Thursday, January 20, 2011

आर.एस.एस…सांस्कृतिक संगठन ! झूठ पर महाझूठ ….?


आर.एस.एस लगातार प्रचार करता रहता है कि वह एक सामाजिक सांस्कृतिक संगठन है और उसका राजनीति से कुछ लेना देना नहीं है। इसी तरह भारतीय जनता पार्टी के श्रेष्ठ नेता जो ज्यादातर संघ के प्रचारक हें यह कहते नहीं थकते हें कि भाजपा एक स्वतन्त्र राजनीतिक संगठन है। यह एक ऐसा सफ़ेद झूठ है ( और ऐसे झूठ सिर्फ आर एस एस से जुड़े लोग ही बोल सकते हैं) जिसे पूरा देश जानता है। स्वयं आर एस एस के दस्तावेजों में मौजूद निम्नलिखित सच्चाइयों से भी यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है कि यह देश की राजनीति को अपने शिकंजे में लेना चाहता है।

आर एस एस के दार्शनिक सलाहकार ने राजनीति को संचालित करने की अपनी योजना बनाई। योजना की व्याख्या करते हुए उन्होंने 5 मार्च 1960 को इंदौर आर एस एस के विभागीय व उच्च स्तरीय कार्यकर्ताओं के एक अखिल भारतीय सम्मलेन में बताया कि:

हमें यह भी मालूम है, कि अपने कुछ स्वयं सेवक राजनीति में काम करते हैं। वहां उन्हें उस कार्य की आवश्यकताओं के अनुरूप जलसे, जुलुस आदि करने पड़ते हैं, नारे लगाने होते हैं। इन सब बातों का हमारे काम में कोई स्थान नहीं है। परन्तु नाटक के पात्र के समान जो भूमिका ली उसका योग्यता से निर्वाह तो करना ही चाहिए। पर इस नट की भूमिका से आगे बढ़कर काम करते-करते कभी-कभी लोगों के मन में उसका अभिनिवेश उत्पन्न हो जाता है । यहाँ तक कि फिर इस कार्य में आने के लिए वे अपात्र सिद्ध हो जाते हैं। यह तो ठीक नहीं है। अत: हमें अपने संयमपूर्ण कार्य की दृढ़ता का भलीभांति ध्यान रखना होगा। आवश्यकता हुई तो हम आकाश तक भी उछल कूद कर सकते हैं, परन्तु दक्ष दिया तो दक्ष में ही खड़े होंगे।

आर एस एस राजनीति में किस तरह के स्वयंसेवक भेजता है और उनसे क्या उपेक्षा करता है इसका ब्यौरा स्वयं गोलवलकर ने 16 मार्च 1954 को अपने भाषण में इन शब्दों में दिया:

यदि हमने कहा कि हम संगठन के अंग हैं, हम उसका अनुशासन मानते हैं तो फिर सिलेक्टिवनेस ( पसंद ) का जीवन में कोई स्थान न हो। जो कहा वही करना। कबड्डी कहा तो कबड्डी; बैठक कहा, तो बैठक जैसे अपने कुछ मित्रों से कहा कि राजनीति में जाकर काम करो, तो उसका अर्थ यह नहीं कि उन्हें इसके लिए बड़ी रुचि या प्रेरणा है। वे राजनितिक कार्य के लिए इस प्रकार नहीं तड़पते, जैसे बिना पानी के मछली। यदि उन्हें राजनीति से वापिस आने को कहा तो भी उसमें कोई आपत्ति नहीं। अपने विवेक की कोई जरूरत नहीं। जो काम सौंपा गया उसकी योग्यता प्राप्त करेंगे ऐसा निश्चय कर के यह लोग चलते हैं।

गोलवलकर के ये वक्तव्य इस सच्चाई को अच्छी तरह जगजाहिर कर देते हैं कि आर एस एस कितना गैर राजनीतिक संगठन है ! इस वक्तव्य से यह सच्चाई भी उभर कर सामने आती है कि आर एस एस राजनीति पर अपना प्रभुत्व ज़माने के लिए किस किस तरह के षड्यंत्र करता है और हथकंडे अपनाता है।

अंग्रेज भक्त हैं हिन्दुवत्व के पैरोकार
1942 भारत छोडो आन्दोलन में आरएसएस की भागीदारी ?
अगर आरएसएस का रवैया 1942 के भारत छोडो आन्दोलन के प्रति जानना हो तो श्री गुरूजी के इस शर्मनाक वक्तव्य को पढना काफी होगा:

सन 1942 में भी अनेकों के मन में तीव्र आन्दोलन था। उस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रह। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया। परन्तु संघ के स्वयं सेवकों के मन में उथल-पुथल चल ही रही थी। संघ यह अकर्मण्य लोगों की संस्था है, इनकी बातों में कुछ अर्थ नहीं ऐसा केवल बाहर के लोगों ने ही नहीं, कई अपने स्वयंसेवकों ने भी कहा। वे बड़े रुष्ट भी हुए।

इस तरह स्वयं गुरूजी से हमें यह तो पता लग जाता है कि आरएसएस ने भारत छोडो आन्दोलन के पक्ष में परोक्ष रूप से किसी भी तरह की हिस्सेदारी नहीं की। लेकिन आरएसएस के किसी प्रकाशन या स्वयं गोलवलकर के किसी वक्तव्य से आज तक यह पता नहीं लग पाया है कि आरएसएस ने अप्रत्यक्ष रूप से भारत छोडो आन्दोलन में किस तरह की हिस्सेदारी की थी। गोलवलकर का यह कहना है कि भारत छोडो आन्दोलन के दौरान आरएसएस का ‘रोजमर्रा का काम’ ज्यों का त्यों चलता रहा, बहुत अर्थपूर्ण है। यह ‘रोजमर्रा का काम’ क्या था ? इसे समझना जरा भी मुश्किल नहीं है। यह काम था मुस्लिम लीग के कंधे से कन्धा मिलकर हिन्दू और मुसलमान के बीच खाई को गहराते जाना। इस महान सेवा के लिए कृतज्ञ अंग्रेज शासकों ने इन्हें नवाजा भी। यह बात गौरतलब है कि अंग्रेजी राज में आरएसएस और मुस्लिम लीग पर कभी भी प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया।
सच तो यह है कि गोलवलकर ने स्वयं भी कभी यह दावा नहीं किया कि आरएसएस अंग्रेज विरोधी था। अंग्रेज शासकों के चले जाने के बहुत बाद गोलवलकर ने 1960 में इंदौर (मध्य प्रदेश) में अपने एक भाषण में कहा:
कई लोग पहले इस प्रेरणा से काम करते थे कि अंग्रेजो को निकाल कर देश को स्वतंत्र करना है। अंग्रेजों के औपचारिक रीति से चले जाने के पश्चात यह प्रेरणा ढीली पड़ गयी। वास्तव में इतनी ही प्रेरणा रखने की आवश्यकता नहीं थी। हमें स्मरण होगा कि हमने प्रतिज्ञा में धर्म और संस्कृति की रक्षा कर राष्ट्र की स्वतंत्रता का उल्लेख किया है। उसमें अंग्रेजो के जाने न जाने का उल्लेख नहीं है।

आरएसएस ऐसी गतिविधियों से बचता था जो अंग्रेजी सरकार के खिलाफ हों। संघ द्वारा छापी गयी डॉक्टर हेडगेवार की जीवनी में भी इस सच्चाई को छुपाया नहीं जा सका है। स्वतंत्रता संग्राम में डॉक्टर साहब की भूमिका का वर्णन करते हुए बताया गया है :संघ स्थापना के बाद डॉक्टर साहब अपने भाषणों में हिन्दू संगठन के सम्बन्ध में ही बोला करते थे। सरकार पर प्रत्यक्ष टीका नहीं के बराबर रहा करती थी।

रणधीर सिंह सुमन लेखक हस्तक्षेप.कॉम के सह सम्पादक हैं

गौरतलब है कि ऐसे समय में जब भगत सिंह, राजगुरु, अशफाकुल्लाह, राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, राजेन्द्र लाहिड़ी जैसे सैकड़ों नौजवान जाति और धर्म को भुलाकर भारत मां को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराने के लिए अपने प्राण दे रहे थे, उस वक्त हेडगेवार और उनके सहयोगी देश का भ्रमण करते हुए केवल हिन्दू राष्ट्र और हिन्दू संस्कृति तक अपने को सीमित रखते थे। यही काम इस्लाम की झंडाबरदार मुस्लिम लीग भी कर रही थी। जाहिर है इसका लाभ केवल अंग्रेज शासकों को मिलना था।



साभार — आरएसएस को पहचानें,  किताब से 
शम्शुल इस्लाम

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