अन्ना हजारे के अनशन त्यागने (अगस्त 2011) के बाद, पूरे देश ने मानो राहत की सांस ली। एक मुस्लिम और एक दलित लड़की के हाथों से नारियल पानी पीकर अन्ना ने अपना उपवास तोड़ा। ऐसा शायद यह दर्शाने के लिए किया गया कि अन्ना के आंदोलन को केवल पढ़े-लिखे, शहरी मध्यम वर्ग का ही नहीं वरन् समाज के सभी तबकों का समर्थन प्राप्त है। परंतु अब, अनेक दलित व मुस्लिम नेता अन्ना के इस दावे को गलत ठहरा रहे हैं कि उनके आंदोलन में पूरे समाज की भागीदारी थी। परेशानहाल कांग्रेस ने तो यह तक कह डाला कि अन्ना, आरएसएस के एजेन्ट हैं। ये आरोप कहां तक सच हैं?
यह सही है कि अन्ना कभी काली टोपी पहनकर लट्ठ घुमाने वाले स्वयंसेवक नहीं रहे। संघ परिवार (विहिप, बजरंग दल, भाजपा आदि) से भी उनका कोई सीधा या औपचारिक संबध नहीं रहा। यह अलग बात है कि आरएसएस के स्तंभों में से एक, एच. व्ही. शेषाद्री ने अन्ना का गुणगान करते हुए एक पुस्तक लिखी थी जिसमें उन्होंने अन्ना के गांव रालेगांव सिद्धि को आदर्श गांव बताया था और यह भी कहा था कि रालेगांव सिद्धि, संघ की आदर्श गांव की परिकल्पना के काफी निकट है। इस गांव में कभी चुनाव नहीं होते और अन्ना के शब्द ही वहां कानून हैं। वहां शराबबंदी लागू करने के लिए शराबियों को खंभे से बांधकर पहले जूते मारे जाते थे और फिर उनके मुंह पर कालिख पोतकर और गधे पर बैठाकर पूरे गांव में घुमाया जाता था। रालेगांव सिद्धि में जाति व्यवस्था को काफी कड़ाई से लागू किया जाता है।
मार्च 2011 में आरएसएस ने भ्रष्टाचार के विरूद्ध आंदोलन शुरू करने का निर्णय लिया। यह वह समय था जब संघ की राजनैतिक शाखा, भाजपा तेजी से गर्त में जा रही थी। हिन्दुत्वादी आतंकवाद के बारे में रोज नए-नए खुलासे हो रहे थे और मोदी के आपराधिक मुकदमों में फंसने की संभावना बढ़ती जा रही थी। पहले संघ ने अपने भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन को संचालित करने के लिए बाबा रामदेव को चुना। इस आंदोलन में रामदेव के समर्थकों के अलावा संघ की भारी-भरकम परंतु अदृश्य फौज की भी भागीदारी थी। लगभग इसी समय अन्ना ने भी अपने जनलोकपाल बिल के समर्थन में आंदोलन शुरू किया। अन्ना के अप्रैल 2011 के अनशन के लिए भी आरएसएस ने अपने “शाईनिंग इंडिया“ समर्थकों को लामबंद किया था। बिल का मसौदा तैयार करने के लिए संयुक्त समिति के गठन के बाद अन्ना का आंदोलन स्थगित कर दिया गया।
अन्ना आंदोलन के पहले दौर में ही यह स्पष्ट हो गया था कि आरएसएस, प्राणपण से उनका साथ दे रहा है। मंच की पृष्ठभूमि में थीं भारत माता और जंतर मंतर में वंदे मातरम् और भारत माता की जय के नारे गुंजायमान हो रहे थे। आलोचनात्मक टिप्पणियों के चलते, अन्ना ने अपने आंदोलन के दूसरे दौर में अपनी रणनीति में कुछ परिवर्तन किए। “यूथ अंगेस्ट करपशन“ सहित संघ परिवार के कई संगठनों ने आंदोलन के लिए समर्थन जुटाया। इसमें कोई संदेह नहीं कि आंदोलन में उन वर्गों का एक हिस्सा भी शामिल हुआ जो बढ़ती कीमतों और सरकारी कल्याण योजनाओं के सीमित होते दायरे से परेशान है। अन्ना को कारपोरेट मीडिया का भी पूरा सहयोग मिला। जहां पिछली बार आरएसएस का हाथ स्पष्ट दिखलाई दे रहा था (राम माधव व साध्वी ऋतंभरा मंच पर थे और गोविन्दाचार्य रणनीतिकार की भूमिका में थे) वहीं इस बार पर्याप्त सावधानी बरतते हुए संघ को पर्दे के पीछे रखा गया। परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि आंदोलन के सभी सूत्र संघ के स्वयंसेवकों के हाथों में ही थे। संघ प्रमुख ने आंदोलन को सार्वजनिक रूप से अपना समर्थन दिया और उनका इतना इशारा काफी था। भ्रष्टाचार में गले-गले तक डूबी भाजपा ने भी सार्वजनिक रूप से ऐसा प्रदर्शित किया मानो वह पूरी तरह अन्ना के साथ है।
यद्यपि भाजपा, भ्रष्टाचार-विरोधी होने का दावा करती है परंतु उसके नेता काली कमाई करने में उतने ही सिद्धहस्त हैं जितने कि किसी अन्य पार्टी के। हम सभी जानते हैं कि सत्ता व्यक्ति को भ्रष्ट बनाती है और निरंकुश सत्ता, उसे पूर्णतः भ्रष्ट कर देती है। यही कांग्रेस के साथ हुआ और भाजपा के साथ भी।
अन्ना के आंदोलन के रणनीतिकारों के अधिकांश लक्ष्य पूरे हो गए हैं। आंदोलन के बाद हुए सर्वेक्षणों से यह सामने आया है कि कांग्रेस के प्रति जनता के रूझान में कमी आई है और भाजपा के प्रति आकर्षण बढ़ा है। भाजपा हमेशा से रामजन्मभूमि, राम सेतु, धर्म परिवर्तन व अन्य ऐसे मुद्दे उठाती रही है जो धार्मिक पहचान से जुड़े हैं और जिनके सहारे भावनाएं भड़काई जा सकती हैं। हर साम्प्रदायिक दंगे के बाद भाजपा के वोटों की संख्या में वृद्धि होती है। बाबरी मस्जिद के ढ़हाए जाने के बाद भाजपा के सांसदों की संख्या में आशातीत बढ़ोत्तरी हुई थी। गुजरात हिंसा के बाद भी भाजपा का ग्राफ बढ़ा था। यही कुछ अन्ना के आंदोलन के बाद भी हुआ है। सर्वेक्षणों से यह साफ हो गया है कि अन्ना के आंदोलन से भाजपा को लाभ ही लाभ हुआ है। आरएसएस व उसके अनुषांगिक संगठनों की पैठ, समाज के उन वर्गों में सबसे ज्यादा है जिन्हें वंचितों की भलाई के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रम फूटी आंखों नहीं सुहाते। उन्हें न तो आरक्षण पसंद है और न ही मनरेगा। इस वर्ग के सदस्यों की संख्या में पिछले कुछ वर्षों में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है।
सर्वेक्षणों के परिणामों से साफ है कि अन्ना आंदोलन से भाजपा को फायदा पहुंचा है। उसके समर्थकों और प्रशंसकों की संख्या बढ़ी है। केवल यही तथ्य इस आरोप की सच्चाई को साबित करने के लिए पर्याप्त है कि अन्ना के आंदोलन के पीछे दक्षिणपंथी ताकतें हैं।
लेखक (राम पुनियानी) आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।
सभी पार्टी देश को डकारने में लगी हुई है। इस देश का भला किसी ने नहीं किया, सबने अपना बैंक का खाता बढाया है।
ReplyDeleteAapne saari baaton ko tod madod ke pesh kiya hai. Mainstream soch toh yeh hai ki congress sarkar ne apne pair pe itni kulhaari maari phir bhi BJP se uska faayda uthaya na gaya.
ReplyDeleteDoosri ore musalmanon ka anna andolan ke prati khule virodh se logon mein maayoosi aur naraazgi bhi rahi.
Azaadi ki ladaai mein musalmaanon ne khul kar hissa nahi liya tha kyonki unki soch yeh thi ki azaad Bharat mein Hinduon ka raaz rahega. Aur aaj bhrashtachar ki ladai mein bhi hissa nahi liya yeh soch ke ki isse BJP ka raj ho jaayega!
Aapki yehi ochhi soch aapki badhali ka kaaran hai.