‘बाजीराव-मस्तानी’ में इतिहास के साथ बलात्कार
और मंत्र-मुग्ध दर्शक! समझ नहीं आ रहा कि देश में डंके की चोट पर इतिहास को कैसे
तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है? बिल्कुल समझ नहीं आ रहा। ग़लती संजय
लीला भंसाली की नहीं है। अंधेर नगरी है, कोई
पूछने वाला तो है नहीं। जिसका जो जी चाहे लिखे, जैसी
श्रद्धा और जैसी स्वार्थी ज़रुरत हो, वैसे
इतिहास लिख दो। देश सोया है, सेंसर
बोर्ड जाहिल है, इतिहासविद और जो कोई भी सरकारी, ग़ैर-सरकारी संस्थान हैं वे अपने एहसास-ए-कमतरी
में इस क़दर डूबे हैं कि चूं भी नहीं कर सकते।
बाजीराव को नाचता देख कर कहीं शायद कुछ लोगों
ने सिर धुना हो पर वो भाड़ में जाएं। कॉलेज की लड़कियां तो पागल हो गयी होंगी और ये
पहली बार थोड़े ही हो रहा है। बाजीराव की जो भी असल बहादुरी रही होगी उसे दो संवादों
में में दिखा दो। बाक़ी तो देवदास ही बनाना है। पैसा कमाना है। बड़े फ़िल्मकार की तरह
नाम पैदा करना है। जो जी में आये करो अभी बताया था न कि देश सोया है, सेंसर बोर्ड जेम्स बॉन्ड को हिंदुस्तानी तहज़ीब
सिखाने का देशभक्तिपूर्ण कारनामा अंजाम देने में मग्न है। शिवसेना ग़ुलाम अली को
मुंबई आने से रोकने का सामाजिक कर्तव्य निभा कर थकी हुई होगी। बाक़ी ठहरे भक्त और
भक्त-सुधारक, तो
वो अपनी सवाली-जवाबी क़व्वाली गाने में इतने व्यस्त हैं कि कहां दीगर
मुद्दों पर ध्यान दे पायेंगे। तो फ़िल्म निर्माताओं रास्ता बिल्कुल खाली है। किसी
तरह की पुलिस नहीं है, अपनी व्यापारिक गाड़ी जैसी चलानी है, चलायें। दो-चार ऐतिहासिक व्यक्तित्व इस गाड़ी के
नीचे कुचल गए तो किसकी मां का क्या जाता है साहब? जनता तो वैसे भी साड़ियां और सेट्स देखने आती है!
‘जोधा-अकबर’ के ज़ख्म अभी तक नहीं भरे हैं। गज़ब
की कल्पनाशीलता थी फ़िल्म में भई। हिंदुस्तान के एक अज़ीम शहंशाह को एक उल्लू का
पट्ठा दिखाया गया है। वह उद्दात व्यक्तित्व जिसके साम्राज्य की सीमायें अभूतपूर्व
दूरियों तक फैली थीं। उसे कितना लीचड़, छोटा
बताया गया था। पर ऐश्वर्या के कपड़े क्या खूब थे, ऋतिक की मसल्स क्या चमक रही थीं। जनता फिर कितनी खुश थी। पूरा पैसा
वसूल फ़िल्म थी।
और वह शाहरुख़ की ‘अशोका, द ग्रेट’ याद है? पहली बात तो नाम, ‘अशोक’
का नाम अशोका जिस भी बेवकूफ़ी के नाते किया गया हो उसे तो नज़रअंदाज़ हम कर ही देते
हैं। ‘संतोषा सिवना’ ने फ़िल्म बनाई। उन्हें सिनेमेटोग्रफी करनी थी सो की। ‘शाहरुखा
खाना’ को नाचना था तो वे नाचे। पर फिर वही बात। लेखक को तिलमिलाने की आदत है शायद
फिल्मकार होने के नाते बड़े दिग्दर्शकों से ईर्ष्यावश बुरा-भला कह रहे होंगे। इस
फिल्म पर भी जनता ने खूब वाह-वाहियां बरसाई थीं। अगर आप यू-ट्यूब पर सम्राट अशोक
पर बनी फ़िल्म के अंश देखें तो किसी स्पूफ़ की तरह लगेंगे। इसे कॉमिडी-क्लिप की तरह
ही देखा जाना चाहिए। ये बिज़नस आईडिया मैं उन्हें मुफ़्त में दे रहा हूं कि किसी
हास्य कलाकार को सूत्रधार बना कर फिर से फिल्म एडिट की जाए और अब इसे एक स्पूफ़ /
कॉमिडी की तरह रिलीज़ किया जाए तो देखना कितनी कमाई होती है।
अब कल्पना की नदी जब बह ही निकली है तो मैं
सोचता हूं कि क्यों न लगे हाथों रानी लक्ष्मी बाई के बाल-प्रेम पर एक फ़िल्म बनाई
जाए और अगर पटकथा कमज़ोर पड़ती है तो लॉर्ड डलहौज़ी की एक गोरी बहन बना दी जाए जो
शादीशुदा होते हुए भी अकेलेपन की शिकार है, जिसे
रानी झांसी के एक सिपहसालार से प्यार हो जाता है। इस सिपहसालार को रानी अपने भाई
की तरह मानती है और अंत में जब रण में रानी का घोड़ा फंसता है तो उसी गोरी का पति
अपनी टुकड़ी के साथ रानी को घेरता है। रानी घायल होने के बाद भी उस अंग्रेज़ को मौत
के घाट उतारती है और मरने के पहले अपने भाई के हाथ में उसकी गोरी प्रेमिका का हाथ
रखती है। जय हिन्द कहती है और इस मृत्युलोक से कूच कर जाती है।
ओफ़्फ़ो क्या क़िस्मत है मेरी। क्या प्लॉट हाथ लगा
है, बस भई ये बेमानी लेख लिखना बंद करता
हूं और भंसाली के पास जाता हूं। पारखी हैं, समझेंगे।
वही मार्गदर्शन देंगे कि दरबार में एक 250 नर्तकों के साथ गाना कैसे डालना है।
कैसे रानी की जलकुकड़ी चचेरी बहन का किरदार उकेरना है। कैसे लॉर्ड डलहौज़ी की
(गैर-मौजूद) सीक्रेट सेक्स-लाइफ का भांडा फोड़ना है। हां, आप लोग मेरी फ़िल्म देखने ज़रूर आइयेगा!
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