Thursday, January 20, 2011

यूपी में मुस्लिम राजनीति के बदलते समीकरण




राजीव यादव लेखक उभरते हुए पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं. पीयूसीएल की उत्तर प्रदेश इकाई के सचिव हैं |हस्तक्षेप.कॉम के लिए नियमित लिखते हैं
राही मासूम रज़ा ने ओस की बूंद में आजादी के बाद के दौर की अन्दरुनी मुस्लिम राजनीति की बहसों में लिखा है ‘‘आप लोग भी कमाल करते हैं। कांग्रेस सरकार को चूतिया बनाने का यही मौका है। बलवों में इतने मुसलमान मारे जा रहे हैं कि बलवों के बाद सरकार मुसलमानों को फुसलाना शुरु करेगी। ओही लपेट में ई इस्कूलो हायर सेकेंड्री हो जइहै।’’ कुछ ऐसे ही हालात बाटला हाउस एनकांउटर के अभी दो साल भी नहीं हुए थे कि कांग्रेस ने अपने उसी पुराने रिलीफ पैकेज जारी कर इस बात को प्रमाणित कर दिया। चाहे आजमगढ़ की दिग्विजय यात्रा हो या फिर गोरखपुर में अल्पसंख्यक सम्मेलन। बाटला हाउस एनकाउंटर मुस्लिम केंद्रित राजनीति का वो प्रस्थान बिंदु था जब मुस्लिम बाबरी विध्वंस की उस पुरानी सांप्रदायिक राजनीति से अपने को ठगा महसूस करते हुए अपने उपर आतंकवाद के नाम हो रहे उत्पीड़न के खिलाफ लामबंद होते हुए हिंदुस्तान की राजनीति में नए अध्याय का शुरुआत कर रहे थे। पर सत्ताधारी पार्टियों के भविष्य के लिए यह शुभ संकेत न था और वे फिर से उसे पुराने ढर्रे पर लाने को बेचैन थीं और उनके ये प्रयास अब साफ दिखने लगे हैं। पहले लिब्राहम आयोग की रिपोर्ट के बहाने और अब बाबरी विध्वंस पर आए फैसले को लेकर हर किसी ने तरकस से अपने तीर निकाल लिए हैं। पिछले दिनों मुलायम का माफीनामा भी इसी की कड़ी मात्र था। तो वहीं कांग्रेस जैसी दोहरे चरित्र वाली उसी पार्टी ने जिसने आतंकवाद के नाम पर मुस्लिम मासूमों का कत्ल कर आतंक पर अपनी विजय की घोषणा की थी आज सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चा और साझी शहादत-साझी विरासत नाम के अभियान चला कर मुस्लिमों में अतीतबोध करवाने में मशगूल है। और बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक को लेकर आए फैसले पर मुस्लिमों को संतुष्ट करने के लिए कांग्रेस बार-बार कह रही है कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस करने वाले का गुनाहगार है, पर कांग्रेस को यह याद रखना चाहिए कि यह गुनाह उसकी सरकार की छत्रछाया में हुआ था।
पिछले दो-तीन सालों के भीतर देश में हुए आतंकी घटनाओं ने मुस्लिम समाज को सहमा दिया। क्योंकि जहां अब तक उस पर यह आरोप था कि वह बाहरी ताकतों द्वारा संचालित आतंकवाद का हथियार है वहां इस दौरान उस पर यह आरोप राज्य मढ़ने कामयाब रहा कि मुसलमान आतंक का हथियार मात्र नहीं है बल्कि वह अब इसे अपनी धरती से संचालित कर रहा है। 2001 में सिमी पर प्रतिबंध से जो सिलसिला शुरु हुआ वो 2009 लोकसभा चुनावों तक इंडियन मुजाहिद्दीन के रुप में भारतीय राजनीति की सतह पर हमारे जमीन के आतंकवादियों के रुप में आ गया। और इस बात को स्थापित करने में राज्य कामयाब रहा कि हमारे गांव, समाज देश के खिलाफ युद्ध करने वाले मुस्लिम जेहादियों का बोलबाला बढ़ रहा है। इसका खामियाजा उन मुस्लिम बहुल इलाकों को झेलना पड़ा जहां वो दिखते थे।
इस परिघटना से राजनीतिक रुप से अलग-थलग पड़े मुस्लिम समुदाय जिसके साथ सांप्रदायिक दंगों के वक्त सेक्युलिरिज्म के नाम पर कुछ अपने को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले राजनीतिक दल आ जाते थे वे आतंकवाद के नाम पर किनारा कस लिए। हिंदुस्तानी राजनीति में आतंकवाद के नाम पर सचमुच यह नया प्रयोग था। सपा जैसे राजनीतिक दल शुरुआत में इन स्थितियों को भांप नहीं पाए और जब तक भांपे तब तक मुस्लिमों में यह भावना प्रबल हो गयी कि इस आफत में उनके साथ कोई नहीं है। यूपी से अगर बात शुरु की जाय तो आजमगढ़ के तारिक कासमी और जौनपुर के खालिद मुजाहिद को जब कचहरी धमाकों के आरोप में उनके गृह जनपद से गिरफ्तार करने के कई दिनों बाद बाराबंकी से गिरफ्तार करने का दावा किया गया तब से आतंकवाद के नाम पर उत्पीड़न के खिलाफ यह प्रतिवाद शुरु हुआ। इसे शुरु करने का श्रेय नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी को जाता है। एमवाई समीकरण पर आधारित सपा ने ऐसे में अबू आसिम आजमी जैसे अपने मुस्लिम चेहरों को आगे लाकर पारी शुरु की पर बात नहीं बन पायी। सपा शायद इस बदली हुई परिस्थिति का सामाजिक और मनोवैज्ञानिक आकलन नहीं कर पायी।
मसलन अगर आजमगढ़ में ही देखें तो पूरा बेल्ट एक दौर में मंडल के बाद उभरे अस्मितावादी ‘संस्कृतिकरण’ की राजनीति का गढ़ रहा है और उस दौर में सांप्रदायिक राजनीति को यहां के पिछड़े-दलित तबके ने इस नारे के साथ खारिज कर दिया ‘मिले मुलायम कांसीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम।’ लेकिन आज हम साफ देख सकते हैं कि आतंकवाद के बहाने यहीं पर इन्हीं जातियों का एक बड़ा तबका वो सारे नारे लगा रहा है जिसे उसने 92 में खारिज कर दिया था।
दरअसल आज आजमगढ़ में संघ परिवार की राजनीति के लिए उसके इतिहास में सबसे बेहतर मौका है। मसलन 90 में यह गिरोह जहां काग्रेस, बसपा, सपा, कम्युनिस्टों और जनता दल जैसी पार्टियों पर उनके मुस्लिम परस्त होने की लानत देकर हिंदुओं को अपने साथ खड़ा करने की कोशिश कर रहा था जिसमें उनको इसलिए सफलता नहीं मिल पा रही थी क्योंकि पिछड़ी-दलित जातियों का संस्कृतिकरण अस्मितावादी चेहरे के साथ ही चल रहा था जिसमें उसकी राजनैतिक जरुरत अल्पसंख्यकों को अपने साथ जोड़कर रखना था। लेकिन आज मंडल की उपज इन जातियों के राजनीति का सांस्कृतिक तौर पर पूरी तरह से ब्राह्मणीकरण हो चुका है। जिसके चलते एक ओर जहां वे संघ परिवार से अपने फर्क को खत्म करके उसी की कतार में खड़े दिखने लगे वहीं मुस्लिमों में भी ये विचार मजबूत होने लगा कि इन पार्टियों और भाजपा में कोई अन्तर नहीं रह गया और अब हमें भाजपा के डर से मुक्त होकर अपनी राजनीतिक गोलबंदी करनी चाहिए। जिसकी परिणति बाटला हाउस के बाद सतह पर आए ओलमा काउंसिल में हुई। ये ऐसी स्थिति है जो संघ परिवार को आजमगढ़ में पनपने के लिए 90 के उस दौर से भी ज्यादा स्पेस देती है। संघ परिवार, ओलमा काउंसिल की परछाई को उसके शरीर से भी बड़ा स्थापित कर अपना जनाधार बढ़ाने में लगी है। यहां संघ परिवार की जब बात हो रही है तो राजनीतिक रुप से भाजपा नहीं बल्कि कांग्रेस की भी बात हो रही है। क्योंकि आतंक का यह काला साया कांग्रेस की ही देन था। क्योंकि संघ की विचार धारा अब किसी पार्टी तक सीमित नहीं है।
मुस्लिम केंद्रित राजनीति को आजादी के बाद से ही फतवा आधारित राजनिति तक सीमित करने की कोशिश सत्ताधारी पार्टियों ने की। मुस्लिमों को एक दोषी और पीड़ित समाज के बतौर ही देखा गया। और इस अपराधबोध को मुस्लिमों के भीतर पनपाया गया कि आप दोषी हैं फिर भी हम आपका साथ दे रहे हैं। इसी फार्मूले का प्रयोग दिग्विजय सिंह ने आजमगढ़ जाकर करने की कोशिश की। इस राजनीति के बरक्स खड़ी साम्प्रदायिक राजनीति को भी इसी से चारा मिला और वे मुस्लिम तुष्टिकरण चिल्लाने लगे।
इस खास परिदृश्य में ओलमा काउंसिल जैसी राजनीतिक पार्टियों के बनने के रुझान को भी हमें समझना होगा। क्योंकि मुस्लिम युवाओं में अलग पार्टी बनाने की जिस भावना को देखा गया उसने इस खास समय में इसलिए उफान मारा क्योंकि उन्हें यकीन हो गया कि उनकी खोज-खबर लेने वाला कोई नहीं है। इस सोच को रखने वाला यह तबका 2002 के बाद की राजनीतिक स्थितियों की पैदाइस था जबकि 92 के दौर को देखने वाला तबका अलग पार्टी बनाने की वकालत नहीं कर रहा था। 2009 के लोकसभा चुनावों में भाजपा का सत्ता के परिदृश्य से बाहर रहने के कारण भी यह प्रयोग हो सका क्योंकि कोई डर नहीं था। मुस्लिम समाज में उभरा यह राजनीतिक समीकरण मजबूर करके सरकार में भागीदारी चाहता है। इसे हम यूपी के तराई क्षेत्रों में सक्रिय पीस पार्टी के नारे में भी देख सकते हैं ‘मजबूर नहीं मजबूत बनों’। जो मुस्लिम राजनीति हराने-जिताने तक सीमित थी उसमें बदला लेने की भावना इस नयी राजनीति ने सम्प्रेषित किया। यह बदला उसके अपनों से था जिन्होंने यह कह कर सालों-साल से वोट लिया था कि हम आपको बचाएंगे। हर घटना के बाद सफाई देने की जगह इसने प्रतिरोध से जवाब देने की कोशिश की। वजूद और हुकूक तक सीमित राजनीति छीनने की बात करने लगी। इसे हम बाटला हाउस के मुद्दे पर ओलमा काउंसिल द्वारा दिल्ली-लखनउ की रैलियों में आसानी से देख सकते हैं। राजनीति की कमान मौलानाओं के हाथ में और धुरी युवा। यह समीकरण इसलिए भी कारगर हुआ क्योंकि राजनीति के केंद्र में वह युवा था जिसने अपने अपनों को गोलियों से छलनी और सालों-साल के लिए नरक से भी बुरी जेलों में ठूसे जाते हुए देखा था। और उसमें भी यह डर था कि उसका भी नंबर कब न लग जाए और उसे पूरा विश्वास था कि उसे कोई बचाने नहीं आएगा और ऐसे में अलग पार्टी बनाने की भावना उसमें प्रबल हो गयी। जिसमें सबक सिखाने की भावना के साथ यह निहित था कि जो सफलता मिलेगी वह उसका बोनस होगा। इसीलिए आजमगढ़ जहां अकबर अहमद डंपी जैसे मुस्लिम राजनीतिक चेहरे को भी हार का मुंह देखना पड़ा और ऐसा मुस्लिम समाज ने यह जानते हुए किया कि इससे भाजपा जीत जाएगी। क्योंकि बसपा ने उपचुनावों के वक्त कचहरी धमाकों के आरोपी तारिक कासमी और खालिद की गिरफ्तारी पर आरडी निमेष जांच का गठन किया जिसे डंपी के चुनावों के जीतने के बाद ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। मुस्लिम समाज में यह भावना प्रबल हो गयी की भाजपा ही सत्ता में आ जाएगी तो क्या हो जाएगा कम से कम दुश्मन नकाब में तो नहीं रहेगा। मुस्लिम समाज ने सांप्रदायिक परिकल्पना, सांप्रदायिक तर्कों और सांप्रदायिक उत्तरों में इस बात को अब समझ लिया था कि उसके लिए यह कितना झूठ और छद्म है। इस भावना को काले झंडों के साए में दिग्विजय की यात्रा के वक्त आजमगढ़ की सड़कों पर लहराते तख्तियों में आसानी से देख सकते हैं ‘नए जाल लाए पुराने शिकारी’।
इसी दौर में हिंदुत्ववादी ब्रिगेड की आतंकी घटनाओं में संलिप्तता ने मुस्लिम राजनीति में एक प्रतिरोध को जन्म दिया। और इसमें हिंदुत्वादीयों के खिलाफ जो आग थी उसमें एक खास तरह की सांप्रदायिकता निहित थी। क्योंकि एक सांप्रदायिकता के खिलाफ जब उसी भाषा में प्रतिक्रिया की जाती है तो नतीजे के तौर में सांप्रदायिकता ही मजबूत होती है। पर अलग पार्टी बनाने की इस प्रक्रिया में जो सांप्रदायिकता निहित थी वो राज्य के फासिस्ट चरित्र को लेकर थी। किसी पार्टी विशेष को लेकर उसमें कोई खास आक्रोश नहीं था यह आक्रोश सबके लिए था। ऐसा स्वतःस्फूर्त नहीं हुआ यह कांग्रेस की प्रायोजित चाल थी कि किस तरह से भाजपा को मुद्दा विहीन कर दिया जाय और दोषी और पीड़ित के अर्न्तद्वन्द से गुजर रहे मुस्लिमों का वोट भी हथिया लिया जाय। क्यों की इससे पहले नांदेड और परभनी में भी हिंदुत्ववादियों का नाम आ चुका था। और दिग्विजय सिंह यह बात हर बात दुहराते हैं कि उनके पास बजरंग दल और संघ परिवार के आतंकी घटनाओें में लिप्त होने के सुबूत हैं। पर कांग्रेस ने कभी भी संघ परिवार या बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने को कोई प्रयास नहीं किया। हमारे जमीन के आतंकवादी के नाम पर आतंकवाद की राजनीति का खेल खेलने वाली कांग्रेस को इस बात की तनिक भी संभावना नहीं थी कि इससे नए तरह की राजनीति का उदय हो सकता है। कांग्रेस को अपनी जड़े यूपी में मजबूत करने में मुस्लिम वोट बैंक एक बड़ी बाधा थी, जो सपा से होते हुए 2007 के विधानसभा चुनावों में बसपा की झोली में चला गया था। यूपी का तकरीबन 18 प्रतिशत मुस्लिम वोटर 160 विधानसभा सीटों पर हार-जीत का फैसला करता है। पच्चीस जिलों में मुस्लिमों की संख्या तीस प्रतिशत से अधिक है। इसी रणनीति के तहत 2007 के विधानसभा चुनावों को मायावती ने लड़ा आज सबसे ज्यादा मुस्लिम विधायक बसपा के पास हैं। नयी पार्टियों के बनने से अब मुस्लिम बैंक बिखर चुका है। यूपी के तराई क्षेत्र में पीस पार्टी ने खामोशी से योगी की सांप्रदायिकता के खिलाफ अंसारी जातियों को एकजुट किया। 2009 लोकसभा चुनावों के दौरान यूपी में कांग्रेस को मिला ‘जनादेश’ भी कुछ हद तक इसी समीकरण का नतीजा था। क्योंकि पीस पार्टी के लड़ने की वजह से मुस्लिम वोट बैंक सपा-बसपा से कटा जिसका फायदा कांग्रेस को मिला अगर ऐसा नहीं तो कांग्रेस मिला यह जनादेश का असर सिर्फ तराई तक ही क्यों था।
राजनीतिक शतरंज की बिसात पर इन पार्टियों के निर्माण ने सपा को बेदीन कर दिया। इसी बौखलाहट में 2009 लोकसभा चुनावों के दौरान मुलायम ने पिछड़ी जातियों के नए समीकरण की पारी खेलने के लिए बाबरी विध्वंस के आरोपी कल्याण को साथ लिया। पिछली मुलायम सरकार में कल्याण सिंह के बेटे राजवीर सिंह के मंत्री बनने के बाद जो कुछ बचाखुचा था वो कल्याण के साथ आने के बाद मटियामेट हो गया। साढे़ तीन साला मुलायम सरकार के बनने में संघ परिवार की नजदीकियों भी अब सामने आ चुकी थीं। सपा के इस दोहरे बर्ताव ने मुस्लिम समाज में सपा-भाजपा के अंतर को मिटा दिया कि जिस तरह मुख्तार अब्बास नकवी, शाहनवाज हुसैन को लेकर भाजपा सेकुलर हाने का दावा करती है वैसे ही आजम खान और अबू आसिम आजमी को लेकर सपा करती है। इन्हीं स्थितियों को भापते हुए आजम खान सपा से कट निकले।
इसी नब्ज को पकड़ते हुए कांग्रेस ने लिब्राहम आयोग की उस रिपोर्ट को जो चुनावों के पहले आ गयी थी को अपने पिटारे से निकाला। पर वह कारगर साबित नहीं हो पायी। क्योंकि मुस्लिम राजनीति की धुरी में अब तक परिवर्तन आ चुका था। ऐसे में उसने अपनी दूसरी चाल चली और जिस आतंक पर उसके सबसे कमजोर गृह मंत्री शिवराज पाटिल लौह पुरुष बन गए उन बाटला हाउस में मारे गए मासूम साजिद और आतिफ के घर जाने की योजना बनायी। इसके लिए उसने सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चे का गठन किया। कांग्रेस इन दिनों इस बात को स्थापित करने में लगी है कि कांग्रेस की जड़े सांप्रदायिकता में नहीं बल्कि वह बहुत गहरे तक धर्म निरपेक्ष विचार धारा से जुड़ी हुई है और यही आम लोगों की बीच उसकी असली पहचान हो और कांग्रेस को सांप्रदायिकता के शिविर में डालना भाजपा का वैधता देना है। और इसी कड़ी में कांग्रेस ने मुस्लिमों, दलितों और ओबीसी में अस्मितावाद पैदा करने के लिए साझी शहादत-साझी विरासत अभियान चलाया। और हमलावर शोक और संवेदना का लबादा ओढ़े आजमगढ़ के संजरपुर गांव पहुंचे। यह यात्रा पूर्वांचल में उभर रहे मुस्लिम और पिछड़ी जातियों के राजनीति उभार की बौखलाहट थी। 27 जनवरी को संत कबीर नगर में पिछड़ी जातियों की मुस्लिम पहचान वाली पीस पार्टी और राजभर जाति की पहचान वाली भारतीय समाज पार्टी की गुलामी तोड़ो-समाज जोड़ो रैली ने राजनीति में एक खलबलाहट ला दी। कांग्रेस जगह-जगह अपने उपर बाटला हाउस को लेकर उठ रहे सवालों से त्रस्त थी। और उसने देखा कि वह जिस उदार हिंदू और उदार मुस्लिम राजनीति का कार्ड खेलने का सपना देख रही है वह चकनाचूर हो रहा है तो उसने आनन-फानन में संजरपुर आने का फैसला कर लिया। यह यात्रा राहुल की संभावित यात्रा का लिटिमस टेस्ट था। जिसका करारा जवाब आजमगढ़ में मिला हर चट्टी चौराहों पर काले झंडों के साए में यह यात्रा निकली। और दिग्गी राजा सवालों का जवाब नहीं दे पाए और बड़े बेआबरु होकर आजमगढ़ से भागे। यहां पर भी कांग्रेस ने अपनी शरण के लिए शिब्ली नेशनल कालेज को चुना। जहां भाड़े के टट्टुओं ने अपनी प्रतिरोध की परंपरा को ताक पर रख कांग्रेस को शरण दी। पर वहां युवाओं के तीखे विरोध ने कांग्रेस को यह बतला दिया कि विरासत हर दौर में नए इतिहास की रचना करती है। इसके बाद हारे हुए कांग्रेसी गोरखपुर सम्मेलन में भी लाजवाब हो गए। इससे निपटने के लिए अब कांग्रेस सवाल उठाने वाले खेमें में ही अनदरुनी तोड़-फोड़ कर रही है। तो वहीं मुलायम के माफीनामें के बाद अखिलेश ने संजरपुर का दौरा किया।
बहरहाल सितंबर में अयोध्या मसले पर आए फैसले ने एक बार फिर कांग्रेस को उदार हिंदू और उदार मुस्लिम का राजनीतिक कार्ड खेलने की जमीन मुहैया करायी है, जिसके पक्ष में मीडिया ने खूब माहौल बनाया है। पर अब यह भी गांठ बांधने की बात है कि मुस्लिम वोट बैंक अब कई खेमों में बट गया है और इस समाज में नए प्रयोग संभावित हैं। इसे पिछले दिनों हुए डुमरियागंज के चुनावों में भी देख सकते हैं। यह तात्कालिक ही था पर कुछ नए समीकरणों के लिए एक संभावना भी इसमें निहित थी।

1 comment:

  1. excellent... a wonderful analysis of Muslim politics in UP. But these facts are more concerned with Purvanchal or tarai area rather than whole up. Muslim politics in Western UP does not seem influenced with these situation. There is a wide spread demand of a separate Muslim party addressing their concern but it is very difficult to imagine how it can be possible? Politics of Ulema Council is based on revenge feelings of post Batla house encounter but how long it may continue. So again, Muslim politics will be divided in SP, BSP, CONGRESS and other parties. No Muslim parties is expected to emerge out a power pole in UP.
    Ammar Anas

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