आजकल मुसलमान मुलायम सिंह यादव से नाराज चल रहा है इससे पूर्व वह कांग्रेस से नाराज होकर मुलायम सिंह के पास सिमट गया था । बहुजन समाज पार्टी की ओर अब उसकी दोस्ती की पींगे बढती नजर आ रही है । कुल मिलकर मुसलमानों ने अपने राजनैतिक फैसले भावुक होकर करने की अपनी नादानी से अपने को आज उस मुकाम पर ला कर खड़ा किया है की उसके ऊपर किसी राजनैतिक दल को विश्वाश नही रह गया है और यदि यूं कहा जाए तो बेवजह न होगा की बार-बार पाला बदलने से मुसलमान ने अपनी राजनितिक पॉवर को खोखला कर डाला है ।
देश की आज़ादी के बाद विभाजन के इल्जाम का दंश झेलते रहे मुसलमानों सदैव अपने आत्मविश्वाश को पाने की ज़द्दोज़हद करते रहे सांप्रदायिक शक्तियों ने उनकी देश भक्ति पर सदैव शक की नजर रखी और उन्हें पाकिस्तान की नार्मगोषा रखने वाली भारतीय कौम की संज्ञा दी । देश के विभाजन के बाद फूटे सांप्रदायिक दंगो ने न केवल उसकी संपत्ति का नुकसान किया बल्कि उसके आत्मसम्मान पर भी गहरा अघात पहुचाया पाकिस्तान ने अपना सब कुछ लुटाकर आने वाले हिन्दुओ को तो देश में सर आँखों पर बिठाया गया परन्तु भारत से पलायन की गलती करने वाले मुसलमानों को पाकिस्तान के लोगो ने कभी भी अपने दिल में सम्मान जनक स्थान नही दिया।
इस प्रकार की मानसिक स्तिथियों से जूझते मुसलमानों को सहारा उस वक़्त कांग्रेस के वरिष्ट मुस्लिम नेता मौलाना अब्दुल कलाम आजाद से मिला उन्होंने उनके जख्मो पर मरहम रखा । उन्ही के कारण मुसलमान कांग्रेस के खेमे में सत्तर के दशक के अंत तक रहा परन्तु कांग्रेस का दामन उसने आपातकाल में नसबंदी के नाम पर हुई ज्यादतियों के खिलाफ रुष्ट होकर झटक दिया और उस जनता पार्टी में शामिल हो गए जिसमे लाल कृष्ण अडवाणी, अटल बिहारी बाजपेयी के साथ सोसलिस्ट मधुलिमये , मधुदंङवते थे तो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और कई क्षेत्रिय पार्टिया भी उसमें सम्मिलित थी।
परन्तु जनता पार्टी से उसकी दोस्ती अधिक दिन नही चली और वह वापस कांग्रेस में लौटा तो मगर अपनी साख व विश्वसनीयता को खोकर ।
वास्तव में मुसलमानों को कांग्रेस ने नाराज करने में मुस्लिम राजनितिक लीङरों से अधिक उनके धार्मिक नेताओं का हाथ था क्योंकि मुस्लमान हमेशा से अपने राजनैतिक फैसले धार्मिक भावनाओ से ओत-प्रोत होकर करने का आदि रहा । इसी का लाभ उठाते हुए उसके विरोधी उसी के अपने भाइयो को खरीदकर उसे बरगलाकर उसके वोट बैंक को हमेशा विभाजित करते रहे। कांग्रेस से मुस्लिम नाराजगी को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में जहाँ एक ओर दिल्ली जमा मस्जिद का इमाम मौलाना अब्दुल्ला बुखारी पेशो- पेश रहे जो कांग्रेस का उस समय का युवराज संजय गाँधी के सताए हुए थे तो वही दूसरी और रायबरेली की एक अहम् शख्सियत व नदवा के मौलाना अबुल हसन अली नदवी उर्फ़ अली मियाँ भी इंदिरा गाँधी हुकूमत के तौर तरीको से खिन्न थे। मौलाना अब्दुल बुखारी को तो व्यक्तिगत नुकसान संजय गाँधी ने दिल्ली के तुर्कमान गेट इलाके और जमा मस्जिद के आस पास के इलाको में अतिक्रमण हटाने की कार्यवाही के रूप में बुलडोज़र चला कर किया था क्योंकि इन दुकानों को संरक्षण व उनकी तहबाजारी मौलाना बुखारी ही वसूलते थे। मगर मौलाना अली मियाँ की नाराजगी का कारण कभी खुल न सका । मौलाना अली मियाँ ने वर्ष 1980 के लोकसभा चुनाव में खुलेआम R.S.S की प्रवक्ता रही और जनता पार्टी के टिकट पर इन्द्र गाँधी के विरुद्ध चुनाव लड़ रही राजमाता विजया राजे सिंधिया के समर्थन का ऐलान किया । यह बात और है कि अपने इस धार्मिक विद्वान की बात को नकारते हुए मुसलमानों ने इंदिरा गाँधी के पक्ष में मतदान किया ,परन्तु उनकी गिनती कांग्रेस खेमे में नही की गई ,यानि चिडिया ,अपनी जान से गई और खाने वाले को मजा भी न मिला।
परिणामस्वरूप तेजी से उभर रहे नेता वीर बहादुर सिंह और अरुण नेहरू ने इंदिरा गाँधी को यह समझाने में सफलता हासिल कर ली की मुसलमानों का वोट उनके पक्ष में न होने के बावजूद केवल हिंदू मतदाताओं के बल पर उन्हें सफलता मिली है।
इससे पूर्व कांग्रेस की जीत में मुस्लिम मतदाताओं की गिनती की जाती थी । मुस्लिम कार्ड के स्थान पर हिंदू कार्ड खेलने की रणनीति ,यही से बनी और फिर वर्ष 1984 में वर्षों से तालाबंद पड़ी बाबरी मस्जिद का ताला तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह व प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के कार्यकाल में फैजाबाद जिला ज़ज़ के आदेश से खोल दिया गया। उसके बाद सांप्रदायिक शक्तियों का उदय और कांग्रेस के पतन का प्रारम्भ हुआ। यदि यूं कहा जाए तो उचित रहेगा की मुसलमानों से काग्रेसी लीडरशिप को नाराज करने के षड़यंत्र में जहाँ एक और अहम् भूमिका भीतर संघी सोच के हिंदूकाग्रेसी ने निभाई तो वहीं मुस्लिम धार्मिक नेताओं ने अपनी बयानबाजी से मुसलमानों का बहुत नुकसान किया।पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की 31 अक्टूबर 1984 में उन्ही के सुरक्षा गार्ङो के हत्या करने के पश्चात् उनके पायलट बेटे राजीव गाँधी को नेहरू परिवार की राजनीति विरासत की डोर थामनी पड़ी राजीव गाँधी की अनुभवहीनता का लाभ उठाकर अयोध्या में बाबरी मस्जिद राम जन्म भूमि विवादित परिसर में कांग्रेस में मौजूद संघ के लोगो ने यह कहकर शीलन्यास करा दिया कि इससे भाजपा कमजोर होगी । 1991 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का चुनावी अभियान राम की नगरी अयोध्या से प्रारम्भ कर के हिंदू मतदाताओं को यह संदेश देने की कोशिश की गई की हिंदू कार्ड खेलने में कांग्रेस भाजपा से पीछे नही है । चुनाव में तो कांग्रेस को जीत मिली परन्तु उत्तर प्रदेश व बिहार में वह कमजोर हो गई और इसके विपरीत भाजपा को हिंदुत्व का टॉनिक मिल गया और उसने मन्दिर आन्दोलन और तेज किया । फिर राम मन्दिर का ज्वर पूरे देश पर ऐसा चढा की लाल कृष्ण अडवाणी ने सोमनाथ से यात्रा निकालकर पूरे देश में साम्प्रदायिकता का विष घोल डाला । उधर कांग्रेस से मुसलमानों की नाराजगी बढती गई और शाह बानो केस के निर्णय ने जो सुप्रीम कोर्ट से हुआ आग में घी का काम कर गया । पूरा मुस्लिम समुदाय उठ खड़ा हुआ और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का गठन कर किया अली मियाँ ने आन्दोलन की कमान संभाली । राजीव गाँधी को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने लोकसभा में बिल पेश कर के मुसलमानों के गुस्से को थोड़ा शांत किया और मुसलमानों का विश्वाश कांग्रेस में लौट रहा था 1991 के आम लोकसभा चुनाव के बीच ही जब ऐसा लग रहा था की राजीव गाँधी की अपार बहुमत से सरकार बन जायेगी तो उनकी हत्या कर दी गई और देश कांग्रेस की कमान नरसिम्हा राव के हाथो में आ गई । जिन्होंने बाबरी मस्जिद की ईंट से ईंट बजा कर उसे जड़ से समाप्त कर दिया और उस पर अस्थायी मन्दिर का निर्माण कराने के बाद विवादित परिसर के अधिग्रहण एवं उसकी सुरक्षा की व्यवस्था सुद्रढ़ कर के ही दम लिया ।
इस घटना ने देश के मुसलमानों को तोड़ कर रख दिया उनके अस्तित्व का सावल उठ खड़ा हुआ बल्कि यूं कहा जाए तो बेजा न होगा की बाबरी मस्जिद ध्वस्तिकरण कांड ने वास्तव में देश को दो कौमों हिंदू व मुसलमान के बीच बाँट दिया जो काम विभाजन न कर सका था वह नरसिम्हा राव ने भाजपा के साथ मिलकर दिखा दिया। संकट की इस घड़ी में केवल मुलायम सिंह का हाथ आगे बढ़ा और उन्होंने आतंकित मुसलमानों को सहारा दिया वरना बाबरी मस्जिद आन्दोलन में आगे-आगे चलने वाले और आदम सेना बनाकर उसकी रक्षा करने वाले सब बिल में दुबक के बैठे रहे।
जिस वक्त देश भर में 6 दिसम्बर 1992 की रात्रि शौर्य दिवस मनाया जा रहा था और शंखनाद हो रहा था मुसलमानों की अग्रिम पंक्ति कर सियासी नेता व धार्मिक लीडरों का कही पता नही था।
मुलायम सिंह को मुसलमानों ने अपना मसीहा मानकर कांग्रेस से अपना दामन झटक लिया नतीजे में कांग्रेस कमजोर होते ही केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार का गठन एक नही तीन -तीन बार हुआ । मुस्लिम धार्मिक नेताओं ने तब अटल बिहारी बाजपेई के कसीदे पढने शुरु कर दिए । इससे पूर्व यही लोग नरसिम्हा राव के सर पर कभी लाल, कभी नीली, कभी हरी बांधा करते थे।
मुलायम सिंह मुस्लिम बहुमत को पाकर और दलित लीडर कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी को साथ लेकर सांप्रदायिक शक्तियों से सीधी टक्कर लेने निकल पड़े परन्तु उनकी बहुजन समाज पार्टी के साथ दोस्ती अधिक दिन नही चली । काशीराम का दाहिना हाथ मायावती नाम का एक गुमनाम राजनीतिक चेहरा अचानक उत्तर प्रदेश की राजनीतिक पटल पर उभर कर सामने आया । मायावती की महात्वाकांक्षाओं की उड़ान में पर लगते हुए सांप्रदायिक शक्तियों ने मुलायम व माया के बीच कडुवाहट घोलनी शुरू कर दी जिसका नतीजा गेस्ट हाउस कांड के रूप में सामने आया और मुलायम सिंह की काशीराम व मायावती कर साथ दोस्ती हमेशा कर लिए रंजिश में बदल गई । यह पहली कामयाबी मिली सांप्रदायिक शक्तियों को जब उन्होंने न केवल मुस्लिम ,पिछडा दलित गठजोड़ को टुकड़े टुकड़े कर दिया बल्कि मुस्लिम वोट बैंक को भी विभाजित करने की दाग बेल डाल दी। तदोपरांत मायावती ने चंद मुस्लिम लीडरों को साथ लेकर सपा के मुस्लिम वोट बैंक पर डोरे डालने शुरू किए परन्तु उन्हें कामयाबी न मिल सकी ।
मायावती ने भाजपा के साथ तीन बार राजनीतिक विवाह किया और हर बार समय पूरा होने से पूर्व तलाक़ हो गई।
उधर कांग्रेस नरसिम्हा राव को हाशिये पर डालने के बावजूद मुसलमानों की नाराजगी को दूर न कर सकी और मुस्लिम कांग्रेस को अछूत मानकर हमेशा उससे दूर ही रहा । मायावती कल्याण सिंह विवाद फिर मायावती कलराज मिश्र विवाद व मायावती राजनाथ सिंह विवाद के बीच मायावती की राजनैतिक किश्ती आगे तो नही बढ़ सकी परन्तु भाजपा के सहारे उनकी वर्ष 2002 की सरकार में सवर्णों को उत्पीङितकर कर भाजपा से उन्हें दूर करने में विशेष भूमिका अदा की।
उधर मुलायम सिंह ने राज्य मे मुख्यमंत्री के तौर पर और केन्द्र में रक्षामंत्री के तौर पर सत्तासीन होने के बाद अपनी सौगातों का पिटारा केवल यादवो के लिए ही खोला । इस बात का लाभ उठाकर सपा विरोधी पार्टियों ने मुसलमानों को मुलायम विरुद्ध शनेः शनेः बरगलाना शुरू किय नतीजे में मुसलमानों कर भीतर मुलायम के विरुद्ध नाराजगी में इजाफा होता चला गया और मुसलमान एक बार फिर वही गलती दोहराने लगे,अर्थात मुलायम में भी उसी प्रकार कीडा नजर आने लगे जैसे की कांग्रेस में उन्हें मिलते थे। वास्तव में सांप्रदायिक शक्तियों का पहला लक्ष्य मुसलमानों की वोट पॉवर को छिन्न भिन्न करना था वह नही चाहती थी की मुस्लिम एक राजनितिक छतरी के नीचे रहे । उनके इस कार्य में उन्हें भरपूर सहायता उन्ही के सोच से उपजा साम्राज्यवाद का पौधा अमर सिंह नाम के एक राजनेता ने दी। अमर सिंह ने मुलायम सिंह के समाजवादी चरित्र को एकदम धोकर रख दिया और मुलायम के ऊपर अमर प्रेम का ऐसा नशा चढा की समाजवाद व मुस्लिम प्रेम अमर सिंह के ग्लामौर की चकाचौंध में फीका पड़ता चला गया । उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव में काफी संख्या में मुस्लमान मायावती की पार्टी बहुजन के पक्ष में अपना वोट देकर उन्हें स्पष्ट बहुमत से नवाजा परन्तु फिर वाही कहानी?उनकी गिनती कम और पंडितो की अधिक आज कल्याण सिंह के साथ मुलायम सिंह की दोस्ती ने उन्हें कही का नही छोडा है साम्प्रदयिक शक्तियों व मौका परस्तो की तो किस्मत खुल गई है। मीडिया में भी कल्याण मुलायम दोस्ती और उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप मुस्लिम नाराजगी को खूब बढ़ा चढा व चटखारे लगा के पेश किया जा रहा है उन्हें अब कल्याण सिंह को बाबरी मस्जिद गिरवाने का दोषी और आजम खान को मुस्लिम हीरो बताने में कोई हर्ज नही दिखलाई दे रहा है।वरना यही मीडिया जब कल्याण सिंह भाजपा के वफादार थे तो उनके कसीदे पढ़ा करती थी और आजम खा को सर फ्हिरा कट्टरपंथी मुस्लिम लीडर मन करती थी। उधर वह मुस्लिम धर्मावलम्बी जो पहले मुलायम चलीसा पढ़ा करते थे आज मायावती के दरबार की रौनक बनकर नंगे पैर खड़े नजर आते है। मुलायम सिंह पर सांप्रदायिक शक्तियों के साथ हाथ मिलाने का आरोप लगते वक्त उलेमा व कथित मुस्लिम लीडर मायावती का मोदी प्रेम कितनी आसानी से भूल जाते है । कल्याण सिंह व नरसिम्हा राव को यदि बाबरी मस्जिद का ध्वस्तीकरण का जिम्मेदार कहा जा सकता है तो ढाई हजार मुसलमानों का नरसंहार व उनकी करोडो की संपत्तियों को बर्बाद करने वाले भगवा हिंदुत्व के अग्रीणी लीडर नरेंद्र मोदी के हक में प्रचार करने वाली मायावती को सांप्रदायिक शक्तियों का समर्थक क्यों नही कहा जा सकता जो तीन बार केन्द्र में राजग सरकार से हाथ मिला चुकी है ।
वास्तव में मुसलमानों की दुर्दशा के असल जिम्मेदार तीन लोग है एक मुसलमान स्वयं जो सियासत के मैदान में जहाँ उन्हें भावनाओ के स्थान पर अपने दिमाग का इस्तेमाल करना चाहिए तह वह भावनाओ में बहकर कभी माया में अपना मसीहा ढूंढते है तो कभी मुलायम में दूसरे वह कथित मुस्लिम लीडर जो अपना स्वार्थ साधने के लिए उनके वोटो का सौदा गुप्त रूप से करतें है
तीसरे उनके धार्मिक विद्वान् जो मस्जिदों के अहातों,मजारो की खानकाहों और मदरसों की मसनद से निकलकर अपने फतवे जारी करके मुसलमानों को उनके गडे मुर्दे याद दिलाकर उनके दिमाग पर धार्मिक भावनाओ की अफीम का नशा चढा देते है। इन सब के बीच मुस्लमान अपने रोजी- रोटी ,नौकरियों व विकास के मुद्दों को ताक पर रखकर केवल अपनी सुरक्षा की नकारात्मक भावना से ओत -प्रोत होकर तितर -बितर हो जाता है। और इस पूरी साजिश के पीछे साम्राज्यवादी,सांप्रदायिक एवं फासिज़्म की सोंच वाली शक्तियों का हाथ रहता है जिसका रिमोट विदेश में बैठे उनके आकाओ के पास है वही से उन्हें दिशा - निर्देश व आर्थिक सहायता मिलती है और नियंत्रित भी किया जाता है।
जब तक मुसलमान अपने मतभेद मिटाकर अपने भीतर मिल्ली एकता पैदा नही करेंगे और उनके सियासी लीडरों में पहले अपने अन्दर इस्लामी व्यक्तित्व बाद में सियासी व्यक्तित्व की भावना नही पैदा होगी तब तक राजनेता मंडी का माल समझ कर उन्हें खरीदते व बेचते रहेंगे । मुसलमानों के सामने अनेक उदाहरण देश में उन्ही के अपने अल्पसंख्यक भाइयो ,सिख ,ईसाई , यहूदी , जैन व पारशी लोगो के है जो अपनी धार्मिक पहचान पर गर्व करते है परन्तु आज मुसलमान अपनी तहजीब अपना इस्लामी किरदार अपनी जुबान सबसे दूर हो चला है उसके अन्दर से आकिबत का खौफ निकल गया है या इस पर उसका ईमान ढुलमुल हो चला है तभी तो उसके अन्दर शोक दुनिया हावी हो गई है और खौफे खुदा कमजोर। अंतर्राष्ट्रीय सतह से लेकर देश को मुसलमानों में ऐसोआरम की प्रवृत्ति ने उन्हें मज़ाहिद के स्थान पर अय्याश व एशपरस्त बना दिया है उनकी इसी कमजोरी का लाभ कभी बुश उठाता है तो कभी मुलायम तो कभी मायावती तो कभी सोनिया गाँधी और यहाँ तक मोसाद भी। मुसलमान अपने शानदार अतीत में इतिहास का अध्ययन करके झांक कर जरा देखे तो जब इज्जत दौलत हुकूमत सभी उनके पास थी क्योंकि वह धर्म के सच्चे अनुयाई थे और वह ईसाई और यहूदी जिन का समाज अन्ध्विश्वशो व धार्मिक कट्टरता के कारण बर्बाद हो गया इस्लामी हुक्मरानों को संपर्क में आने को बाद उन्होंने अपनी दुनिया ही बदल डाली । अफसोस की हमारी विरासत उनके पास चली गई और गिलाजत हमारे पास ॥
-तारिक खान
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