा. आखिर सरकार किस पुलिस से मोराल की
बात कर रही है जिसकी करतूतें जग-जाहिर है. और इस केस के सन्दर्भ में बात करें तो
मामला और साफ़ है कि सरकार जिस स्पेशल सेल को बचाना चाह रही है अब सब जानते है कि
उनका असल काम मासूम लोगों को फ़साना, वाह-वाही
बटोरना और पैसे कमाना है. कल ही प्रकाशित
हुई जामिया टीचर्स सोलिडरिटी असोसिअशन (JTSA) की रिपोर्ट से
साफ़ ज़ाहिर होता है कि ये लोग फर्जी केस बनाने और फर्जी मुडभेड करने में माहिर
हैं. JTSA की ये
रिपोर्ट कोई हवाबाजी या बयानों का पुलिंदा नहीं है बल्कि कोर्ट द्वारा दिए गए फौसलों पर आधारित एक
शोध है जो स्पेशल सेल के करतूतों को उजागर कर देता है.
दूसरा दावा कि
एनएचआरसी ने इस मामले की जाँच की है, बिल्कुल झूठा है. एनएचआरसी ने
इस मामले में कोई खोज-बीन नहीं किया है. बस रुटीन की कार्यवाही की है. और वो
कार्यवाही ये है कि आयोग ने उसी पुलिस डिपार्टमेंट को नोटिस भेज दी जिसने ये सब
कुछ किया. सो जवाब जो मिलना था सो मिला.
यही नहीं, आयोग
ने न ही घटना स्थल कर दौरा किया, न संबधित व्यक्तियों से
मिले, न उन लोगों से में मिले जो लगातार सवाल उठा रहे थे,
बावजूद इसके आयोग के अध्यक्ष से हमने समय भी माँगा था. और बिना ये
सब किये, पुलिस के जवाब के आधार पर इस पुरे मामले को सही घोषित कर दिया! अगर आपको
यकीन नहीं आता हो आज भी आप ये रिपोर्ट देख सकते हैं. क्या इसी को मामले की जांच कहते हैं? और बाद में RTI एक्टिविस्ट अफरोज आलम साहिल द्वारा सूचना के अधिकार से तहत इसी आयोग से
निकले गए पोस्ट मोर्टम रिपोर्ट ने और कई सारे सवाल खड़े दिए.
और रही बात
इन्स्पेक्टर मोहन चंद शर्मा के मौत कि तो हम भी ये जानना चाहते हैं कि उसकी मौत
कैसे और किन हालत में हुई ? आखिर उसे हॉस्पिटल पहुँचने उतनी देर क्यूँ
लगी ताकि वो पहुंचते ही मर जाये, जबकि साक्ष्य बताते हैं कि
जब उसको ले जाया जा रहा था तो वो पूरे होशो-हवास में था. साथ यहाँ पर इस बात का
उल्लेख भी ज़रूरी है कि यही मोहन चंद शर्मा कम से कम 8 ऐसे केस में लिप्त है जिसमे
इसने मासूम लोगों को फंसा कर उनकी जिन्दगिया बर्बाद कर दी हैं. और ये सारे केस
किसी बटला हाउस ‘इनकाउंटर’ से कम नहीं है. फलतः ऐसे व्यक्ति द्वारा अंजाम दी गयी
कार्यवाई पर शक का गहराना और लाजिम है.
इसीलिए सरकार को
चाहिए, कुछ
पुलिस वालों की नौकरी बचाने के चक्कर में न्यायिक जाँच की मांग कर रहे हजारों नहीं
बल्कि लाखो लोगों के मोराल डाउन न करें, क्यूंकि लोकतंत्र
में जनता ही सर्वोपरी है और उसकी मांग को ठुकराना लोकतंत्र की हत्या है. और इस
वक़्त जनता की मांग बटला हाउस मामले की निष्पक्ष और उच्चस्तरीय जाँच है.
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