ऐसे
शख्स के लिए जो टीवी पर दर्जनों बार भाषण देता हो, महीने में एक बार रेडियो पर बोलता हो
और जब मर्जी हो ट्वीट करता हो, उसे अपनी बात रखने के लिए शब्दों की
कमी नहीं होती.
लेकिन
हाल ही में पार्टी सहयोगियों की ओर से दिए जाने वाले 'सांप्रदायिक' बयानों के सवाल पर प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी की चुप्पी बड़ी ही रहस्यमयी लगती है.
भाजपा
के प्रवक्ता बताते हैं कि मोदी ने जब कड़ी बात करनी हो तो, बंद दरवाजों के पीछे मुद्दे पर बात
करते हैं और मुझे बताया गया कि वो दो बार ऐसा कर चुके हैं,
'हिंदू राष्ट्र':
आम
लोगों के पास यह जानने का कोई रास्ता नहीं है कि 'लव जिहाद', धर्मांतरण, बाबरी मस्जिद विध्वंस और भारत में धार्मिक
अल्पसंख्यकों के बारे में मोदी क्या सोचते हैं.
उस
भारत के बारे में जिसे उनके परिवार के लोग 'हिंदू राष्ट्र' कहते हैं.
उन
ताजा रिपोर्टों को ही लें जिनमें मोदी को पार्टी सासंदों को शराफत की 'लक्ष्मण रेखा' न लांघने की सलाह देते हुए बताया गया
है.
यह
सलाह भी उन्होंने यह कहते हुए दी कि इससे विपक्ष को सरकार पर हमला करने का मौका
मिलता है.
विवादित
बयान:
भाजपा
नेताओं के अनुसार मंगलवार को संसद भवन में हुई पार्टी सासंदों की बैठक के दौरान
प्रधानमंत्री ने ये बात कही.
माना
गया कि महात्मा गांधी की हत्या करने वाले नाथुराम गोडसे को देशभक्त बताने वाले
साक्षी महाराज के बयान से उपजे विवाद पर यह बात कही गई.
योगी
आदित्यनाथ ने भी गोडसे को 'हिंदुओं का गर्व' कहा पर साक्षी महाराज बाद में इस बयान से मुकर गए.
पिछले
हफ़्ते मोदी ने साध्वी निरंजन ज्योति को भी निशाने पर लिया था.
मुखर
मोदी:
साध्वी
पर राम को न मानने वाले भारतीयों के प्रति अपशब्द के इस्तेमाल का आरोप लगाया गया
था.
अमूमन
मुखर रहने वाले प्रधानमंत्री मोदी का कथित तौर पर पार्टी सांसदों को कूट संदेश था, "ऐसे मत बोले जैसे कि आप पूरे देश को
संबोधित कर रहे हैं."
निश्चित
रूप से ख़राब बात कहने वाले किसी व्यक्ति को झिड़कने का यह निराला तरीका था.
संयोग
से मोदी ने ख़तरनाक और विभाजनकारी बयान देने वाले सांसदों की आलोचना नहीं की.
और
जैसा हमें बताया गया, दिक्कत इस बात को लेकर थी कि विपक्ष इन मुद्दों के सहारे सरकार को
विवाद में घसीटने की कोशिश कर रहा है.
'लव जिहाद':
15
अगस्त को मोदी ने कहा था कि सांप्रदायिकता की राजनीति पर 'दस सालों तक के लिए रोक' लगा दी जानी चाहिए.
इसके
ठीक बाद संघ परिवार ने मुस्लिम विरोधी भावनाओं को हवा देनी शुरू कर दी, खासकर उन निर्वाचन क्षेत्रों में, जहां उपचुनाव होने थे.
मोदी
के सहयोगी अमित शाह ने भाजपा के 'सांप्रदायिक अभियान' के नेतृत्व के लिए योगी आदित्यनाथ को चुना.
संघ
ने संगठन के मुखपत्र 'पाञ्चजन्य' का एक पूरा अंक कथित 'लव जिहाद' को समझाने के लिए समर्पित कर दिया.
समर्पित
सिपाही:
यह
वही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है जिसकी वफादारी की कसमें मोदी से लेकर भाजपा के
छोटे से छोटे नेता तक खाते रहते हैं.
इनमें
से किसी को प्रधानमंत्री ने एक बार भी फटकार नहीं लगाई, एक शब्द तक नहीं कहा.
इन
सब बातों से अब तक ये साफ हो जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री के बयानों की अस्पष्टता
एक सोची समझी बात है.
मोदी
संघ परिवार के बोलबाज़ मोहरों की सार्वजनिक तौर पर आलोचना नहीं करेंगे क्योंकि ये
सभी वही समर्पित सिपाही हैं जिन्होंने मिशन 272 का वादा पूरा करने में अपनी भूमिका
निभाई है.
तरक्की
और समृद्धि:
आज
उन्हें उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में पार्टी को सत्ता तक पहुँचाने और
भाजपा की स्थिति मज़बूत करने के लिए इनकी जरूरत है.
लेकिन
इसके साथ ही मोदी को यह भी पता है कि ख़ामोश रहना कोई बहुत अच्छा विकल्प नहीं है.
उनके
'विकास' के नारे ने क़रीब 12 फ़ीसदी मतों को
पार्टी के पक्ष में किया था और अगर मतदाताओं को ये अहसास हुआ कि उन्हें ठगा गया है
तो फिर चुनावी तस्वीर बदल सकती है.
देश
के लाखों लोगों ने मोदी पर भरोसा जताया है क्योंकि वे नौकरी, तरक्की और समृद्धि लाने के उनके वादे
पर यकीन करते हैं.
यही
कारण है कि भाजपा वक़्त-वक़्त पर यह जताती रहती है कि पार्टी नेता जो कुछ भी कह
रहे हैं, मोदी
उससे नाखुश हैं.
एक
कारगर औजार:
सच
तो यह है कि ज़मीन पर ज्यादा कुछ नहीं बदला है. सत्ता में बैठे नेताओं के लिए सांप्रदायिकता
एक कारगर औजार रही है.
सत्ता
में बैठे लोगों को जिस मक़सद के लिए चुना जाता है, उसे पूरा न कर पाने की सूरत में मिली नाकामी से
लोगों का ध्यान हटाने में सांप्रदायिकता से मदद मिलती है.
जैसा
कि मोदी ने वादा किया था और अगर 2018 तक अच्छे दिन नहीं आ पाए तो वे आदित्यनाथ की
मेहनत के शुक्रगुजार होंगे.
लेकिन
फिलहाल सांप्रदायिक तनाव भड़काने वाले लोगों की बयानबाज़ी से प्रधानमंत्री के हित
इतनी जल्दी नहीं सधने वाले हैं.
'सांस्कृतिक' एजेंडा:
अगर
नौकरी और तरक्की चाहने वाले वोटर आखिरकार राजनीतिक हिंदुओं में बदल जाएं तो
आदित्यनाथ की पीठ ठोंकने और शिक्षा समेत अन्य क्षेत्रों में संघ के 'सांस्कृतिक' एजेंडे को जगह देने की रणनीति लंबे समय
में कारगर हो सकती है.
लेकिन
मौजूदा हालात के मद्देनज़र देखें तो इस उबाल के हमेशा ही ख़तरे रहेंगे.
इसलिए
सवाल उठता है कि मोदी सामाजिक समरसता के ताने-बाने में छेड़छाड़ के लिए क्यों
ख़तरा उठाने को तैयार हैं.
ख़ासकर
तब जब कि अर्थव्यवस्था के सुधार की दिशा में उनका काम बमुश्किल शुरू ही हुआ है.
संघ
परिवार:
कहीं
नरेंद्र मोदी को यह अहसास तो नहीं हो गया कि जो जिम्मेदारी उन्होंने ले ली है, उसे पूरा करना आसाना काम नहीं है.
सवाल
यह भी है कि क्या वे अपने चुनावी वायदों को पूरा कर पाने की अपनी काबिलियत पर
भरोसा खोने लगे हैं?
या, संघ परिवार को अनुशासित करने के लिए
जिस तरह के प्रभाव की जरूरत है, वो उनके पास नहीं है?
शायद
मोदी उतने अच्छे 'प्रशासक' नहीं है जितना उनके समर्थकों ने उन्हें मान लिया था. या शायद वे
उत्तर प्रदेश या फिर किसी और जगह उभर रहे ख़तरे के संकेतों को पहचान नहीं पा रहे
हैं.
साफ
लफ़्ज़ों में कहूं तो मैं यह समझ नहीं पा रहा हूं कि उनकी ख़ामोशी और हाथ पर हाथ
धरे बैठने की क्या वजह है.
लेकिन
अगर वो अपनी चुप्पी नहीं तोड़ते हैं और नफ़रत की ज़बान बोलने वालों की सार्वजनिक
आलोचना नहीं करते तो भारत के लिए आने वाले दिन मुश्किल भरे हो सकते हैं.
-सिद्धार्थ
वरदराजन वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए
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