शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 लागू होने के बाद कागजी रूप से ही सही, भारत उन 130 से अधिक देशों की जमात में शामिल हो गया है, जो अपने देश के बच्चों को निःषुल्क शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए कानूनन जबावदेह हैं। यूनेस्को की ’’ एजूकेशन फॉर आल ग्लोबल मानिट्रिंग रिपोर्ट 2010’’ बताती है कि दुनिया के करीब १३५ देशों में बच्चों को निःशुल्क और भेदभाव रहित शिक्षा प्रदान करने के लिए प्रावधान हैं लेकिन इस प्रावधान के बावजूद ज्यादातर देशों में वास्तविक रूप से भेदभाव रहित समान शिक्षा नहीं मिल पाती है।
स्वतंत्रता उपरांत देश के संविधान निर्माता शिक्षा के अधिकार को संविधान में एक मूल अधिकार के रूप में शामिल करना चाहते थे, लेकिन किन्हीं कारणों से ऐसा नहीं हो सका और इसको राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में अनुच्छेद 45 के अर्न्तगत ही स्थान मिल सका तथा इसे राज्यों की इच्छा पर छोड़ दिया गया जो कि न्यायालयों मैं परिवर्तनीय नहीं थे।
इस संवैधानिक संषोधन के साथ शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार का दर्जा मिल गया तथा इसे नीति निर्देषक तत्वों एवं मूल कर्त्तव्यों में भी शामिल कर लिया गया। लेकिन हमारी सरकारों के पास न तो इसे लागू करने की इच्छाशक्ति थी और न ही सकारात्मक सोच।
वैसे तो 1992 के मोहिनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में देश के शीर्ष अदालत ने ’अनुच्छेद-21’ के तहत षिक्षा पाने के अधिकार को प्रत्येक नागरिक का मूल अधिकार बताते हुये ऐतिहासिक निर्णय दिया था।
अनुच्छेद-21 के तहत प्राण व दैहिक स्वंतत्रता के अधिकार में शिक्षा पाने का अधिकार भी शामिल है, तथा निजी स्कूल, कालेजों द्वारा कैपीटेषन शुल्क लेना नागरिकों के इस अधिकार का उल्लंघन है। प्रत्येक नागरिक को शिक्षा उपलब्ध करवाना राज्य का संवैधानिक दायित्व है।
इस मामले में ’’विद्वान न्यायमूर्तियों’’ ने बीच का रास्ता निकाला, उन्होंने षिक्षा को मूल अधिकार माना लेकिन इसे 14 साल तक के बच्चों तक सीमित करते हुये कहा कि उच्च षिक्षा के संबंध में यह राज्य के आर्थिक क्षमता पर निर्भर करेगा, यानी ‘सांप भी मर जाये और लाठी भी नहीं टूटे’।
निःशुल्क एवं अनिवार्य बाल षिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 एक अप्रैल से देश में लागू हो गया है। हालाकि 1 अप्रैल को दुनिया मूर्ख दिवस मनाती है, कहीं हमारी सरकार ने भी इस तारीख को देश की जनता को मूर्ख बनाने के लिए तो नहीं चुना है?
अगर इस अधिनियम को बारीकी से निरीक्षण करें तथा इसे लागू कराने के लिए जमीनी तैयारियों को देखें तो ’’मूर्ख दिवस’’ वाला शक सही जान पड़ता है। अधिनियम कहता है कि 6 से 14 वर्ष के प्रत्येक बच्चे को ’मुफत’ एवं ’गुणवत्तापूर्ण’ षिक्षा दी जायेगी। परंतु कैसे?
देश के ज्यादातर सरकारी स्कूलों में बच्चों के अनुपात में क्लास रूम की कमी है, ज्यादातर विद्यालयों को 2 से तीन पारियों में चलाया जा रहा है, ज्यादातर स्कूल भवन जर्जर अवस्था में हैं, देश के ग्रामीण क्षेत्रों में कई ऐसे गांव है जहां दूर-दूर तक विद्यालय नहीं है। निजी विद्यालयों का जाल अब गांव-गांव तक फैल रहा है जिनका अंतिम लक्ष्य मुनाफा कमाना है, अधिनियम केवल कुछ पाठयपुस्तकों व पत्र पत्रिकाओं को एक अच्छा पुस्तकालय बताता है लेकिन इसमे मौजूदा समय के साथ चलने की बुनियादी जरूरतों जैसे कम्प्यूटर, इंटरनेट आदि सुविधाओं की बात नहीं की गयी हैं। दूसरी तरफ यह अधिनियम कुल शिक्षक पदों में से 10 प्रतिशत पद खाली रखने की छूट भी प्रदान करता है, लेकिन अगर 10 प्रतिषत शिक्षकों का पद खाली रहा है तो इसका खामियाजा छात्रों को ही भुगतना पड़ेगा।
पूर्व प्राथमिक शिक्षा को भी इस अधिनियम में स्थान नहीं दिया गया है, जबकि देश के करोड़ों बच्चों को इसकी आधारभूत जरूरत है। भारत में बड़ी संख्या में बच्चें बाल मजदूर का काम कर रहे है, इस अधिनियम में इन बच्चों के पुर्नवास व शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं की गई है।
विकलांग बच्चों को षिक्षा उपलब्ध कराने के सम्बंध में भी अधिनियम मौन है ! विकलांग बच्चों को षिक्षा उपलब्ध कराने संबंधी अधिनियम में ’’अक्षमता की परिभाषा’’ ’’व्यक्ति अक्षमता अधिनियम 1995’’ के अनुसार मानी गई है, जो कि ’’राष्ट्रीय न्यास अधिनियम-1999’’ द्वारा बतायी गई ’’अक्षमता’’ की परिभाषा के शर्तो को पूरा नहीं करती है।
लेकिन सबसे बड़ी चुनौती तो इस अधिनियम के प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिष्चित करने की है। राज्यों की सरकारे हमेशा की तरह इसके लिए भी धनाभाव का राग अलाप रही है, हालांकि केन्द्र सरकार 65 प्रतिषत खर्च उठाने को तैयार है लेकिन 35 प्रतिशत राषि कहां से आयेगी?
प्राइवेट स्कूलों को अभी से ही घाटे की चिंता सताने लगी हैं, भोपाल के प्राइवेट स्कूल संचालकों का कहना है कि गरीब वर्ग के बच्चों के लिए सरकार द्वारा जो राशि उन्हें दी जायेगी वह न के बराबर होगी, इसलिए गरीब बच्चों को पढ़ाने से उन्हें उनके ’’व्यवसाय’’ में घाटा उठाना पड़ेगा, दूसरी तरफ प्रदेश के सरकारी स्कूलों की हालत के बारे में मध्यप्रदेश के स्कूली विभाग का ताजा सर्वे ही यह बता रहा है कि प्रदेश के साढ़े चौदह हजार सरकारी प्राइमरी स्कूल एक-एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं यही हालत प्रदेश के 1996 मिडिल स्कूलों की भी है। इन प्राइमरी और मिडिल स्कूलों में क्रमषः 22 लाख और पांच लाख से ज्यादा बच्चे अध्ययनरत है। ऐसी परिस्थितियों में कैसे मिलेगी समान और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा ?
शिक्षा से वंचित बच्चों को शिक्षित करना सभी लोकतांत्रिक सरकारों का दायित्व और बच्चों का हक होता है। लेकिन आजादी के 60 सालों से ज्यादा समय बीत जाने के बावजूद देश की व्यवस्था और सरकारें, बच्चों को उनका यह अनिवार्य हक देने में नाकारा साबित हुई हैं।
बहरहाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 को भारत में निःषुल्क, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्ति के सफर में एक पड़ाव माना जा सकता है। अगर हम इसे जमीनी स्तर पर लागू कराने में कामयाब हो जाते हैं तो यह पड़ाव के अगले सफर की नीव साबित हो सकती है।
यह कानून सरकार से शिक्षा के हक मांगने के लिए जनता के हाथ में एक हथियार मुहैया कराता है। इस अधिनियम के अधीन बच्चों के शिक्षा के अधिकार को सुनिष्चत करने के लिए राष्ट्रीय व राज्य कमीशन को भी पर्याप्त अधिकार प्रदान किये गये है, साथ ही साथ बच्चों की शिक्षा सम्बन्धी किसी भी शिकायत के लिए अधिकारितायुक्त स्थानीय प्राधिकरण की भी व्यवस्था की गयी है।
यह अधिनियम इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि हमारे देश में बच्चों की इतनी बड़ी संख्या को प्रभावित करने वाला यह एक मात्र अधिनियम है। उम्मीद कर सकते है कि इस अधिनियम के जमीनी स्तर पर ठोस रूप से लागू करने तथा भारत के सभी बच्चों को निःषुल्क, गुणवत्तापूर्ण, और भेदभाव रहित शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए लड़ाई एक साथ आगे बढ़ेगी तथा इस अंतहीन सफर को अपना मुकम्मल मुकाम हासिल होगा।
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