भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी के बारे में जसवंत सिंह ने जो कुछ कहा है उससे यह बात साफ हो जाती है कि आडवाणी जी पर सत्ता का शैतान हावी रहा है. इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में उन्होंने सत्ता के नशे में हमेशा पार्टी को परास्त करने की कोशिश की है. जसवंत सिंह का बयान हो या आडवाणी जी द्वारा राम मंदिर आंदोलन के संदर्भ में दिया गया बयान, साबित करता है कि आडवाणी जी पर सत्ता का शैतान हावी रहा है. सत्ता के इस शैतान ने विरोधियों की नजर में भी ईमानदारी की धमक रखनेवाले आडवाणी को राजनीतिक महत्वाकांक्षा का हैवान बना दिया है. वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय का विश्लेषण.
लालकृष्ण आडवाणी की कुछ विशिष्टताएं रही हैं। बहुत पहले शरद यादव ने मुझसे कहा था कि ज्यादातर नेता अकेले में कुछ कहते हैं और खुलेआम कुछ और, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी सार्वजनिक तौर जो कहते हैं, निजी तौर पर भी उनका वही मत होता है। खास बात यह है कि शरद यादव ने यह बात तब कही थी, जब वे आडवाणी के घोर विरोधी व आलोचक थे। इससे यह समझा जा सकता है कि लालकृष्ण आडवाणी के जीवन में एक ऎसा दौर रहा है, जब वे जो कहते थे, वही करते थे, लेकिन आडवाणी का मौजूदा दौर ऎसा विपरीत लग रहा है कि जिससे उनके समर्थक भी खिन्न हैं और चकित भी।
वास्तव में आडवाणी में यह बदलाव सत्ता की राजनीति से प्रेरित है। इसे पहली बार 2005 में महसूस किया गया, जब वे एक यात्रा पर पाकिस्तान गए और जिन्ना की तारीफ की। वहां जिन्ना की तारीफ में दिए गए उनके बयान से तूफान खड़ा हो गया। आडवाणी, जो कभी राष्ट्रीयता की राजनीति के प्रतीक थे, अचानक सेकुलर बनने की कोशिश करते नजर आए। उन दिनों मुखर पत्रकार भानुप्रताप शुक्ल ने अपने लेख में इसका जिक्र किया था और लिखा था कि भारत विभाजन की त्रासदी को भुलाया नहीं जा सकता और जीवन भर लालकृष्ण आडवाणी राष्ट्रीयता की धारा के प्रवक्ता रहे हैं। आखिर उन्होंने जिन्ना की प्रशंसा क्यों की? तभी उनकी राजनीति पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया था। जिन्ना की तारीफ का मतलब होता है उस राजनीति का मान बढ़ाना, जिसकी वजह से विभाजन हुआ था और जिसकी त्रासदी हम आज भी भुगत रहे हैं। पाकिस्तान बन जाने मात्र से अखंड भारत भुलाया नहीं जा सकता। पहले आडवाणी राष्ट्रीयता की राजनीति के सहारे सत्ता में पहुंचने का आभास देते थे, लेकिन उनके जिन्ना सम्बंधी बयान ने साबित कर दिया कि वे सेकुलर छवि के साथ सत्ता में आना चाहते हैं। उस बयान ने उनकी छवि को धूमिल किया। इतना बड़ा विवाद पैदा हुआ कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उन्हें भाजपा के अध्यक्ष पद से हटवाया। वे पद छोड़ने को तैयार नहीं थे। इसके बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मन मारकर लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनवाया, लेकिन संघ और भाजपा की कोशिशें रंग नहीं लाई। आडवाणी को जनता ने स्वीकार नहीं किया और 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को चौंकाने वाली हार नसीब हुई। उसके बाद से पार्टी के अंदर भी यह सवाल खड़ा है कि आडवाणी भारतीय जनता पार्टी को बदलना चाहते हैं या वे भाजपा को कांग्रेस-ए बनाना चाहते हैं। इस सवाल का हल स्वयं भाजपा को खोजना होगा।
उनके बयानों में दो बयान ऎसे हैं, जो उनकी एक अन्य विशेषता "ईमानदारी" पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। दिसम्बर 2010 में उन्होंने अपने ब्लॉग पर लिखा, "भाजपा में उमा भारती की वापसी की योजना तैयार है, उनके हां का इंतजार कर रहे हैं।" इस टिप्पणी ने भी विवाद पैदा किया और लोग यह जानने की कोशिश करने लगे कि क्या वाकई उमा भारती को भाजपा में लाने की कोई योजना है। सच्चाई यह है कि पिछले पंद्रह महीनों से आडवाणी का यही मत है कि उमा भारती को भाजपा में आना चाहिए, लेकिन उनके सहयोगी नेता उमा भारती का रास्ता रोके हुए हैं। ऎसे में, ब्लॉग पर लिखना एक तरह से आडवाणी की घबराहट को ही प्रकट करता है। सच्चाई यह है कि भाजपा में आडवाणी के सहयोगी ही उमा भारती की राह में पहाड़ बनकर खड़े हैं। इसलिए आडवाणी का उमा भारती की वापसी सम्बंधी बयान सच्चाई से परे है। आडवाणी अगर पहले की तरह हो जाते, तो वे इसके खिलाफ खुलकर बोलते, अपनी पार्टी को समझाते, लेकिन उन्होंने साफ तौर पर अपना मत रखने की बजाय भ्रम को ही बढ़ाया है।
आडवाणी का जो काला धन सम्बंधी बयान है, उस पर भी लोगों में नाराजगी है। एक सवाल खड़ा हो गया है कि उन्होंने सोनिया गांधी से माफी क्यों मांगी। भाजपा ने 2009 के चुनावों के पहले एक टास्क फोर्स बनाया था। करीब दो साल के शोध और जानकारी एकत्र करने के बाद जनवरी 2011 में रिपोर्ट जारी हुई। उस रिपोर्ट को भाजपा ने अपने चुनाव चिन्ह के साथ छपवाया है। उस रिपोर्ट में यह बात भी शामिल है कि सोनिया गांधी और उनके परिवार का काला धन भी विदेश में जमा है। इस रिपोर्ट के प्रकाश में आने के बाद सोनिया गांधी ने आडवाणी को पत्र लिखा और आडवाणी ने उनसे माफी मांगी। आडवाणी का पत्र मीडिया में चला गया और सभी ने जाना कि आडवाणी ने माफी मांगी, लेकिन आज तक कोई यह नहीं जानता कि सोनिया गांधी ने आडवाणी को क्या पत्र लिखा था। आडवाणी के पत्र से एक धारणा यह बनी कि वे सोनिया गांधी के दबाव में हैं। छह-सात साल सत्ता में रहे आडवाणी का आखिर वह कौन-सा पक्ष है कि वे पीछे हट गए। इसका स्पष्टीकरण स्वयं आडवाणी ही दे सकते हैं।
जहां तक बाबरी विध्वंस पर दुख जताने और उससे भाजपा की छवि खराब होने सम्बंधी उनके बयान का सवाल है, तो यह बयान भी उनकी छवि के विपरीत है। अगर एक पुराने मामले को मनमोहन सिंह की सरकार जिंदा कर रही है और उससे अगर आडवाणी डर जाते हैं, तो इससे यही आम धारणा पुष्ट होती है कि वे वर्तमान केन्द्रीय सत्ता के दबाव में काम कर रहे हैं। मैं यह मानता हूं कि आडवाणी जब राष्ट्रीयता की राजनीति करते थे, तब उनका विवेक जागृत रहता था और वे ऎसा कोई काम नहीं करते थे, जिससे उनके व्यक्तित्व पर आंच आए, लेकिन अब ऎसा लगता है कि सत्ता का शैतान उनके ऊपर इस कदर हावी है कि वे इस तरह की भाषा बोल रहे हैं जो न केवल भाजपा के लिए बल्कि भारतीय राजनीति और खुद उनके लिए भी प्राणघातक है।
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