राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक बार फ़िर गलत कारणों से सुर्खियों में है.संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी इंद्रेश कुमार का नाम मालेगांव और अजमेर ब्लास्ट के आरोपियों के साथ जोड़ा जा रहा है. राजस्थान पुलिस के आतंकवाद निरोधक दस्ते की पड़ताल में इस बात का खुलासा हुआ है कि इंद्रेश ने आरोपियों की सभा को संबोधित किया. यानि एक तरह से हिंदू उग्रवाद को बढ़ावा दिया.
यह पहला मौका नहीं है जब संघ के पदाधिकारियों का नाम देश का कानून तोड़ने वालों के साथ जोड़ा जा रहा है. उड़ीसा में ईसाइयों पर हमला या गुजरात के दंगे जैसे कई उदाहरण हैं जो आरएसएस को कानून की अनदेखी करने वाले संस्थाओं की श्रेणी में खड़ा करती हैं.दरअसल इसके लिए जिम्मेदार है खुद आरएसएस की विचारधारा. 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस एक प्रतिबंधित संस्था हो गयी.
इसमें शक नहीं कि हत्या के आरोपियों में कुछ का संबंध पूर्व में संघ से था. लगभग 20 हजार से ज्यादा आरएसएस कार्यकर्ताओं को जेल में डाला गया. देश के गृह मंत्री के नाते सरदार पटेल ने आरएसएस पर कड़ाई की. संघ के मुखिया सरसंघचालक गोलवरकर से साफ़ तौर पर कहा कि संघ की गतिविधियां संदिग्ध हैं.
उन्होंने अंतत: गोलवरकर से कहा कि वे इस संस्था का संविधान सरकार को सौंप दें. गोलवरकर ने आरएसएस का एक संविधान दिया, जिसे पटेल ने संशोधित करने को कहा. जाहिर है, पटेल को संघ की नीयत पर शक था. अंत में जो ड्राफ्ट सरकार ने स्वीकार किया, उसमें यह लिखा गया कि संघ किसी भी तरह राजनीतिक उद्देश्यों के लिए कार्य नहीं करेगा. पटेल के दबाव में दिया गया यह संविधान सत्य से मीलों दूर था. असल में आरएसएस का ध्येय ही राजनीतिक था.
इसकी पुष्टि तब हुई, जब प्रतिबंध हटने के तुरंत बाद संघ ने अपनी राजनीतिक जमीन तलाशनी शुरू की. हिंदू महासभा के नेता और ओजस्वी वक्ता श्यामा प्रसाद मुखर्जी पर डोरे डालना शुरू किया. मुखर्जी शुरुआत में संघ को लेकर सशंकित थे. जाहिर है मुखर्जी का व्यक्तित्व बड़ा था. वे नेहरू के पहले कैबिनेट में मंत्री थे और संघ को ऐसे ही व्यक्ति की तलाश थी. अंतत: 1952 में मुखर्जी के नेतृत्व में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई.
पर मुखर्जी की असामयिक मृत्यु ने इस पार्टी को पूरी तरह संघ के हवाले कर दिया. जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी तक की यात्रा में इस दल ने आरएसएस की एक राजनीतिक संस्था की भूमिका निभायी.इस इतिहास को दोहराने का आशय सिर्फ़ इतना बताना है कि आरएसएस का उद्देश्य मूलत: राजनीतिक है. देश निर्माण व चरित्र निर्माण का दावा इस गंतव्य तक पहुंचने का माध्यम.
हकीकत में संघ के पूरे दर्शन और कार्यक्रमों का उद्देश्य हिंदू राष्ट्र की स्थापना है. उनके हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना में अल्पसंख्यकों की जगह एक भीरू समुदाय की है न कि बराबरी के दर्जे वाली सामाजिक इकाई की. दिलचस्प यह है कि संघ इस उद्देश्य को लेकर सीधी राजनीति से बचता है. वजह साफ़ है. राजनीतिक गतिविधियों में सीधे आने का मतलब है जनता के प्रति जवाबदेही और पारदर्शिता.
इन दोनों से संघ को खास परहेज है.शुरुआत से संघ की प्रयोगशाला में कार्यकर्ताओं को जो घुट्टी पिलायी जाती है उसका मूल मंत्र होता है अल्पसंख्यक विरोध. एक आदर्श हिंदू राष्ट्र के सपने की परिकल्पना. पुरातन हिंदू गौरव की मनगढंत गाथायें. इस कहानी का कहीं न कहीं सार यह होता है कि वैभवशाली हिंदू राष्ट्र के पराभव का कारण ही मुसलमान और इसाई हैं. भावनाओं के इस काकटेल ने नौजवानों के एक बड़े तबके को लुभाया. उन्हें जीने का मकसद दिया. यह मकसद कमोबेश उसी तरह का है जिस तरह कोई भी कट्टरवादी उग्रपंथ बढ़ता है. संघ समर्थक इसे ’प्रखर राष्ट्रवाद’ की संज्ञा देते हैं.
पर हकीकत में यह दर्शन एक ऐसे रास्ते पर खड़ा होता है जहां कानून की मर्यादाएं लगभग खत्म हो जाती है. यही वजह है कि आरएसएस बाबरी मसजिद के विध्वंस और गुजरात दंगों पर शर्मिदा नहीं है. सच तो यह है कि संघ ने 1984 के सिख विरोधी दंगों पर भी रहस्यमयी चुप्पी साधी. वजह साफ़ है. ऐसे किसी भी प्रकटीकरण से, जो हिंदू आक्रामकता को दिखाता है, आरएसएस को परहेज नहीं है. संघ की नजर में हिंदू राष्ट्र में हिंदू आक्रामकता शौर्य और पराक्रम का प्रतीक है.
यही वजह है कि प्रवीण तोगड़िया, साध्वी तंभरा जैसे लोगों के भड़काऊ बयान संघ की सांस्कृतिक जागरण का हिस्सा बन जाते हैं. यानि नैतिक रूप से आरएसएस समर्थन देता है उन विचारों को, जो कानून की परिधि से बाहर है. पर खुले रूप में वो इसका समर्थन नहीं करता. इस अंतर्द्वद्व का मुख्य कारण है संघ की भ्रामक विचारधारा. जाहिर है संघ का गंतव्य राजनीतिक है पर आवरण एक ऐसी संस्था का, जिसका काम राष्ट्र निर्माण, समाज निर्माण व चरित्र निर्माण है.
जैसे ही संघ के इस छद्म भेष का पर्दाफ़ाश होने का खतरा होता है, आरएसएस का वरिष्ठ नेतृत्व दूरी बना लेता है. लगभग यही हो रहा है इंद्रेश के विवाद में. मुंबई और राजस्थान के आतंक विरोधी दस्तों की जांच में यह पता चला है कि संघ के वरिष्ठ नेता इंद्रेश को मालेगांव के आरोपियों के मंसूबों का न सिर्फ़ पता था, बल्कि उन्होंने नैतिक समर्थन भी दिया.
यह खबर आते ही संघ बचाव की मुद्रा में खड़ा हो गया. राष्ट्रवादी संस्था होने की दुहाई देने लगा. इंद्रेश को अपना बचाव खुद करना पड़ रहा है. अगर इंद्रेश के खिलाफ़ पुख्ता सुबूत मिल गये तो संघ इस बात से भी गुरेज करेगा कि इंद्रेश के व्यक्तित्व का निर्माण संघ की शाखा और सभाओं में हुआ है.
हकीकत तो यह है कि संघ की इसी विचारधारा में कई ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है, जिसका उदाहरण कंधमाल, गुजरात और कानपुर के दंगों में देखने को मिलता है. दिलचस्प तो यह है कि भावनाओं के उबाल में इन स्वयंसेवकों को इस बात का पता भी नहीं होता कि उनका इस्तेमाल राजनीतिक उद्देश्यों के लिये किया जा रहा है. संघ के स्वयंसेवकों की इस दुर्दशा का अंदेशा हिंदुत्व दर्शन के प्रणेता वीर सावरकर को पहले से था.
उन्होंने स्वयंसेवकों के बारे में कहा था कि आरएसएस का कार्यकर्ता अपने जीवनकाल में स्वतंत्र आत्मनिर्णय लेने लायक नहीं होगा. निश्चित तौर पर आरएसएस का प्रखर राष्ट्रवाद एक छद्म बुनियाद पर खड़ा दिखता है.इन बातों का मतलब यह कतई नहीं है कि आरएसएस संस्थागत रूप से कानून के दायरे में विश्वास नहीं करती है. सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिये समाज व देश को मजबूत बनाने के प्रयास में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है.
पर मुश्किल तब होती है जब सांस्कृतिक जागरण की आड़ में ऐसे प्रयास किये जाते हैं जिससे संविधान की सत्ता को चुनौती मिलती है. इंद्रेश कुमार की समग्र तौर पर संदिग्ध गतिविधियों में क्या भूमिका थी, इसका निर्णय जांच एजेंसी अथवा कोर्ट करेगा. लेकिन इतना तय है कि इस प्रकरण ने संघ की उस छवि को पुख्ता किया जो अतिवाद की सीमा है.
इसकी मुख्य वजह है संघ की विचारधारा की अस्पष्टता. आज की हकीकत यह है कि संघ का नेतृत्व ज्यादा समय भाजपा की राजनीति को संभालने में लगाता है. सामाजिक व सांस्कृतिक पुनर्जागरण के कार्यक्रम महज मुखौटा से बन गये हैं. संघ नेतृत्व इस हकीकत से जितनी जल्दी उबरकर अपनी सही भूमिका में आये, उतना बेहतर होगा.
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