आज़ादी के बाद भी हमने अपनी न्याय-प्रणाली तनिक भी नहीं बदली. दीवानी और फ़ौज़दारी के जो कानून अंग्रेजों के जमाने में थे, वे ही आज भी विद्यमान हैं. वकीलों और जजों के काम करने का तरीका भी वही है. क्यों नहीं बदली यह व्यवस्था? आम जनता पर राज करने का यह एक आसान तरीका है, जो नेता, पूंजीपति और माफ़िया के हित में है.
कुछ निचली अदालतों को छोड़ दें तो भारत के सारे उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय की भाषा आज भी अंग्रेजी है. यह कैसी विडंबना है कि वादी या प्रतिवादी अपनी बात सीधे जज से नहीं कह सकता. उसे अनिवार्य रूप से बिचौलिये की आवश्यकता होती है, जिसे वकील कहते हैं. सारे वकील दलाली करते हैं. पीड़ित के लिये न्याय की फ़रियाद काला कोट पहने एक दूसरा व्यक्ति जज से करता है, जिसकी भाषा भी पीड़ित समझ नहीं पाता है. न्यायालय में सत्य या न्याय की जीत नहीं होती है, बल्कि वकील के दांव-पेंच और वक्तृत्व कला की जीत होती है. अपने फ़ायदे के लिये वकील तारीख पर तारीख लिये जाता है, जज दिए जाता है – भारत की गरीब जनता पिसती जाती है. देश की ९५% जनता की औकात ही नहीं है कि वह हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में जाए. गरीबों को मुकदमे में फँसाकर उनका शोषण करना अमीरों का शौक बन गया है. वर्तमान न्याय-प्रणाली बाहुबलियों, पूंजीपतियों और रा्जनीतिज्ञों के हाथ का खिलौना बन गई है.
हमारे न्यायालयों मे सफ़ेद रंग की एक सुन्दर स्त्री की मूर्ति बनी रहती है, जिसके हाथ में तराजू रहता है और आंखों पर पट्टी बंधी रहती है. मूर्ति संदेश देती है – कानून अंधा होता है. अगर कानून की आंखों पर पट्टी बंधी है, तो वह तराजू को कैसे बैलेन्स कर सकता है? इसपर किसी ने कभी ध्यान ही नहीं दिया, बस नकल कर ली. कानून याने जज अंधा होता है, अंधा ही नहीं बहरा भी होता है. कोर्ट में वकील चिल्ला-चिल्ला कर अपनी बात सुनाते हैं और दस्तावेज़ दिखाते हैं. वकीलरूपी दलाल ही जज के आंख-कान हैं. कानून को जनता की चीखें सुनाई नहीं पड़तीं, भोपाल गैस त्रासदी के मृतकों की लाशें दिखाई नहीं पड़तीं. हाई कोर्ट से मौत की सज़ा पानेवाला मुज़रिम सुप्रीम कोर्ट से बाइज्जत बरी हो जाता है. अगर उसके पास पैसे नहीं होते तो? वह फ़ांसी पर झूल जाता. मुजरिम को हाई कोर्ट के जिस जज ने मौत की सज़ा दी और सुप्रीम कोर्ट ने बरी किया – क्या उस जज पर हत्या के प्रयास का मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अंधे राजा (धृतराष्ट्र) और आंख पर पट्टी बांधी महारानी (गांधारी) की उपस्थिति में उनके ही बेटे कुलवधू का चीरहरण करते हैं.
हमारी निचली अदालतें पूरी तरह रिश्वतखोरी में लिप्त हैं. हाई कोर्ट में ६०% भ्रष्टाचार है तो सुप्रीम कोर्ट में ३०%. कर्नाटक के भ्रष्ट चीफ जस्टिस दिनकरन का केस हल नहीं हो पा रहा है क्योंकि अमेरिका और इंगलैंड से उधार लिये गये संविधान में कार्यवाही करने का जो तरीका दर्ज़ है, वह अड़ंगा लगाने और बच निकलने के लिये काफ़ी है. भ्रष्टाचार के प्रमाणित आरोपों के बाद भी सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश चो रामास्वामी का कोई बाल बांका भी नहीं कर सका. लोकसभा में महाभियोग लाया गया, लेकिन दो-तिहाई बहुमत का समर्थन नहीं मिल सका. श्री शशिभूषण, भूतपूर्व कानून मन्त्री, भारत सरकार ने एक इंटरव्यू में सुप्रीम कोर्ट के अबतक के १६ मुख्य न्यायाधिशों में से ८ को रिश्वतखोर बताया है. श्री रंगनाथ मिश्र – कांग्रेस के प्यारे न्यायाधीश और यूनियन कार्बाइड को सस्ते में छोड़वाने वाले जज न्यायमूर्ति अहमदी भी इसमें शामिल हैं.
भारतीय न्याय-पद्धति पंच परमेश्वर की न्याय पद्धति थी. सबके सामने दूध का दूध और पानी का पानी. बिना दलाल के जो न्याय मिलता है, वही सच्चा न्याय होता है. जज, वादी-प्रतिवादी से सीधी वार्त्ता क्यों नहीं कर सकता? उनसे अपने दावों के समर्थन में साक्ष्य क्यों नहीं ले सकता? आवश्यकता पड़ने पर स्थलीय निरीक्षण क्यों नहीं कर सकता? स्वयं जाकर आस-पास के लोगों से गोपनीय पूछ्ताछ क्यों नहीं कर सकता? वह सब कर सकता है, लेकिन कर नहीं सकता, क्योंकि आज भी उसकी मानसिकता वही है, जो १९४७ के पहले थी. आज भी उसकी आंखों पर पट्टी बंधी है. उसके पेशे के सहयोगी, तथाकथित कानून विशेषज्ञ वकीलों की रोजी-रोटी जाने का खतरा भी है. जनता न्याय के चक्रव्यूह में पिसती रहे – क्या फ़र्क पड़ता है! न्यायालय के जज, कर्मचारी और वकील की जेब तो भर रही है न.
साभार: http://hastakshep.com/?p=503
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