इस बग़ावत पर सत्तारूढ़
पार्टी यानी बीजेपी और केंद्र की मोदी सरकार का रिऐक्शन दो तरह का है। पहला यह कि जिन
राज्यों में और जब ये हत्याएं हुईं, तब वहां बीजेपी की सरकारें नहीं थीं। इसलिए यदि इन हत्याओं के लिए किसी को
दोषी ठहराना है तो महाराष्ट्र की पिछली और कर्नाटक की मौजूदा सरकारों को ठहराओ
दूसरा, यदि आपको देश में बढ़ती असहिष्णुता की इतनी ही चिंता है तो आपने इससे पहले
इतने दंगे हुए, तब अपने पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए, जब देश में आपातकाल लागू हुआ, तब आपने पुरस्कार क्यों
नहीं लौटाए? बीजेपी समर्थक इस दूसरे वाले तर्क को ही ज़्यादा
उछाल रहे हैं। पिछले हफ़्ते बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने भी ‘टाइम्स नाउ’ पर अर्नब गोस्वामी
के साथ अपने इंटरव्यू में भी यही तर्क दोहराए।
आइए, इन तर्कों का जवाब तर्क से ही देते हैं। पहली दलील यह है कि जिन राज्यों में
और जब ये हत्याएं हुईं, तब वहां बीजेपी की सरकारें नहीं थीं।
इसलिए यदि इन हत्याओं के लिए किसी को दोषी ठहराना है तो महाराष्ट्र की पिछली और कर्नाटक
की मौजूदा सरकारों को ठहराओ।
एक बार के लिए मान
लेते हैं कि यह तर्क सही है। यदि मैं सही समझा हूं तो बीजेपी समर्थक कहना यह चाहते
हैं कि यदि किसी राज्य में कोई अप्रिय घटना होती है तो उसके लिए राज्य सरकार दोषी होती
है न कि वे लोग जिन्होंने इस घटना को अंजाम दिया। इस दृष्टि से देखें तो कल यदि मेरे
घर में चोरी होती है तो उसके लिए मैं दोषी हुआ न कि चोर! मुझे पकड़कर जेल में डाल दिया
जाना चाहिए न कि चोर को। एक और उदाहरण देता हूं —
इस दलील के मुताबिक़ यदि कोई व्यक्ति आपके घर में ज़हरीले सांप छोड़ दे तो उस
व्यक्ति का कोई अपराध नहीं बनता जिसने सांप छोड़े, अपराध बनता है आपका जिसकी नाली से होकर ये सांप आए। पुलिस को चाहिए कि वह सांप
छोड़नेवाले को बाइज़्ज़त बरी कर दे और नाली खुली रखने के अपराध में आपको अंदर कर दे!
सही है?
उदाहरणों के बाद
अब असली दुनिया में आएं। निश्चित रूप से किसी भी हिंसक घटना के लिए राज्य सरकार की
ज़िम्मेदारी बनती है। उसका फ़र्ज़ बनता है कि वह ऐसी घटनाएं रोके। लेकिन इसका यह मतलब
नहीं कि जिसने घटना को अंजाम दिया, वह दूध का धुला है। अब यदि कांग्रेस शासित राज्यों में संघ परिवार ऐसे सांप
छोड़ रहा है जो ‘अंधविश्वासों, मठाधीशों और धार्मिक कट्टरता’
के ख़िलाफ़ बोलनेवालों को डस रहे हैं तो वहां की सरकारें तो दोषी हैं ही कि वे ऐसे
सांपों को रोकने या पकड़ने में नाकाम रहीं लेकिन वे लोग सौ गुना ज़्यादा दोषी हैं जो
ये सांप पालते हैं, उनको दूध पिलाते हैं और विरोधियों को डसने
के लिए इन्हें समाज में छोड़ देते हैं।
और उनसे भी हज़ार
गुना दोषी वे हैं जो इन सांपपालकों को न केवल जानते-पहचानते हैं, बल्कि उनको मौन या मुखर समर्थन भी देते हैं। आपने दादरी कांड से जुड़े संजय
राणा और केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा की तस्वीर
देखी होगी और हाल में दिल्ली स्थित केरल भवन में बीफ़ सर्व होने की झूठी ख़बर देनेवाले
विष्णु गुप्ता का बीजेपी नेताओं के साथ का फ़ोटो भी देखा होगा। यह सबूत है कि कैसे
ये ज़हरीले सांप केंद्र में बैठे लोगों के समर्थन और सहयोग से अपना संकीर्ण अजेंडा
चला रहे हैं। पुरस्कार लौटानेवालों का सारा विरोध उन्हीं से है जो आज केंद्र की सत्ता
में बैठे हुए हैं और मासूम होने का नाटक कर रहे हैं।
संक्षेप में पुरस्कार
लौटानेवाले बढ़ती असहिष्णुता और हिंसा के लिए केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी को
इसीलिए दोषी मानते हैं कि जो भगवा तत्व हिंसा कर रहे हैं, वे उन्हीं के परिवार के हैं और उनको सरकार और पार्टी का प्रत्यक्ष या परोक्ष
समर्थन प्राप्त है। यह बिल्कुल वैसा ही है कि आपके बच्चे किसी के घर पर जाकर तोड़फोड़
करें और आप चुप रहें यह कह कर कि जहां तोड़फोड़ हो रही है, वह
किसी और का घर है।
अब आते हैं दूसरे
सवाल पर। यदि आपको देश में बढ़ती असहिष्णुता की इतनी ही चिंता है तो आपने इससे पहले
इतने दंगे हुए, तब अपने पुरस्कार क्यों नहीं लौटाए,
जब देश में आपातकाल लागू हुआ, तब आपने पुरस्कार
क्यों नहीं लौटाए?
जवाब यह है। इस बात
पर दो राय नहीं है कि देश में हमेशा से सांप्रदायिक तनाव रहा है, हिंसा भी हुई है, दोनों तरफ़ के लोग भी मारे गए हैं।
देश का विभाजन भी सांप्रदायिक आधार पर हुआ था और तब भी हज़ारों हिंदू-मुस्लिम मारे
गए थे। लेकिन जब-जब ऐसा हुआ है, तब-तब धर्मनिरपेक्ष साहित्यकारों
और ऐक्टिविस्टों ने सड़कों पर उतरकर, नाटकमंचन द्वारा या अपनी
कलम के सहारे इस हिंसा, इस तनाव, इस नफ़रत
का विरोध किया है। ऐसा वर्षों से होता आया है। दंगे हुए लेकिन दंगों का विरोध भी हुआ
और उस विरोधी मत को अपनी बात कहने का अवसर प्राप्त था। गुजरात दंगों के बाद भी मोदी
के ख़िलाफ़ क्या-क्या नहीं कहा गया लेकिन अच्छी बात है कि वह कहने दिया गया।
लेकिन पिछले कुछ
सालों से स्थिति ख़राब हुई हैं। दाभोलकर, पानसरे और कुलबर्गी की हत्याएं इस ख़राब होते हालात का प्रतीक है। इन हत्याओं
से संदेश यह दिया जा रहा है कि हिंदूवादी संगठनों के ख़िलाफ़ बोलना बंद करो वरना गोली
मारकर तुम्हें शांत कर दिया जाएगा।
यह वैसा ही संदेश
है जैसा कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन वर्षों से देते आए हैं। हमारे पड़ोसी देश बांग्लादेश
में ही कई ब्लॉगर मारे गए हैं। अभी शनिवार को फिर तीन लेखकों पर हमले हुए। सलमान रुश्दी
और तसलीमा नसरीन वर्षों से मौत के साये में जी रहे हैं। लेकिन बांग्लादेश में जिन लोगों
ने ब्लॉगरों और लेखकों की जान ली या सलमान रुश्दी और तस्लीमा नसरीन की जान को जिन लोगों
और संगठनों से ख़तरा है, वे (1) भारतीय संगठन नहीं
हैं और (2) उनको राज्य या केंद्र में बैठी सत्ता का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन प्राप्त
नहीं है।
लेखकों की हत्याएं
भारत में पहले भी हुई हैं। मुझे सफ़दर हाशमी की याद आ रही है। दिल्ली के पास ग़ाज़ियाबाद
में खेले जा रहे ‘हल्ला बोल’ नाटक के बीच उनपर जानलेवा हमला किया गया था। उस हत्या
में कांग्रेस के स्थानीय नेता मुकेश शर्मा का हाथ था। मगर आज और तब में फ़र्क़ यह है
कि तब किसी ने उस हत्या को जस्टिफ़ाइ नहीं किया था। कांग्रेस ने भी नहीं जो तब विपक्ष
में थी।
आज हालात भिन्न हैं।
आज भगवा विचारधारा के समर्थक न केवल इन हत्याओं को सही ठहरा रहे हैं बल्कि हत्याओं
को गौरवान्वित भी कर रहे हैं। सामने भले ही कोई कुछ न करे, लेकिन अंदरख़ाने बात यही होती है कि हिंदू धर्म के ख़िलाफ़ बोलनेवालों को सबक़
सिखाने का यही सही तरीक़ा है। दादरी में इख़लाक़ की हत्या भी ‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः
परधर्मो भयावह’ से प्रेरणा लेनेवाली नफ़रत
में डूबी भगवा राजनीति की तार्किक परिणति है। और बढ़ती हिंसा और असहिष्णुता की सबसे
ताज़ा मिसाल।
1948 में नाथूराम
गोडसे ने गांधी को मारकर जो संदेश दिया था, आज वही संदेश दिया जा रहा है। जो गोडसे के कृत्य को सही ठहराते हैं,
वे इन तीनों की हत्या को भी सही ठहराते हैं। और दुख की बात यह है कि
इन घटनाओं को सही ठहरानेवाले लोग केंद्र में बैठे महानुभावों के साथ प्रीतिभोज करते
हैं।
ऐसा पहले कभी नहीं
हुआ। आपातकाल में भी विरोधी मत रखनेवालों को जेल में डाला गया था, गोलियों से छलनी नहीं किया गया था। आज वही हो रहा है। पहले बोलने की आज़ादी
थी, आज बोलने पर पिस्तौल दाग़ी जा रही है और पिस्तौल दाग़नेवालों
की डोर केंद्रीय सत्ता से बंधी है। ऐसा पहले नहीं हुआ, आज हो
रहा है। इसीलिए पुरस्कार भी आज लौटाए जा रहे हैं, पहले नहीं लौटाए
गए।
आपमें से कई पाठक
कह सकते हैं कि स्थिति इतनी ही ख़राब होती तो आज मैं यह ब्लॉग नहीं लिख रहा होता। मैं
आज यह ब्लॉग लिख पा रहा हूं, इसका मतलब यही है कि भारत
में आज भी बोलने की आज़ादी है। बात सही है। देश में आज स्थिति उतनी ख़राब नहीं है जितनी
बांग्लादेश और पाकिस्तान में है। लेकिन इसीलिए
तो आज बोलना और ज़रूरी है। आज हम बोलें ताकि कल ऐसा न हो कि हम बोल ही न सकें,
हमें बोलने ही न दिया जाए। जब कहीं आग की लपटें उठती हैं तो आग तुरंत
बुझानी होती है, उनके और फैलने का इंतज़ार नहीं किया जाता;
हम यह नहीं कहते कि अभी तो ये दो-चार लपटें हैं, अपने-आप बुझ जाएंगी या अगर फैलीं भी तो हम तब देखेंगे, लोगों को बुलाएंगे, सब मिलकर आग बुझाएंगे।
पानसरे, दाभोलकर और कलबुर्गी की हत्या ऐसी ही लपटें हैं। बड़ी लपटें हैं। और देश में
और जगहों पर आग लगाने के लिए तैयारियां भी चल रही हैं। यदि अभी लोगों को नहीं जगाया
गया तो कल ये लपटें पूरे देश को आग में झोंक देंगी। इसीलिए आज बोलना ज़रूरी है।
और जो आज चुप हैं, उनको मार्टिन नीमोलर की कविता याद करने की ज़रूरत है। इस कविता के कई रूप हैं।
मैं इसका एक वर्शन नीचे दे रहा हूं। इसमें आप कम्युनिस्टों, श्रमिक
नेताओं और यहूदियों की जगह सेक्युलरों, मुसलमानों, दलितों, पिछड़ों, प्रगतिशीलों,
आदिवासियों, तर्कवादियों, नास्तिकों, कलाकारों, नाटककारों
कुछ भी लिख सकते हैं और यह कविता आज के भारत की कविता हो जाएगी।
पहले वे कम्युनिस्टों
के लिए आये
मैं चुप रहा, क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था।
फिर वे श्रमिक नेताओं
के लिए आये
मैं चुप रहा, क्योंकि मैं श्रमिक नेता नहीं था।
फिर वे यहूदियों
के लिए आये
मैं चुप रहा, क्योंकि मैं यहूदी नहीं था।
...
...
...
अंत में वे मेरे
लिए आये
और तब तक (मेरे लिए)
बोलने वाला कोई नहीं बचा था…।
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