देश में आए दिन उजागर होते भ्रष्टाचार के मामलों में सेना भी अपना योगदान देने में पीछे नहीं है। न्यायपालिका की तरह सेना के प्रति भी जनता के मन में आदर की भावना रही है। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि हमारी व्यवस्था के इन दोनों प्रमुख अंगों की कार्यप्रणाली पर संदेह की उंगलियां उठ रही हैं। निश्चित तौर पर कभी जमीन की अवैध बिक्री, कभी कमजोर और पीड़ितों के लिए बनाए जा रहे फ्लैटों में बुकिंग, कभी सैनिकों को दिए जाने वाले राशन में घपले और कभी सियाचिन के सैनिकों को खराब बूटों की सप्लाई और कभी महिला अधिकारियों के साथ भेदभाव की शिकायतों ने सेना की छवि को दागदार बनाया है।
हथियारों की खरीद में अनियमितता की खबरें आना तो एक परंपरा है। सेना का ढांचा नागरिक प्रशासन के अंगों की तरह खुला और लचीला नहीं है। इसीलिए वहां से गड़बड़ी की खबरें बाहर आना आसान नहीं है। सैन्य प्रशासन के कठोर ढांचे में किसी वरिष्ठ अधिकारी के कामों पर सवाल उठाना हुकुमउदूली की श्रेणी में रख दिया जाता है। यानी सेना में गड़बड़ी की खबरें तभी बाहर आती हैं, जब कोई बड़ा मामला हो जाए। इसके बावजूद यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की महिमा और सेना की आंतरिक निगरानी प्रक्रिया का ही नतीजा है कि तमाम चीजें बाहर आ रही हैं और उन्हें ठीक करने के लिए नागरिक प्रशासन और अन्य संस्थाओं का हस्तक्षेप शुरू हो रहा है।
अगर सैनिकों को दिए जाने वाले सूखे राशन में गड़बड़ी की बात नियंत्रक और लेखा महापरीक्षक (सीएजी) ने उठाई है तो कांदिवली में एक निजी फार्मा कंपनी को जमीन दिए जाने का मामला सेना के आंतरिक सूत्रों की जांच रपट में आया है। अच्छी बात यह है कि उसकी अनदेखी किए जाने की बजाय उस पर कार्रवाई करने और गड़बड़ी को दुरुस्त करने की प्रक्रिया भी शुरू हो गई है, क्योंकि गड़बड़ियों के बावजूद हमारी सेना का ढांचा और संसदीय लोकतंत्र के लिए उसकी जवाबदेही की व्यवस्था यूरोप और अमेरिका के विकसित देशों का मुकाबला करती है।
उसी का परिणाम है कि राशन की अनियमितताओं के मामले में सेना के तीनों अंगों के प्रमुखों ने लोक लेखा समिति के सामने पेश होकर उसे ठीक करने का आश्वासन दिया। हालांकि नौसेना प्रमुख के देश में न होने के कारण उनका प्रतिनिधित्व उपप्रमुख ने किया, फिर भी यह मामला बेनजीर था। इससे यह उम्मीद बंधती है कि भ्रष्टाचार की अनदेखी नहीं होगी। इससे लोकतंत्र के साथ ही लोकतंत्र को सम्मान देती सेना का भी मान बढ़ता है।
हथियारों की खरीद में अनियमितता की खबरें आना तो एक परंपरा है। सेना का ढांचा नागरिक प्रशासन के अंगों की तरह खुला और लचीला नहीं है। इसीलिए वहां से गड़बड़ी की खबरें बाहर आना आसान नहीं है। सैन्य प्रशासन के कठोर ढांचे में किसी वरिष्ठ अधिकारी के कामों पर सवाल उठाना हुकुमउदूली की श्रेणी में रख दिया जाता है। यानी सेना में गड़बड़ी की खबरें तभी बाहर आती हैं, जब कोई बड़ा मामला हो जाए। इसके बावजूद यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की महिमा और सेना की आंतरिक निगरानी प्रक्रिया का ही नतीजा है कि तमाम चीजें बाहर आ रही हैं और उन्हें ठीक करने के लिए नागरिक प्रशासन और अन्य संस्थाओं का हस्तक्षेप शुरू हो रहा है।
अगर सैनिकों को दिए जाने वाले सूखे राशन में गड़बड़ी की बात नियंत्रक और लेखा महापरीक्षक (सीएजी) ने उठाई है तो कांदिवली में एक निजी फार्मा कंपनी को जमीन दिए जाने का मामला सेना के आंतरिक सूत्रों की जांच रपट में आया है। अच्छी बात यह है कि उसकी अनदेखी किए जाने की बजाय उस पर कार्रवाई करने और गड़बड़ी को दुरुस्त करने की प्रक्रिया भी शुरू हो गई है, क्योंकि गड़बड़ियों के बावजूद हमारी सेना का ढांचा और संसदीय लोकतंत्र के लिए उसकी जवाबदेही की व्यवस्था यूरोप और अमेरिका के विकसित देशों का मुकाबला करती है।
उसी का परिणाम है कि राशन की अनियमितताओं के मामले में सेना के तीनों अंगों के प्रमुखों ने लोक लेखा समिति के सामने पेश होकर उसे ठीक करने का आश्वासन दिया। हालांकि नौसेना प्रमुख के देश में न होने के कारण उनका प्रतिनिधित्व उपप्रमुख ने किया, फिर भी यह मामला बेनजीर था। इससे यह उम्मीद बंधती है कि भ्रष्टाचार की अनदेखी नहीं होगी। इससे लोकतंत्र के साथ ही लोकतंत्र को सम्मान देती सेना का भी मान बढ़ता है।
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