Wednesday, December 08, 2010

हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम, वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता

२६ नवम्बर २००८ को मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले की सच्चाई क्या है, इसे जानने के बारे में शायद केंद्रीय सरकार और विपक्षी दलों की कोई रुचि है ही नहीं, जो कुछ एक जीवित बचे आतंकवादी ने कह दिया शायद सभी ने उसे सत्य मान लिया है और उनका विशवास है की यह आतंकवादी जो कह रहा है सत्य कह रहा है और सत्य के अलावा कुछ नहीं कह रहा है। इस लिए अब अधिक जांच की आव्यशकता नहीं है।

क्यूंकि इस सम्बन्ध में हम २६ नवम्बर के बाद से लगातार लिख रहे हैं, जिसका सिलसिला अभी भी जारी है और अगली ५ जनवरी को अर्थात हेमंत करकरे की मृत्यु के ४० वें दिन १०० पृष्ठों पर सम्मिलित एक विशेष पत्रिका प्रकाशित करने जा रहे हैं, हाँ परन्तु आतंकवाद की जड़ तक पहुँचने का प्रयास हम आज भी करना चाहते हैं, इसलिए आज अपने पाठकों के सामने कुछ ऐसे भुलाए तथा अनदेखी कर दिए गए समाचार रखना चाहते हैं जिनका सम्बन्ध कहीं न कहीं आतंकवाद से भी हो सकता था परन्तु न तो इस सम्बन्ध में कोई जांच की गई और न ही मीडिया ने इन समाचारों पर कोई विशेष ध्यान दिया, इसका कारण क्या हो सकता है यह पाठक अच्छी तरह समझ सकते हैं। ऐसी घटनाएं अनगिनत हैं परन्तु हम उनमें से कुछ ही का वर्णन करना चाहते हैं, वह भी केवल ऐसी घटनाओं का जो अभी मस्तिष्क से मिट न पाये हों.

इसलिए बात आरम्भ करेंगे अप्रैल २००६ में हुए नांदेड बम धमाकों से, जहाँ बम बनाने के प्रयास में बजरंग दल के दो कार्यकर्ता मारे गए, घटना लगभग पौने तीन वर्ष पुरानी है, परन्तु प्रारम्भ इसका स्मरण कराने की आव्यशकता इसलिए महसूस हुई क्यूंकि फिर से इसकी जांच के आदेश जारी हो चुके हैं, मिस्टर रघुवंशी शहीद हेमंत करकरे के सही उत्तराधिकारी सिद्ध होते हैं और इसी प्रकार जांच कर पाते हैं जिस प्रकार वह कर रहे थे, यह कहना तो अभी कठिन है परन्तु इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता की घटनास्थल पर मस्जिदों के नक्शे, नकली दाढ़ी और टोपी मिले थे अर्थात इरादा था की बम बनाने के बाद यह लोग बम धमाके करेंगे और घटनास्थल का दृश्य कुछ इस प्रकार होगा की संदेह मुसलामानों पर जाए। इसके बाद ऐसा ही कानपूर में हुआ जहाँ २४ अगस्त २००८ को बजरंग दल के दो कार्यकर्ता इसी प्रकार बम बनने की कोशिश में मारे गए, दो तीन दिन तक तो समाचारपत्रों ने तो कुछ समाचार प्रकाशित किए परन्तु इसके बाद उन्हें भी इस बात की आव्यशकता महसूस नहीं हुई की पता लगाया जाए की यह बम क्यूँ बनाये जा रहे थे? इनका प्रयोग कहाँ होना था और बम बनाने के पीछे आतंकवाद के सिवा उनके उद्देश्य और क्या था? उसके बाद राजस्थान के भरतपुर जिले में पटाखों में आग लगने से ३० लोग मारे गए। स्पष्ट हो की ख़ास दीपावली के दिन उत्तराँचल के शहर ऋषिकेश में भी पटाखों के एक बाज़ार में आग लग गई थी, जिस में एक व्यक्ति की मृत्यु हुई, प्रशन यह पैदा होता है की क्या राजस्थान के इस एक घर में ऋषिकेश के पटाखा बाज़ार से भी अधिक गोला- बारूद मौजूद था? अगर हाँ तो क्या इस का कारण केवल पटाखे बनाने के लिए प्रयोग किया जाना ही था? या फिर नांदेड और कानपूर जैसे बम बनाने वालों के लिए यह घर एक गोदाम की तरह था, जहाँ ये वह आव्यशकता अनुसार विस्फोटक सामग्री मंगाते रहते थे और जब जिस प्रकार जहाँ चाहते, उसका प्रयोग करते रहते थे? इस दृष्टिकोण से वहां विस्फोटक सामग्री की मौजूदगी की जांच क्यूँ नहीं की गई? अगर हुई तो इसे सामने क्यूँ नहीं लाया गया? इसी प्रकार मध्यप्रदेश के एक शहर रीवा में गुलाब सिंह के घर पर ३२५ किलो अमोनियम नाइट्रेट बरामद हुआ, यह व्यक्ति भाग जाने में सफल हो गया, इसके बाद यह समाचार गायब हो गया, कोई वर्णन न तो पुलिस ने दिया और न ही मीडिया ने इस बात का कष्ट किया की पता लगाया जाए की आख़िर अमोनियम नाइट्रेट का इतना भंडार उसके पास मौजूद क्यूँ था?

केरल में इसी प्रकार की एक घटना में बजरंग दल के दो कार्यकर्ता बम बनाने के प्रयास में हताहत हुए तथा यदि बिल्कुल ताज़ा घटनाका उल्लेख करें तो कानपुर में सिलेंडर में हुए धमाका से एक मकान ध्वस्त हो गया और ७ लोग घायल हो गए। समाचार पत्रों ने यह समाचार भी दिया की केवल गैस सिलेंडर में धमाका ही नहीं हुआ बल्कि सिलेंडर के पास कमरे में बारूद भी रखा था, यदि बारूद में धमाका हो जाता तो आस पास के घर भी ध्वस्त हो सकते थे और अधिक संख्या में जान व माल की क्षति हो सकती थी. प्रशन यह पैदा होता है की घर में यह बारूद क्यूँ रखा था? इस पर कोई भी कुछ बताने के लिए तैयार नहीं। उस परिवार के लोगों का कहना था की बारूद नहीं था बल्कि पटाखे थे। यदि पटाखे ही थे तो वह इतनी बड़ी मात्रा में क्यूँ थे तथा कुछ ही देर में उन्हें गायब क्यूँ करदिया गया?

इस समाचार को भी मीडिया ने कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया और केवल एक गैस सिलेंडर के फट जाने से हुई दुर्घटना मानकर बात समाप्त कर दी गई। क्या बात केवल इतनी ही है यद्यापि घरों में बेमौसम पटाखों तथा गोला-बारूद की इस मात्र में मौजूदगी क्यूँ बढती जा रही है? क्या यह चिंताजनक नहीं है? क्या इस पर विचार नहीं किया जाना चाहिए की अचानक यह प्रवृत्ति इतनी क्यूँ बढती जा रही है की बस्तियों में रहनेवाले अपने घरों को बम बनाने की फक्ट्रियों में परिवर्तित कर रहे हैं, इस से वह ही नहीं आस पास के लोग भी खतरे का शिकार हो सकते हैं। क्यूँ इस बात की जांच नहीं की जाती के नांदेड, कानपूर, राजस्थान तथा मध्यप्रदेश के उपरोक्त घरों में इतनी बड़ी मात्रा में गोला-बारूद क्यूँ था? इस की जांच की आव्यशकता उस समय और बढ़ जाती है जब देश में जगह-जगह बम धमाके हो रहे हैं। इसे क्यूँ पूरी तरह असंभव मान लिया जाए की जिन घरों में बम बनाने की फक्ट्रियाँ चल रही थीं और जो लोग बम बनाने के प्रयास में मारे गए, उनका सम्बन्ध देश के विभिन्न स्थानों पर हुए बम धमाकों से भी हो सकता है। और क्या केवल इतने ही लोग इस प्रकार के कार्यों में लिप्त थे जो मारे गए या उनका बड़ा नेटवर्क था, उनका कार्य बम बनाना था, गोला बारूद प्राप्त करने वाले और लोग थे तथा इन बमों का प्रयोग करने वाले अन्य व्यक्ति अर्थात यह एक नेटवर्क था जो शायद मालेगाँव बम धमाकों जैसे आतंकवादी कार्य के लिए तैयार किया जा रहा था।

क्या कारण है की ऐसे सभी समाचारों को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया गया तथा पुलिस ने भी इन घटनाओं में इतनी रूचि नहीं ली की जनता के सामने असलियत आपाती? शहीद हेमंत करकरे येही कार्य कर रहे थे, दुर्भाग्य से उन की मृत्यु २६ नवम्बर को मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के दौरान हो गई। क्या ऐसा सोचना पूर्ण रूप से निराधार होगा की जिस सोच ने उपरोक्त सभी घटनाओं को दबाने का प्रयास किया, तथ्यों को सामने लाने में कोई रूचि प्रकट नहीं की, वैसे ही मानसिकता के लोग आज न तो देश पर शहीद हेमंत करकरे की मृत्यु की सच्चाई सामने आने देना चाहते हैं और न मुंबई में हुए आतंकवादी हमले का पूर्ण सत्य। उनके लिए तो बस इतना काफ़ी है की जो कुछ जीवित बचे एक आतंकवादी आमिर अजमल कासब ने कह दिया उसी को अन्तिम शब्द मान लिया जाए।


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