गांधीवादी अन्ना हजारे के दिल्ली के जंतर मंतर पर आमरण अनशन और उसके समर्थक वर्ग एवं सरकार के नजरिये का विश्लेषण मौजूदा समय की तरह ही बेहद जटिल है।मैं यह लिखता रहा हूं कि इस समय की सबसे अच्छी विधा आज के समय की डायरी लिखना है। रचनाकारों के तौर तरीके समय की गति के सामने पुराने लगने लगे हैं।
अन्ना हजारे आमरण अनशन की पूरी घटना की दृश्यवार रिपोर्टिंग यदि की जा सकती तो समाज को इस आंदोलन को समझने और उस पर अपनी राय बनाने की महत्वपूर्ण सामग्री मिलती। लेकिन मीडिया के तमाम तरह के विस्तार के बावजूद यह नहीं किया जा सका।मीडिया रिपोर्टिंग करना नहीं चाहता है। मीडिया तो तकनीक है। उसका चाहे जैसे इस्तेमाल किया जाए। अब जिस तरह से इस पूरे परिदृश्य का विश्लेषण किया जा रहा है हम उस पर गौर कर सकते हैं। यह सिविल सोसायटी की जीत है।
सिविल सोसायटी है क्या। इस देश में आंदोलन की भाषा में आम लोग,जनता आती रही है।मोटेतौर पर सिविल सोसायटी का मतलब शहरी समाज और उसकी अगुवाई करने वाला प्रभावशाली वर्ग होता है।मीडिया ने आम जनता की परिभाषा को बेहद गड़मड्ड किया है।आम आदमी का एक राजनीतिक दर्शन है।लोकतंत्र और गैरबराबरी के खिलाफ राजनीतिक विचारों के तत्व से यह आम या आवाम बनता है।लेकिन अन्ना हजारे तो गांधीवादी है। महात्मा गांधी राजनीतिज्ञ थे। उन्होने राजनीतिक परिवर्तन के लिए आंदोलन को माध्यम बनाया था।
इस राजनीति से सिविल सोसायटी घृणा करती है।ऐसा मानती है कि देश में राजनीति करने वाले सब एक थैले के चट्टे बट्टे हैं। इन्होने देश का बेड़ा गर्क कर दिया है। इसीलिए राजनीति ही ठीक नहीं है। लेकिन इस सिविल सोसायटी के पास आंदोलन की ना ही ठोस योजना है और ना ही परिवर्तन की कोई ठोस रूप रेखा।उनके आंदोलन के भी नये नये रूप तब दिखाई देते हैं जब कोई फिल्म किसी बाहरी फिल्म से विरोध का रूप दिखा जाती है।
सिविल सोसायटी का अब तक सबसे उन्नत और महंगा आंदोलन का शौक कैंडिल मार्च से पूरा हुआ है।लेकिन इस समाज में परिवर्तन के लिए गांधीवादी तरीकों का एक मिथ बना हुआ है। वे अन्ना ही कर सकते हैं।अब दो तरह की बातें यहां एक दूसरे में गडमडड होती है। सिविल सोसायटी का सुधार का दायरा और अन्ना की गांधीगिरी।गांधीगिरी को भी इस समय सिविल सोसायटी ही चाहिए।उसकी राजनीति का दायरा भी सिमट गया है।
दूसरी बात संदेश को फैलाने में एक नया पहलू दिखाई देने लगा है।अन्ना ने तब आंदोलन शुरू किया जब देश में भ्रष्टाचार के विरोध में लोगों के बीच गुस्सा था।भ्रष्टाचार की कहानी हाल के वर्षों में अंतुले के सिमेंट कांड से लेकर बोफर्स तोप के सौदे की दलाली और उसके बाद सरकार द्वारा गांव तक भेजे जाने वाले एक रूपये में पच्चासी पैसे के हड़प जाने एवं राष्ट्रमंडल खेल, स्पेक्ट्रम टू जी तक पहुंची है।
इस भ्रष्टाचार के बीच एक तरफ बीस रूपये से कम पर गुजारा करने वाली आबादी की संख्या 76 प्रतिशत पहुंच गई है और दूसरी तरफ सिविल सोसायटी का एक वर्ग नौकरशाह,धार्मिक नेता, संसदीय राजनेता, फिल्म स्टार, वकील, जज, मीडिया मालिक और उसके अधिकारी एवं तरह तरह के उद्दयोग धंधे करने वाला बहुराष्ट्रीय समूह मिनट दर मिनट अबुझ गुना अमीर होता चला गया है।योग व्यापारी रामदेव भी बहुराष्ट्रीय कंपनी के मालिक हो गए हैं ।संदेश ये फैलाया गया कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आजादी की लड़ाई लड़ी जा रही हैं।
भारतीय समाज के लिए इस समय का सबसे ताकतवर संदेश है यह। लेकिन अन्ना ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई की शुरूआत नहीं की थी। उन्होने जन लोकपाल कानून के लिए लड़ाई शुरू करने का संदेश दिया था। इसके कानून बनने के बाद इसके जांच की हद में राजनेता और नौकरशाह आते हैं।भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई राजनीतिक स्तर पर परिवर्तन तक जाती है।इस नारे में लगातार विस्तार दिखाई देता है। लेकिन अन्ना को सिमटी लड़ाई का अभ्यास है। उन्होने राजनीतिक लड़ाई नहीं शुरू की है और ना ही सिविल सोसायटी को इसकी जरूरत है।
संदेश में लड़ाई की प्राथमिकता बहुत साफ थी लेकिन नये समय का यही खेल है कि संदेश को अपने अनुकूल ग्रहण करने की आदत डाल दी गई है। अन्ना ने जीत हासिल कर ली। यह बड़े जोर शोर से स्थापित हो गया है। सरकार ने भी सिविल सोसायटी की बात मानकर लोकतांत्रिक होने की स्वीकृति हासिल कर ली। अन्ना डरे राजनीतिज्ञों के सामने एक नई चुनौती की तरह खड़े हो गए है।देश में गांधीगिरी सिविल सोसायटी का आंदोलन है, यह एक नई स्थापना देखने को मिल रही है।देश में बहुत सारे लोग संविधान की मूल भावना के लिए गांधीगिरी कर रहे हैं लेकिन सरकार कहती है कि सिविल सोसायटी के पास जाओ।
तीसरी बात अन्ना की एक और उपलब्धि है। उन्होने सिविल सोसायटी को वर्षों बाद सड़क पर उतारा है।जे पी ने भी सिविल सोसायटी पर जोर दिया था।जंतर मंतर पर हाल के वर्षों में बहुत सारे कार्यक्रम हुए। दिल्ली से बाहर के लोग आए। किसान, मजदूर, दलित , अल्पसंख्यक, आदिवासी सब आए।सिविल के कार्यक्रम मौके दर मौके हुए। लेकिन इसमें आम सिविलियन मौजूद दिखाई दिया और उसने जीत हासिल की। देश का आम गुस्सा सिविलियन की जीत में तब्दील होते यहां देखा गया। इस सिविलियन को केवल जन लोकपाल चाहिए था।
जन लोकपाल का मतलब सिविलियन तय करेंगे कि किस भ्रष्ट के साथ कैसे निपटना है।वोटर और सिविल के चुनाव में एक फर्क पैदा दिखाई देने लगा है। यहां का आम सिविलियन फांसी देने की मांग करता है।आंदोलन में अपने चेहरे के लिए कैमरे का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करता है।भारत माता की जयकारा करता है। वंदे मातरम पर जोर लगाता है।आंदोलन एक उत्सव के साथ किया जा सकता है यह इसे स्थापित करता है।
देश का आम गुस्सा सिविलियन की जीत में बदल गया इसे वह राजनीति कहने की तोहमत को खारिज करता है।वह सबके समर्थन पर विश्वास करता है लेकिन मंचों पर सिविल लीडरशिप को देखना पसंद करता है। आर्यसमाजी, गांधीवादी, भारत माता और वंदे मातरम भ्रष्टाचार के खिलाफ उनके राष्ट्रवाद को प्रमाणित करता है।जो परिवर्तन की राजनीति करने वाले हैं वे दिल्ली के कनॉट प्लेस तक सिमटे हुए हैं और वे वर्षो से इस आम सिविलियन को अपनी ओर जोड़ने में नाकामयाब रहे हैं।उन्हें अपने संदेश का वाहक बनाने में सफलता नहीं मिलती है। एक निश्चित दूरी सी दिखने लगी है –सिविल सोसायटी के आंदोलन और लोगों के आंदोलन में। संविधान में सबकी नागरिकता एक सामान है।
लेकिन आंदोलन के लिए अब दो तरह की नागरिकता का एहसास हो रहा है। भ्रष्टाचार के अर्थ भी दो तरह से प्रस्तुत हो रहे हैं।सरकार भी दो तरह के रूख में दिख रही है।सरकार भी जीत रही है और आंदोलनकारी भी जीत रहे हैं। गांधी भी दो तरह से इस्तेमाल हो रहे हैं। एक गांधीगिरी करके जीत रहा है और एक गांधी के आंदोलन का रास्ते पर खड़ा सरकार का वर्षों से इंतजार कर रहा है।अन्ना के आमरण अनशन पर विश्लेषण के लिए थोड़ा वक्त चाहिए।
शनिवार 9 अप्रैल को अनशन खत्म हो गया तो वैसे लोगों को बेहद अफसोस हुआ जिन्होने भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना के पास छुट्टी के दोनों दिन में किसी दिन जाने का मन बनाया था। किसी विश्लेषण पर अफसोस करने के बजाय थोड़ा धैर्य रखा जाए। सरकार, समाज और सिविल सोसायटी विचार करेंगे कि भ्रष्टाचार आखिरकार कैसे खत्म होगा।
सिविल सोसायटी की जीत पर विचार करें
अनिल चमड़िया पत्रकारिता में एक्टिविज्म के प्रबल समर्थक और वरिष्ठ पत्रकार. उनसे namwale@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
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