सितम्बर 19, 2008 की और शुक्रवार
की सुबह थी. परिन्दें अपने घरों से निकल चुके थे. ओखला के अवाम हर रोज़ की तरह
अपने-अपने कामों में मशगूल हो गए थे. अचानक हवा में फायरिंग की आवाज़ गूंजी और लोग
सहम गए … डरे व सहमे हर लोगों की जुबान पर
बस एक ही सवाल था कि मामला क्या है?
ज़रा सी देर में जो ख़बरें
आईं, वह लोगों के ज़ेहन व दिलों
में दहशत पैदा कर देने वाली थी. दो नौजवान जो अपने सुनहरे भविष्य का सपना सजाए
अपने घर संजरपुर, आजमगढ़
से पढ़ने जामिया आए थे. दिल्ली पुलिस द्वारा दर्दनाक अंदाज में मौत के घात उतार
दिए गए थे. वह भी आतंकवाद के आरोप में…
इसके बाद तो जैसे आतंकवादी
चुड़ैल को ओखला का दयार भा ही गया. तब का दिन है और आज का दिन… यहाँ की जनता कभी
चैन की नींद नहीं सो सकी है. मुझे आज भी याद पड़ता है जिस दिन यह घटना हुई थी उस
दिन मेरे पास फोन का तांता बंध गया था. सभी को जवाब देते-देते मैं थक चुका था. यह
हालत सिर्फ मेरे अकेले की नहीं थी, बल्कि ओखला में रहने वाले दसियों हजार बेटे और बेटियों
की हालत यही थी जो तालीम और रोज़गार की तलाश में यहाँ आए थे. हर कोई अपने अज़ीज़
की ख़बर पता करने के लिए चिंतित और बेचैन था. जूलेना से लेकर जामिया और जामिया से
बटला हाउस, जाकिर
नगर तक केवल मीडिया की ही गाड़ियां नज़र आ रही थी. इससे पहले मैंने कभी इतना
ज्यादा मीडिया का जमगठ नहीं देखा था.
शाम होते ही पूरे क्षेत्र
में सन्नाटा फैल गया था. घटना के बाद मुस्लिम युवाओं और खासकर जामिया के छात्रों
में भय और खौफ का माहौल था. रमज़ान के महीने में पूरी-पूरी रात जगमगाते और लोगों
से भरे रहने वाला बटला हाउस में या तो
आवारा कुत्ते भौंकते हुए नज़र आ रहे थे या फिर पुलिस के वो जवान जो शांति बरक़रार
रखने के नाम पर तैनात किए गए थे. डर के
मारे माएं अपने बच्चों को घरों से बाहर नहीं जाने
दे रही थी. रोजाना कभी शाहीन बाग, कभी अबुल-फज़ल, कभी जाकिर नगर तो कभी गफ्फार मंजिल से मुस्लिम नौजवान
पुलिस द्वारा आतंकवादी बता कर दबोचे जा रहे थे. जिससे मुस्लिम न केवल अविश्वास के
वातावरण में जिंदगी जीने पर मजबूर थे बल्कि अपने ही देश में अजनबी और अनजान बना
दिए गए थे. (दुर्भाग्यवश यह सिलसिला आज भी जारी है, और बजाय इस में कमी आने के
लगातार वृद्धि ही हो रही है. अगर सरकार ने
इस पर नकेल न कसी तो मामला और भी गंभीर बल्कि खतरनाक हो जाएगा.)
मुझे याद पड़ता है तब ओखला
सहित जूलेना, सरिता
विहार, आश्रम, महारानी बाग और आसपास में
रहने वाले हिंदू मकान मालिक तो क्या मुस्लिम मकान मालिकों ने भी अपने घरों से
जामिया में पढ़ने वाले बच्चों को निकाल दिया था कि कहीं उनके घरों में रहने वाला
किरायेदार भी आतंकवादी ना हो. हर कोई एक दूसरे को शक की निगाह से देखता… यहां तक
कि हमारे दोस्त भी जो पहले एक साथ कैंटीन में बैठकर चाय पीते थे और घंटों गप्पे
मारते थे, वो अब
दूर-दूर रहने लगे थे….
यह हादसा ईद के कुछ दिन
पहले हुआ था, शायद
इसी वजह से जामिया में पढ़ने वाले कई छात्र ईद
के अवसर पर जब घर गए तो लौट कर फिर कभी वापस नहीं आए. और वह सपना जो
उन्होंने ने जामिया आने से पहले देखा था सब चकनाचूर हो गया. हालांकि तत्कालीन
वाईस-चांसलर प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने बच्चों को भयभीत न होने का आश्वासन देते हुए
हर प्रकार की सुरक्षा और मुक़दमे लड़ने का आश्वासन दिया था, लेकिन इस घटना के बाद कई
नौजवानों को पूछ-ताछ के नाम पर गिरफ़्तार क्या गया और मुशीरुल हसन साहब ने जुबां
तक नहीं खोली.
लोग आज़मगढ़ के बच्चों से मिलना गवारा नहीं करते थे. चारों
ओर शक और संदेह का एक माहौल बन गया था और इस माहौल में ऐसी अविश्वास की भावना पैदा
कर दी गई थी कि वर्षों के दोस्ती में भी ज़हर घूल गई थी. इस तरह के हालात पैदा
करने में मीडिया विशेषकर हिंदी और अंग्रेजी ने ज़बरदस्त भूमिका निभाई थी.
मुझे याद है एक प्रसिद्ध
टीवी चैनल के एक बड़े और विश्वसनीय पत्रकार ने तो मस्जिद खलीलुल्लाह को ही
आतंकवादयों की पनाहगाह बता दिया था. शिबली, अल्लामा इक़बाल सोहैल व कैफ़ी आज़मी का आज़मगढ़ रातो-रात आतंकगढ़ बना दिया गया था. दिल्ली और आज़मगढ़ ही नहीं
बल्कि पूरे भारतीय मुसलमान पुलिस, प्रशासन और मीडिया के भावनापूर्वक व्यवहार पर उदास थे.
इस वर्ष ईद की खुशियां
नहीं मनाई गई थी, बल्कि
पूरे दिल्ली और आज़मगढ़ के मुसलमानों ने अपने सरों और बाजुओ में काली पट्टियां
बांधकर ईद को ” काला दिवस ” के रूप में मनाया था.
मेरे ज़ेहन के स्क्रीन से
अभी भी वो मंज़र नहीं हटता जब मैंने पुलिस वालों को आतिफ़ और साजिद की लाशों को
बेदरदी से घसीटते हुए गाड़ी में डालते देखा था. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार
गाडी के पीछे शिकारी कुत्ते की तरह दौड़ते हुए बता रहे थे कि यह वही गाड़ी है
जिसमें आतंकवादियों की लाशों को ले जाया जा रहा है, और ब्लैक शीशे से
आतंकवादियों का जूता नज़र आ रहा है… आदि-अनादि….
इस सीन को देखने के बाद
मुझे कई रात तक नींद नहीं आई थी. मुझे खाना खाते, उठते-बैठते वही भयानक
दृश्य दिखाई दे रहे थे. उन दिनों में दैनिक हिन्दुस्तान एक्सप्रेस (उर्दू) में काम करता था. इस घटना का मेरे मन में इस
क़दर असर हुआ था कि उस दिन मैं चाह कर भी कुछ नहीं लिख सका. उस दिन घटना की
रिपोर्ट मेरे दोस्त मालिक अशतर ने बनाई थी और शीर्षक यह डाला था कि ”फर्जी एन्काउन्टर से दहल गया जामिया नगर”… उस समय कई लोगों ने
हिन्दुस्तान एक्सप्रेस में छपी इस रिपोर्ट पर आपत्ति जताई थी, लेकिन बाद के दिनों में पोस्टमार्टम रिपोर्ट सहित कई
तथ्यों ने उसे हर्फ-बहर्फ साबित कर दिया.
पुलिस की साज़िश को आतिफ व
साजिद के परिवार ही नहीं, बल्कि
देश के बड़े नेताओं, मानवाधिकार
कार्यकर्ताओं, वकीलों, पत्रकारों और बड़ी संख्या
में इलाक़े के लोग फर्जी करार देते रहे हैं. पुलिस के रवैये पर पहले दिन ही लोग
सवाल खड़े कर दिए थे और पुलिस की कहानी को निराधार बताते हुए न्यायिक जांच की मांग
की थी. लेकिन अफ़सोस इतना समय गुज़र जाने के बावजूद पुलिस की प्रक्रिया और उसके
द्वारा बयान की गई कहानी पर उठाए गए सवालों के जवाब औपचारिक रूप से मौजूद हैं.
हालांकि इस दौरान काफी
हंगामा, विरोध, धरना-प्रदर्शन सब कुछ हुआ, लेकिन “कौन सुनता है
नक्कार खाने में तूती की आवाज़”… सरकार को
भी नहीं सुनना था ना सुनी. अब तो इस कथित
एन्काउन्टर के बारे में बहुत सारे राज़
बेनकाब हो गए हैं, लेकिन
सही मानों में सारे दृश्यों में अब भी कोई परिवर्तन नहीं आया है. उल्टे एमसी शर्मा
को “वीर चक्र” पुरस्कार देकर कानून, न्याय और सच्चाई का जनाज़ा निकाल दिया गया. जबकि दूसरी
ओर शहीद होने वाले छात्रों की माओं की आंखें अपने लाल के याद में रो रो कर सूख
गईं. लेकिन कोई सरकारी जिम्मेदार उनके
आंसू पोछने के लिए नहीं पहुंचा.
इस घटना के न्यायिक जांच
की मांग आज भी जारी है,
लेकिन ना जाने इस नाटक के पीछे क्या बात या कारण है कि पुलिस-प्रशासन और केंद्र
सरकार यहां तक कि प्रधानमंत्री तक इस मामले में हस्तक्षेप करना नहीं चाहते. यह
कितना अजीब है कि जांच की मांग को यह कह कर खारिज कर दिया जाता है कि इससे पुलिस
का मनोबल गिरेगा.
हमारे राजनेताओं ने भी इस
मामले में जितनी रोटी सेंकने थीं, सेंक ली. इस मामले पर अपने हितों के लिए क्षेत्रीय
नेताओं से लेकर केंद्रीय नेताओं तक सभी ने शहीद छात्रों की लाशों पर राजनीति और
मगरमछ जैसे आँसू बहा कर अपना उद्देश्य पूरा किया. मगर वही समय आने पर “देते हैं धोखा बाज़ीगर खुला” के
समान मंच से भाग खड़े हुए. कुछेक ने तो तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने की कोशिश
की, तो कुछ आज़मगढ़ में जाकर अफ़सोस और खेद ज़ाहिर कर आए.
19 सितम्बर 2008 का वो दिन
और आज 19 सितम्बर 2012… स्थिति कितना बदल
गया है. तब जामिया नगर में कुछ तथाकथित आतंकवादियों के नाम लिए जा रहे थे, जिनको गिरफ्तार या फर्जी
एंकाउंटर में मार कर उनकी जीवन नष्ट करने की बातें की जा रही थीं और आज पूरी
कॉलोनी को आतंकवाद का अड्डा बताकर उसे नष्ट करने की योजना बनाई जा रही है और उन पर
अमल भी किया जा रहा है, और हम
ख्वाब-ए-गफ़लत में शायद अपनी बर्बादी का इंतजार कर रहे हैं…
No comments:
Post a Comment