शायद यह पहली बार हुआ है कि लोकतंत्र की सारी संस्थाएं संदेह के घेरे में आ गयीं.प्रधानमंत्री समेत समूची कार्यपालिका, पक्ष -विपक्ष समेत समूची विधायिका, न्यायपालिका, नौकरशाही,जांच एजेंसियां , सेना, ज्ञान विज्ञान की संस्थाएं, विश्विद्यालय, पत्रकारिता, स्वास्थ्य प्रणाली.!गरज कि भरोसे की कोई जगह नहीं रही.यह नहीं की व्यवस्था का कोई भी हिस्सा भ्रष्टाचार से अछूता नहीं रहा .लगता यह है की सारा कुछ संचालित ही भ्रष्टाचार से हो रहा है.
ऐसी सम्पूर्ण संदेह की स्थिति किसी भी व्यवस्था के लिए खतनाक है. इस से ऐसी व्यापक अराजकता पैदा हो सकती है , जिसे नियंत्रित करना नामुमकिन हो जाए. इस लिए व्यवस्था को ऐसे किसी टोटके की सख्त जरूरत थी , जिस से , किसी न किसी शक्ल में , भरोसे और उम्मीद की हलकी सी सांस बहाल की जा सके. अन्ना के आन्दोलन ने ठीक वही टोटका मुहैया कर दिया. अब अगले कुछ समय के लिए व्यवस्था चैन की सांस ले सकती है. कुल मिला कर अन्ना ने इस भ्रष्ट तंत्र को राहत पहुंचाने का काम किया है.इसी लिए मीडिया ने, चिकने चुपड़े लोगों ने और आस्था के कारोबारियों ने बढ़ चढ़ कर अन्ना को अपनी पलकों पर बिठाया है.
उन की योजना के भावी परिणाम अवाम के लिए और भी भयावह होने वाले हैं.वे एक ऐसे परम शक्तिशाली सत्ता केंद्र की रचना करना चाहते हैं, जिस पर अवाम का कोई नियंत्रण नहीं होगा.उस के चुने जाने में अवाम की कोई भूमिका नहीं होगी. वह किसी भी रूप में अवाम के प्रति जवाबदेह नहीं होगा. यह लोकतंत्र के भीतर एक सर्वशक्तिमान गैरलोकतांत्रिक केंद्र का निर्माण करेगा. सत्ता और आस्था के' 'स्वामियों' को और क्या चाहिए?.ताकत की ऊपर उल्लिखित तमाम संस्थाओं को वैसे भी वे संचालित करते हैं. एक लोकतांत्रिक जवाबदेही से थोड़ी बहुत परेशानी रहती है. अन्ना उस का भी इंतज़ाम किये दे रहे हैं. सत्ता के सभी निकाय सत्ता की ही सेवा करते हैं. जनलोकपाल भी और क्या करेगा. क्या स्वर्ग से गांधी जी या भगत सिंह को उतारा जाएगा लोकपाल बनने के लिए ?एकाध बार कोई ईमान वाला मिल भी जाए , अगली बार क्या होगा ?
ऐसे ढेर सारे सवाल अन्ना के आन्दोलन के सन्दर्भ में उठाये जा रहे हैं. ये सवाल बेमानी नहीं हैं.
तो क्या आगे बढ़ने का कोई रास्ता बचता है ?नहीं बचता , ऐसा कहना यह मान लेना होगा की हमारी दुनिया से कल्पना का अंत हो चुका है.
भ्रष्टाचार क्या है ?गैर कानूनी तरीके से संपत्ति और ताकत इकट्ठा करना .लेकिन नाजायज ताकत क्या केवल गैर कानूनी तरीकों से ही हासिल की जाती है ? हमारी आँखों के सामने गरीब किसान कानूनी तरीके से अपनी जमीनों से महरूम किये जा रहे हैं, जब कि तमाम पुराने और नए भूस्वामी कानूनी तरीकों से बेशुमार जमीनों पर कब्ज़ा जमाये बैठे हैं और नयी जमीने हड़पते जा रहे हैं. पूंजीपति कानूनी तरीकों से अपनी पूंजी के साम्राज्य का निरंतर विस्तार किये जा रहे हैं.रामदेव जैसे बाबा भी कानूनी तरीकों से अब बहुराष्ट्रीय निगमों के मालिक बन गए हैं. नेताओं और बाबाओं ने ''जनता के चंदे ''के कानूनी तरीकों से भी अपार संपत्ति इकट्ठी की है.इस देश में जितना गैर कानूनी भ्रष्टाचार है , उस से कम कानूनी भ्रष्टाचार नहीं है.
इस लिए एक और क़ानून से भ्रष्टाचार दूर हो जाएगा, ऐसा सोचना खामखयाली ही है.
तो क्या क़ानून को ठीक करने की सारी लडाइयां बेमानी हैं?क्रांतिकारी व्यवस्था परिवर्तन ही एकमात्र समाधान है ?क्रांतिकारी व्यवस्था के कौन से प्रारूप हमारे पास हैं?हम ने बेशुमार क्रांतियों को प्रतिक्रान्तियों में बदलते देखा है .हम जब तक क्रांति को व्यवस्था के इस या उस प्रारूप के सन्दर्भ में समझते रहेंगे , यही होगा. एक सचेत , सक्रिय , स्वाभिमानी और संघर्षशील जनसमुदाय ही क्रांति का निर्माण और उस की सुरक्षा कर सकता है. इस जनसमुदाय का निर्माण केवल उन्ही सामजिक वर्गों और श्रेणियों से हो सकता है , जो अन्याय के शिकार हैं , और उस के प्रति जागरूक भी. बदलाव के लिए इस जन समुदाय को सचेत , सक्रिय और संगठित करना बदलाव चाहने वालों की सतत जिम्मेदारी है. इस का मतलब है क्रांतिकारी लोकमत का निर्माण.
क़ानून ठीक करने की लड़ाई भी लोकमत निर्माण की प्रक्रिया का एक जरूरी हिस्सा है. यह बात विडम्बनापूर्ण लग सकती है कि ऐसी लड़ाइयों की कामयाबी किसी न किसी तरह से एक संकटग्रस्त व्यवस्था के लिए राहत की तरह भी देखी जा सकती है. लेकिन , दूसरी तरफ उसे क्रांतिकारी लोकमत के निर्माण के एक चरण के रूप में भी देखा जा सकता है. व्यवस्था इस से खतरा न महसूस करती तो साधारण कानूनी सुधारों के लिए भी इतनी घनघोर जद्दोज़हद की जरूर नहीं पड़ती. लोकपाल के अलावा महिला विधेयक समेत तमाम उदाहरण हमारे सामने हैं.
अन्ना के आन्दोलन के पीछे लोकमत की वास्तविक ताकत न होती , तो 'नागरिक समाज ' के अनगिनत दूसरे आन्दोलनों की तरह यह भी मुंह के बल गिर गया होता. इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि इस आन्दोलन के पीछे असली ताकत थी नौजवानों के सक्रिय और संकल्पात्मक समर्थन की. नौजवान इतनी बड़ी तादात में अन्ना के पीछे क्यों आये ?इतना उन्हों ने अछ्छी तरह समझ लिया है की इस भ्रष्ट व्यवस्था में भविष्य के ,इज्ज़त और आज़ादी के , उन के सारे सपने घोर संकट में हैं.
जिन लोगों को इस युवा लोकमत की कोई समझ नहीं है , वे ही यह सोच सकते हैं की लोकपाल के नाम पर एक बिठलाये गए तानाशाह को उन का समर्थन मिल जाएगा. लोकपाल की नया संस्था कैसी होनी चाहिए , इस पर बहस सरगर्म है , और वह जितनी ही तीखी होगी , हम उतने ही बेहतर प्रारूप तक पहुँच पायेंगे.
यह कतई जरूरी नहीं है की नया लोकपाल लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी ही बन जाए. हर कोई जानता है हमारे देश में लोकतंत्र कितनी सीमाओं और समस्याओं से घिरा हुआ है.लोकपाल जैसी संस्थाएं इन मुश्किलों को हल करने के नए उपाय मुहैया कर सकती हैं. लोकपाल के चुनाव को लोकतांत्रिक बनाने , उस पर लोकतांत्रिक निगरानी रखने , और गड़बड़ होने पर उसे हटाने और दण्डित करने के लोतान्त्रिक तरीके भी ढूंढें जा सकते हैं. यह जरूरी है की समाज के तमाम वर्ग इस विधेयक की रचना प्रक्रिया में वैचारिक रूप से शामिल हों.
यह भी जरूरी है की कानून को बेहतर करने के साथ काले कानूनों को हटाने की मुहिम भी ताकतवर तरीके से शुरू की जाए. सारे दमनकारी क़ानून अन्याय के विरुद्ध जनता की प्रतिक्रया को कुचलने के लिए ही इस्तेमाल किये जाते है. काले क़ानून काली अर्थव्वस्था और काली राजनीति के संरक्षण के काम आते हैं. इन कानूनों पर व्यापक बहस और उन के निर्मूलन के लिए जन पहलकदमियां भारत मेंक्रन्तिकारी लोकमत के निर्माण का ठीक अगला , जरूरी और स्वाभाविक कदम है.
इरोम शर्मिला को सशत्र सेना विशेषाधिकार क़ानून के खिलाफ अन्न जल त्यागे दस साल से ऊपर हो चुके हैं. भारत की युवा पीढी के लिए इस बात को ठीक तरह से समझ लेने का यह बिल्कुल सही मौक़ा है की अन्ना के आगे की लड़ाई का रास्ता उस हस्पताल से गुजरता है, जहां हमारी संवेदनहीन सरकार ने नाक में लगी नलियों से 'जबरन फीडिंग 'करते हुए पिछले दस सालों से एक इंकलाबी लड़की को एक अमानवीय ज़िंदगी जीने की सजा दे रखी है.
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