आज़म ख़ां अपनी वापसी का जश्न मना रहे हैं और इस जश्न में शायद वह यह भी भूल गए हैं कि हमारी एक सभ्यता है, हमारे सांस्कृतिक मूल्य हैं, भले ही हम राजनीति में रहें, परंतु हमें अपने स्वभाविक मूल्यों से इतना आगे नहीं जाना चाहिए कि लोगों को उंगलियां उठाने का मौक़ा मिले। जया प्रदा एक फ़िल्म अभिनेत्री हैं, क्या वह पिछले दो चार महीनों से फ़िल्म अभिनेत्री हैं? क्या वह समाजवादी पार्टी से अलग होने के बाद से फ़िल्म अभिनेत्री हैं? वह एक नृतकी हैं, उनका व्यवसाय यही है तो फिर क्या समाजवादी पार्टी को यह ज्ञात नहीं था, जब उन्हें पार्टी में शामिल किया गया था? क्या उस समय मोहतरम आज़म ख़ां समाजवादी पार्टी का हिस्सा नहीं थे, जब मोहतरमा जया प्रदा को समाजवादी पार्टी में शामिल किया गया और रामपुर से संसदीय चुनाव लड़ाने का फ़ैसला किया गया? मैं पिछले वर्ष हुए संसदीय चुनाव की बात नहीं कर रहा हूं, उस समय ज़रूर आज़म ख़ां की नाराज़गी जग ज़ाहिर थी और जो कुछ भी उन्होंने उस इलैक्शन को प्रभावित करने के लिए किया, वह भी सब जानते हैं। इस समय उसकी चर्चा करना मेरा उद्देश्य नहीं है, बल्कि इससे पहले वाले संसदीय चुनाव अर्थात 2004 की बात इस समय उन्हें याद दिलाना चाहता हूं, जब वह जया प्रदा को अपने साथ लेकर रामपुर की गलियों में घूम रहे थे और हर दरवाज़े पर दस्तक देकर उनके लिए वोट मांग रहे थे। मोहतरमा जया बच्चन ने तो पार्टी अभी तक छोड़ी नहीं है, क्या कहेंगे उनके बारे में, फ़िल्म अभिनेत्री तो वह भी हैं? बहुत सी फ़िल्मों में नृत्य उन्होंने भी किया है। नहीं, हमारा उद्देश्य यह नहीं है कि ख़ुदा न ख़्वास्ता उनकी भी निन्दा की जाए, कहने का उद्देश्य केवल यह है कि जब तक साथ रहे तो हमप्याला हमनिवाला रहे और अब यह है कि ज़्ाुबान से अंगारे बरसते हैं। ऐसा क्यों फिर जया प्रदा अकेली तो संसद सदस्य या राजनीतिज्ञ नहीं हैं। वजयंती माला अपने नृत्य के लिए पहचानी जाती थीं, लंबी अवधि तक ऊपरी सदन की सदस्य रहीं। हेमा मालिनी की पहचान भी एक अभिनेत्री से अधिक नृतकी की है, वह भी ऊपरी सदन की सदस्य रहीं और स्वंय आज़म ख़ां भी उसी ऊपरी सदन के सदस्य रहे। मोहतरमा शबाना आज़मी इन्क़लाबी शायर कैफ़ी आज़मी साहब की सुपुत्री और जावेद अख़्तर की पत्नी हैं। फ़िल्म अभिनेत्री वह भी हैं, और नृत्य तो उन्होंने भी अपनी फ़िल्मों में किया है। सामाजिक कार्यकर्ता हैं, ऊपरी सदन की सदस्य भी रही हैं, क्या उन्हें भी इसी तरह के वाक्यों से सम्बोधित किया जाए। कुछ भी कहने से पूर्व हमें सोचना होगा कि हमारी ज़ुबान से निकला एक वाक्य कितनी शख़्सियतों पर असरअंदाज़ होता है। दिलीप कुमार का हम सम्मान करते हैं, विशिष्ट फ़िल्म कलाकार हैं, ज़रूरत पड़ने पर ठुमके उन्होंने भी लगाए तो क्या इसके लिए उन्हें आलोचना का निशाना बनाया जाए। ठीक है आज़म ख़ां अमर सिंह से नाराज़ हैं। कल समाजवादी पार्टी में अमर सिंह का दबदबा था तो वह हाशिये पर थे, आज अमर सिंह समाजवादी पार्टी में नहीं हैं और बड़े गाजे-बाजे से समाजवादी पार्टी में उनकी वापसी हो गई है तो यह नज़ला जया प्रदा पर क्यों? फिर जिस तरह का वाक्य युद्ध अमर सिंह और आज़म ़ख़ां के बीच में जारी है, क्या इसी को उनकी राजनीति क़रार दे दी जाए? अगर कोई अभद्र व्यक्ति इस तरह की बात कहे और तुर्की-बतुर्की जवाब मिले तो समझ में आ सकता है, परंतु अगर कोई व्यक्ति स्वयं को राजनीति के उच्च मूल्यों पर चलने वाला कहे और फिर उसकी कार्य पद्धति ऐसी हो तो उचित नहीं लगता। हमें अमर सिंह कर की राजनीति से कुछ भी लेना देना नहीं है, लेकिन जिस तरह की बातें सरेआम कही जा रही हैं और उन्हें टेलीवीज़न चैनलों पर चटख़ारे लेकर दिखाया जा रहा है उससे मुलायम सिंह यादव जैसे गंभीर तथा सभ्य समझे जाने वाले नेता की छवि भी तो धूमिल होती है। अमर सिंह सप्लायर हैं? क्या सप्लाई करते थे, वाक्य को अधूरा छोड़ दिया जाए, कह दिया जाए कि ‘‘आप महिला हैं, मैं क्या कहूं। कोई और होता तो में कुछ कहता और फिर।’’ महिला पत्रकार के उत्तर को इस तरह प्रस्तुत किया जाए कि ‘‘अच्छा मैं समझ गई’’ तो अगर यह शब्द जो एक को सप्लायर कह कर सम्बोधित किया गया तो क्या उस दूसरे व्यक्ति के लिए बड़े सम्मान की बात है, जिसके लिए वह वस्तु सप्लाई की गई। उसके दोनों पहलुओं पर विचार करना होगा। राजनीतिज्ञ अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए कितना गिरना चाहते हैं, वह उसका फ़ैसला बेशक स्वयं कर लें, परंतु जब कोई बात सार्वजनिक स्तर पर आकर कहें तो इस बात का ध्यान रखना होगा कि हमारे समाज पर इन बातों का क्या प्रभाव पड़ेगा। हमारी युवा पीढ़ी राजनीति और राजनीतिज्ञों को किस दृष्टि से देखेगी। मतलब क्या हम उन्हें यह समझाना चाहते हैं कि यह एक अत्यंत अभद्र क्षेत्र है और इसमें अच्छे लोगों के लिए कोई गंुजाइश नहीं है और वहां दो तरह के लोग पाए जाते हैं एक वह जो सप्लायर हैं और एक वह जिनके लिए आपत्तिजनक वस्तुएं सप्लाई की जाती हैं। क्या इसमें देश तथा समाज की कोई भलाई नज़र आती है? बेशक जवाब में धमकी दिए जाने के बाद कह दिया जाए कि टेबल, कुर्सी और माइक सप्लाई करने की बात थी, इसके लिए सप्लायर कहा गया था तो मोहतरम आपको यह अधिकार तो है कि आप स्वयं को अत्यंत बुद्धिमान समझें, परंतु ख़ुदा के लिए जनता को इतना मूर्ख भी न समझें कि वह आपके सप्लाई और सप्लायर जैसे द्विभाषी वाक्यों का मतलब न समझते हों।
अब दो बातें मोहतरम मुलायम सिंह यादव की सेवा में भी अर्ज़ कर देना आवश्यक है। आपका किससे क्या संबंध है? आप कब किसको पार्टी में लेते हैं और कब निकालते हैं, यह फ़ैसला करने का सम्पूर्ण अधिकार आपको है, परंतु जिसको मुसलमानों का चेहरा बनाकर पेश करना चाहते हैं, जिसके द्वारा मुसलमानों का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं, उनका वोट प्राप्त करना चाहते हैं तो इसके लिए ऐसा तरीक़ा न अपनाएं, जिससे पूरी क़ौम की छवि प्रभावित होती हो। हमने देखा है कि जिन मुस्लिम राजनीतिज्ञों को दबंग या साम्प्रदायिक भावनाओं केा भड़काने वाला चेहरा बनाकर पेश किया गया, उन्होंने थोड़े ही समय में प्रसिद्धि तो प्राप्त कर ली, वह प्रसिद्ध तो हो गए, परंतु उन्हें अधिक दिनों तक लोकप्रियता प्राप्त न हो सकी। अगर जनता के बीच उन्हें, उनकी शख़्सियत को स्वीकार कर लिया गया होता तो फिर यह क़ौम आज तक नेतृत्व से ख़ाली न होती। हमारे विचार में तो ऐसे लोगों का प्रयोग राजनीतिज्ञों ने अपनी राजनीति के लिए किया, जब तक उनके द्वारा मुसलमानों को प्रभावित किया जा सकता था, किया जाता रहा और जब उनकी आवश्यकता समाप्त हो गई तो उन्हें दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर फैंक दिया गया। आज़म ख़ां स्वयं इसका शिकार हो चुके हैं। आज उन्हें स्वयं यह स्पष्ट करना होगा कि वह अमर सिंह की वजह से निकाले गए या कल्याण सिंह की वजह से। आज जिस तरह वह पार्टी में वापस आने के बाद अमर सिंह के विरुद्ध बोल रहे हैं इससे तो यही लगता है कि उनकी नाराज़गी अमर सिंह से थी और उनको पार्टी से निकाले जाने का कारण अमर सिंह थे। हम तो यह समझे बैठे थे कि आज़म ख़ां कल्याण सिंह के पार्टी में आने से नाराज़ हैं। एक ऐसे व्यक्ति के साथ एक पार्टी में नहीं रहना चाहते, जो बाबरी मस्जिद की शहादत का अपराधी है। लेकिन पार्टी में वापसी के बाद से अब तक उन्होंने ने एक बार भी तो यह नहीं कहा कि उनकी तो पार्टी में उसी समय वापसी तय हो गई थी, जब कल्याण सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया था। उसके बाद बाक़ायदा पार्टी में शामिल होना तो केवल एक रस्म अदायगी थी। अच्छा लगता यह सुनकर कि उन्होंने मुसलमानों की भावनाओं का सम्मान करते हुए यह फ़ैसला लिया था और उन्हें इसी आधार पर पार्टी से अलग होना पड़ा लेकिन जब वह कल्याण सिंह की बजाए अमर सिंह को या फिर अमर सिंह की बात भी जाने दीजिए, जया प्रदा को निशाना बनाते हैं तो सोचना पड़ता है कि आख़िर मुसलमानों की जया प्रदा से क्या नाराज़गी है। मुसलमानों के आख़िर कौनसे इशूज़ के विरुद्ध जया प्रदा खड़ी नज़र आई हैं। वह कब कल्याण सिंह से भी अधिक आलोचना का निशाना बनने योग्य हो गईं? इससे तो यही समझ में आता है कि नाराज़गी का आधार रामपुर की एक सीट और अमर सिंह से निजी संबंध थे। अगर ऐसा है तो उनकी पार्टी से अलाहिदगी न मुसलमानों के लिए थी, न कल्याण सिंह की नाराज़गी के आधार पर थी और न पार्टी में वापसी कल्याण सिंह की अलाहिदगी के आधार पर है। जहां तक मैं अमर सिंह के ज़हन को समझता हूं, वह अत्यंत बुद्धिमान राजनीतिज्ञ हैं। हमें तो लगता है कि अमर सिंह ने आज़म ख़ां की पार्टी में वापसी को निष्क्रिय करने के लिए इस वाक्य युद्ध का स्वगत इसीलिए किया क्योंकि वह जिस प्रकार उबैदुल्ला ख़ां आज़मी को साथ लेकर मुसलमानों को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं और पूर्वांचल को एक पृथक राज्य बनाने का अभियान छेड़े हुए हैं, वह आज़म ख़ां की समाजवादी पार्टी में वापसी के बाद प्रभावित हो सकती थी, मुसलमान आज़म और आज़मी में से किसको चुनें यह सोचने लगते, लेकिन पार्टी में फिर से शामिल होने के बाद आज़म ख़ां केवल और केवल कल्याण सिंह के इशू पर बोलते और मुलायम सिंह के गले लग कर कहते कि आपने जिस दिन कल्याण सिंह को पार्टी से निकाला, समझ लीजिए उसी दिन मुझे ख़ुश-आमदीद कह दिया। हां रामपुर से लखनऊ तक की यात्रा पूरी करने में कुछ समय अवश्य लगा, परंतु दिल का दरवाज़ा तो उसी दिन खुल गया, जब आपके दरवाज़े से बाबरी मस्जिद के हत्यारे के क़दम बाहर निकले, तब बात कुछ और होती। लेकिन अब जबकि स्पष्टरूप से यह खुली जंग अमर सिंह और आज़म ख़ां के बीच मंज़रेआम पर आ गई है तो फिर अब क्या कहेंगे आज़म ख़ां, क्या वह अमर सिंह के कारण पार्टी से बाहर निकले थे या फिर कल्याण सिंह के कारण? अगर कल्याण सिंह के कारण निकले होते तो कारण मुसलमानों को बताया जा सकता था और अगर अमर सिंह के कारण निकले तो यह तो दो राजनीतिज्ञों के बीच की आपसी लड़ाई थी, इससे मुसलमानों को क्या लेना-देना। साथ ही अगर मुलायम सिंह गंभीरता से सोचें तो उन्हें समझ में आ जाएगा कि इससे उन्हें कितना बड़ा नुक्सान होने जा रहा है। मैं अमर सिंह द्वारा की जाने वाली बयानबाज़ी की चर्चा नहीं कर रहा हूं। मैं ध्यान इस बात की ओर दिलाना चाहता हूं कि अगर यही बात स्पष्ट हो गई कि आज़म ख़ां के अलग होने और वापसी का कारण कल्याण सिंह नहीं, अमर सिंह थे तो फिर वह मुसलमानों को प्रभावित करने के लिए आज़म ख़ां की वापसी के बारे में क्या कहेंगे? मेरे सामने इस समय आज़म ख़ां की वापसी के बाद के समाचारों की कटिंग हैं जिन्हें मैं आपसे और अपने पाठकों की सेवा में प्रस्तुत कर देना चाहता हूं, ताकि राजनीतिक युद्ध की वास्तविकता को समझा जा सके:
राजनीतिक लोग जेल जाने से नहीं डरते, लेकिन उद्योगपतियों के लिए जेल काफ़ी पीड़ादायक स्थान है, इसलिए अमर सिंह सोच समझ कर ज़्ाुबान खोलें तो बेहतर है। अमर सिंह बीमार हैं और वह अपना मान्सिक संतुलन खो चुके हैं। वह कार्यक्रमों में कुर्सी, टैंट से लेकर हेलीकाॅप्टर तक सप्लाई की चर्चा स्वयं कर चुके हैं, अब सप्लायर पुकारने में बुरा क्यों लग गया। जया प्रदा फ़िल्म अभिनेत्री हैं। रामपुर में घूंघट निकाल कर मरयम या ज़ुलेख़ां नहीं बन सकतीं। जया हां नाचजी अच्छा है, वह राजनीति में ना समझ हैं, इसलिए ख़ामोश रहे तो ही बेहतर है। अमर सिंह को सभी ने दलाल कहा, लेकिन हां हमने उन्हें दल्ला कहा।
(‘‘राष्ट्रीय सहारा’’(हिन्दी), ‘‘अमर उजाला’’, ‘‘हिन्दुस्तान’’, ‘‘नवभारत टाईम्स-06.12.2010)
देखा आपने है कोई वाक्य इसमें कल्याण सिंह के हवाले से। नहीं है ना, अब क्या कहेंगे आप? नाराज़गी किससे थी, कल्याण सिंह से या अमर सिंह और जया प्रदा से? हो सकता है अब हमारे याद दिलाने के बाद ज़बान पर कल्याण सिंह का नाम भी आजाए, मगर यह वापसी के तुरंत बाद ही होता तो कुछ और बात होती। जाने दीजिए यह तो सब राजनीतिज्ञों के सियासी अंदाज़ हैं, शायद हम भी नज़रअंदाज़ कर देते, मगर लिखना इसलिए पड़ा कि निःसन्देह यह राजनीति उनकी होती है, मगर शिकार तो हमारी क़ौम को ही होना पड़ता है।
फिर माफी चाहता हूं, कई दिन तक नहीं लिख सका, कारण मेरी किताब का प्रकाशन और उसका विमोचन, पूरे भारत में पहुंचाने का सिलसिला अभी बाक़ी है, इसलिए इस अवसर पर जनाब दिग्विजिय सिंह की तक़रीर का एक वाक्य आवश्य ऐसा है, जिस पर मुझे नए सिरे से लिखना होगा और मुसलसल लिखना होगा और वह है ‘‘शहीद-ए-वतन हेमंत करकरे की शहादत से केवल 3 घण्टे पहले उनकी टेलीफोन पर बातचीत और हेमंत करकरे का यह कहना कि वह अपने जीवन के मुश्किल दौर से गुज़र रहे हैं, उनके घरवालों को संघ परिवार की तरफ से धमकियां मिल रही हैं।’’ मुलाहिज़ा फरमाएं कल का लेख इसी विषय पर।
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