Friday, December 17, 2010

आतंकवाद से रक्षा बनाम सम्प्रदायिक राजनीति

हमारे देश हिंदुस्तान का नाम 1947 में एक बड़े सपने के साथ हुआ था, उस सपने के साथ जो हमारे संविधान में निहित है। यह सपना था एक ऐसे देश का जहाँ हर कोई व्यक्ति या वर्ग किसी दूसरे व्यक्ति या वर्ग की मिलकियत में जीने को मजबूर न हो। हमारे देश की खासियत है धर्मों, जीवनशैलियों और विश्वासों की विविधता और आपसी मेल-जोल व सहनशीलता । ऐसा नही है की हमारे यहाँ कभी विभिन्न जातियों या धर्मो के लोगो में टकराव न हुए हो लेकिन जीत हमेशा उन्ही की हुई है जो अपने से फर्क लोगो को इज्जत करते हुए आपसी मुहब्बत के साथ जीने की हिमायत करते रहे।

आज़ादी के बाद के हिन्दोस्तान में जहाँ पूरा देश अशिक्षा, गरीबी, अन्धविश्वाश और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझ रहा था, वहीं कुछ आम आवाम की इन तकलीफों से बेखबर उन्हें जात या धर्म के आधार पर लड़ने की फिराक में थे । गाँधी जी के हत्यारे सरहदों के बटवारे के बाद जनता के दिलो के बटवारे में तन मन धन से लगे रहे । गरीबी गैर बराबरी और भूख से जूझती जनता को एकजुट होकर इन समस्याओं से निपटने देने की बजाय इन लोगो ने लगातार उनकी जातीय और धार्मिक पहचानो को तीखा करने और उनके दिलो में दूसरी जात या धर्म के लोगो के लिए तरह-तरह से नफरत पैदा करने का काम किया । इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश करना, झूठे इतिहास की रचना करना हिंसक जातीय धार्मिक गौरव को बच्चो के दिलो में जगाना और साझी, विरासत को पूरी तरह नकारना इन लोगो की कार्यशैली के हिस्से रहे है । सभी धर्मो और जातियों में ऐसे स्वयंभू नेता तेजी से उभर कर आए जिन्होंने आवाम की आम जिंदगी के कठिनाईओं को दरकिनार करके उनकी जातीय धार्मिक असमिताओं को हिंसक रूप से पैना किया और उनके दिलो में यह जहर भरा किया उनकी सभी मुसीबतो की जड़ उनसे फर्क जाती धर्म के लोग है । कोशिश यह की धार्मिक उन्माद सभी दूसरी चिन्ताओ को पीछे छोड़ दे और जनता भूख गरीबी जैसी समस्याओं से एकजुट ताकत से न लड़ सके । सत्ता की कुर्सी पर पहुचने और वहां टिके रहने के लिए भी जनता को विभाजित रखना और उन्हें धार्मिक जातीय टकराव में उलझाया जाना जरूरी था वरना जनता यह सवाल पूछना नही भूलती की भूख अशिक्षा गरीबी बीमारी और हिंसा जिनसे सभी जातियों और धर्मो के लोग परेशान है से निपटने के लिए सत्ता पर बैठे लोगो ने क्या किया सत्ता पे काबिज होने की इस जनविरोधी आपा-धापी के साथ धार्मिक नेताओं की सांठ-गांठ ने जनता की समझ और संघर्ष को कमजोर बनाने का काम तो किया ही साथ ही उन धार्मिक बहुसंख्यावादी संगठनो को भी मजबूत किया जो एक लंबे अर्से से हिन्दोस्तान को हिंदू राष्ट्र के रूप में देखना चाह रहे थे और किसी भी दूसरे धर्म को इस देश में जिन्दा रखने की उनकी सरत थी या तो उसका हिन्दुकरण या फिर हिंदू धर्म की आधीनता इस अर्थ में वह मुस्लिम विरोधी होते हुए भी इस्लामिक देशो को आदर्श मानकर उनका अनुकरण करते रहे अल्पसंख्यको के तथाकथित नेताओं की आत्मकेंद्रित और धर्मकेंद्रित राजनीति ने बहुसंख्यकवादी राजनीति को चुनौती देने के बजाय वास्तव में मदद ही दी की राजनीति में तेजी से बढती द्दृष्टिविहिनता, विवेकहीनता, अपराधीकरण में संवैधानिक मूल्यों के प्रति राज्य की जिम्मेदारी को इतना कमजोर किया की इन मूल्यों के सीधे और मुखर उल्लंघन को भी राज्य ने नियंत्रित नही किया आम जनता के लगातार टूटते भरोसे और सुकून के बीच तमाम वो ताकतें जनता का हितैषी होने का चालिया रूप रखकर सक्रिय हुई जो पहले से ही संविधान विरोधी मूल्यों के लिए काम कर रही थी, जैसे हिंदू राष्ट्रवाद का सपना देखने वाले संगठन।

यह एक लम्बी कहानी है की राज्य की लगातार बढती जन उपेक्षा धर्मकेंद्रित नेतागिरी के बीच पिसती जनता किस तरह ख़ुद भी अपनी मूलभूत समस्याओं के लिए लड़ने का संकल्प तोड़ती रही और किस तरह वह धार्मिक उन्माद की शिकार होने के बावजूद धार्मिक उन्माद की गिरफ्त में ज्यादा मजबूती के साथ आती रही। यह भी लम्बी विवेचना का विषय है की धर्मनिरपेक्षता किस प्रकार सरकारी स्तर पर एक नारा मात्र रह गया है और किस तरह सार्वजनिक धर्मनिरपेक्ष संस्थाएं और कार्यालय अपने परिसर में मंदिरों और महंतो की स्थापना करा कर देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र का मखौल उडाते रहे। इन संस्थाओं में सिर्फ़ सरकारी कार्यालय ही नही न्यायपालिकाएं भी शामिल रहे। जनता के स्तर पर धर्मनिरपेक्षता क्यों जड़े नही जमासकी, धर्मनिरपेक्षता तथा सर्वधर्म समभाव क्यों एक आन्दोलन नही बन पाए, धार्मिक कट्टरता तथापारस्परिक दुर्भाव फैलाने वाले संगठनों के हिमायती किस तरह न्यायपालिका और सरकारी संस्थाओं सेलेकर विभिन्न पार्टियों और मीडिया में भरे गए, इन सब सवालों के जवाब पाने के लिए ज्यादा बड़े फ़लक पर बात करना जरूरी नही होगा जो इस लेख में सम्भव नही है । अभी यह कहना काफी होगा की धर्म के नाम पर नफरत फैलाने वाले संगठन विशेष रूप से हिन्दुत्ववादी संगठन जो काम पॉँच या छः द्शकों में नही कर पाए वह पिछले डेढ़ दो दशको में उन्होंने कर दिखाया। बढती आर्थिक विषमता के समनांतर जनता के दिलों पर बहुत हावी होने में सफ़ल हो पाए।

सभी स्तरों पर अपनी घुसपैठ बना लेने की सफलता और ज़मशेदपुर, अयोध्या, नैनी, हाशिमपुरा ,सूरत और कंधमाल से लेकर गुजरात तक के खूनी और शर्मनाक उपद्रवों में बिना किसी सजा के छूट जाने की कामयाब साजिशों से हिंदू राष्ट्रवादियों के हौसले चौगुना बुलंद हुए और अल्पसंख्यको में बेगाना और अशुरक्षित होने का खौफ बढ़ा। दोनों के ही परिणाम भयंकर होना लाज़मी था. इस आतंरिक स्तिथि के साथ अंतरष्ट्रिय स्तिथि के मिश्रण ने इस्लामिक आतंकवाद का हौवा खड़ा किया जो हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए बेहद माकूल था और जिसका उन्होंने सत्ता व प्रशाशन में बैठे उनके गुर्गों ने भरपूर इस्तेमाल किया । देश में विष्फ़ोटों की लहर फ़ेल गई । यह विष्फोट न केवल हिंदू बहुल क्षेत्रो में हुए ,मुस्लिम बहुल क्षेत्रो में भी हुए। यहाँ तक मस्जिदों को भी निशान बनाया गया। लेकिन जांच पड़ताल से भी पहले निष्कर्ष हर विष्फोट के बाद सरकारी एज़ेन्सियों और मीडिया दोनों ने हर बार निकाल लिया वह यह की यह विस्फोट मुसलमानों का ही किया हुआ है। यह निष्कर्ष न सिर्फ़ जल्दीबाजी में निकला गया,कुछ हद तक साजिशन भी निकला गया। हर बार चटपट कुछ मुसलमान पकड़े गए जिनमें तक़रीबन हरेक को पिछले धमाको का भी मास्टर माइंङ कहा गया। लम्बी ताफ्तिशो में पकड़े गए ज्यादातर लोगो के खिलाफ कुछ भी नही पाया गया पर इस दौरान उन्होंने जिस्मानी दिमागी और पारिवारिक रूप से करीब-करीब सब खो दिया। इस स्थाई और गंभीर नुकसान का कोई भी मुआवजा आज तक किसी को भी नही मिला।



लेकिन देश के जनमानस में भी पूरी तरह यह बैठने की कोशिश होती रही, एक हद तक कामयाब भी रही की अल्पसंख्यक, विशेष रूप से मुसलमान, देश को आतंकवाद की आग में पूरी तरह से राख कर देने में जुटे हुए है। धमाको और दूसरी आतंवादी घटनाओ में पुलिस द्वारा पकड़े जाने और सामान बरामदगी से लेकर पूछताछ में इस्तेमाल तीन डिग्री तरीको और अदालती कार्यवाही तक सभी लगातार सवालो के घेरे में रहे है। मानवाधिकार कार्यकर्त्ता इन प्रक्रियाओं में शामिल दुराग्रह और गैर कानूनी तरीको की तरफ़ ध्यान दिलाते रहे परन्तु आमतौर पर इस्लामिक आतंकवाद के ठप्पे से सभी मुसलमानों को दागने और परिणामतः दुसरे सभी अल्पसंख्यको को लगातार संदेह के दुश्चक्र में फ़साने का काम पिछले कुछ सालो से बखूबी चलता रहा। सिविल सोसाइटी तथा साजिश के शिकार लोगो के लिए यह स्थिती वैसी ही है जैसी बने है 'अले हवस मुद्दे भी मुसिफ भी, किसे वकील करें, किससे मुंसिफी चाहे में बयां है'। जो थोड़े से वकील आगे आए भी उन्हें भी कई स्थानों पर मारा गया । अपमानित किया गया और पैरवी करने से रोका गया।

इस स्तिथि में सच्चाई जानने के लिए जो न्यायिक प्रक्रिया अपेक्षित थी, उसे ही धर्मंधो ने बाधित कर किया और कानून, संविधान और मानवाधिकारो की खुलेआम धज्जिया उडाई गई। लगभग सभी रास्तो बंद लगने लगे और देश का पूरा तंत्र फिरकापरस्त ताकतों का गुलाम दिखने लगा। कहने का मतलब यह नही की किसी विशेष समुदाय विशेष के लोग पूरी से तरह दोषी है या निर्दोष है। आशय यह है की प्रशाशन व राजनीति के सभी तौर तरीके सांप्रदायिक ताकतों की मुट्ठी में बंधे प्रतीत होने लगने से पूरी प्रशासनिक न्यायिक प्रक्रिया अपनी विश्वसनीयता खो बैठी और देश साजिशों का एक जंगल मालूम होने लगा मालेगाव की जांच पड़ताल ने पूरी स्तिथि को आश्चर्यजनक रूप से पलटकर रख दिया है और अब आतंकवाद की भारतीय तस्वीर अंतर्राष्टीय सम्बन्ध उजागर होना बाकि है, कुछ साफ़ होती लग रही है। जो सांप्रदायिक खेल देश के साथ खेला जा रहा था, जिस खतरनाक रास्ते से हिंदुत्व के एजेंडा को पूरा किया जा रहा था और देश प्रेम का जो ढकोसला रचकर देश के अमन-चैन को लूटा जा रहा था वह कुछ कुछ साफ होता दिख रहा है। बम बनाने की ट्रेनिंग, खतरनाक विस्फ़ोटो की आमद ,I.S.I से पैसे लेकर देश को विखण्डित करने, धार्मिक विद्वेष फैलाने और मासूम जनता के खून की होली खेलने में कौन से तत्व शामिल रहे है, यह कुछ कुछ नज़र आ रहा है। चीखते गलों से देशप्रेम के नारे लगाते हुए जनता की हत्या करने और उन्हें धर्मांध हिंसा के लिए भड़काने वाले इन देशभक्तों पर देशद्रोह का मुकदमा कब चलेगा, इसका इंतजार आज पूरे देश की जनता को है।



-डॉक्टर रूप रेखा वर्मा
लेखिका लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति है।
पुस्तक आतंकवाद का सच में प्रकाशित ॥

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