पागल,
जी हाँ पागल ही जिसका जन्म ही राँची में हुआ हो वो पागलों की तरह ही सोचेगा, पापा का जॉब था Heavy Engineering Corporation Ltd., Ranchi में और हमारा जन्म भी उसी शहर में हुआ, जब होश संभाला तो देखा आदिवासियों से ऐसा बर्ताव किया जा रहा है जैसे वो जंगली जानवर हों, गाड़ियों में भर भर के जंगल में छोड़ दिया जाता था हमारे सभ्य समाज द्वारा, अब ऐसे माहौल में पला-बढ़ा व्यक्ति पागल के जैसा ही न सोचेगा ?
जब मासूमियत के साथ वो बच्चा पूछता था के ये कौन हैं ?? इनकी भाषा हमारी भाषा से क्यों नहीं मिलती नहीं है, तो बड़ों का जवाब मिलता था जंगली लोग हैं इसलिए हमसे अलग हैं।
उसी शहरी सभ्य समाज के ऑटो से हर रोज ऐलान होता हुआ दिखाई पड़ता था रंग गोरा, सावंला, गेरुआ, उम्र 5-10 वर्ष पिछले 2-10 दिनों से ग़ायब है जिस किसी बंधू को दिखाई दे सूचित करें, अर्थात हर रोज बच्चे चोरी होते थे कौन करता था ?? पता नहीं पर यकीन के साथ कह सकता हूँ आदिवासी तो नहीं करते थे अपने ही सभ्य समाजी लोग होंगे।
अधिकतर आदिवासी भी हमारे सभ्य समाज को अपना दुश्मन ही मानते थे और मानते भी क्यों नहीं दुश्मनों वाला ही व्यवहार तो करता था हमारा सभ्य समाज, वो अगल बात है कि आदिवासी केवल दुश्मन ही मानते थे कभी दुश्मनी निभाई नहीं क्योंके अधिकतर समय भात से बने शराब (शायद उसे हांड़ी बोलते थे) पी कर मस्त सोये रहते थे, कुछ हमारे सभ्य समाजी लोग तो यहाँ तक कहते थे ये आदिवासी आदमखोर भी होते हैं।
खैर जो भी हो हमने देखा ऐसे विकट परिस्थित में भी इसाई मिसिनारियों ने गावं गावं, जंगल जंगल जा कर इन आदिवासियों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया था, मिसिनरी के सेवक, सेविका वर्षों वर्षों तक जंगल में पड़े रहते थे, आप कह सकतें हैं उनका उद्देश्य इसाई को फैलाना था और हो भी सकता है पर उन्होंने जो योगदान दिया और दे रहें हैं शिक्षा के क्षेत्र में आपके सभ्य समाज द्वारा ही घोषित जंगली लोगों के मेरी नज़र में केवल इसाई धर्म का प्रचार नहीं था, समाज सेवा भी था।
अगर थोड़े देर के लिए मान भी लिया जाए कि आपका आरोप सत्य है कि उनका उदेश्य मात्र इसाई धर्म का प्रचार-प्रसार था तो आप क्यों नहीं गए उस विकट समय में अपने धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए ??
आप कुछ भी कहिये आज जो भी आदिवासी अपने हक़ की लड़ाई के लिए दिल्ली तक पहुँच रहे हैं, इनको दिल्ली तक तक रास्ता समझाने में इसाई मिसिनारियों का बहुत बड़ा योगदान था।
#काकावाणी
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