Thursday, September 15, 2011

बाबरी मस्जिद फैसला और हिंदी लेखक



परिचर्चा
धीरेश
अयोध्या की बाबरी मस्जिद को केंद्र में रखकर मुसलमानों के खिलाफ नफरत की जो मुहिम शुरू की थी, वह इस मस्जिद के विध्वंस के जरिए परवान चढ़ी थी। इस खूनी-आपराधिक मुहिम की बदौलत केंद्र और कई सूबों की सत्ता संघ परिवार समर्थित राजनीतिक दलों ने हासिल कर दिखा दिया था कि उसने देश के संवैधानिक ढांचे में वैधताहासिल कर ली है। गुजरात नरसंहार को अंजाम देने के बावजूद वहां की सरकार में इस जमात की निरंतर मौजूदगी हम देख ही रहे हैं। लेकिन, 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने एक नया कीर्तिमान स्थापित कर सभी तथ्यों, तर्कों और कानून को ताक पर रखते हुए बहुसंख्यकों की आस्था के नाम पर रामलला का जन्मस्थान खोजनिकाला। इस आपराधिक कृत्य पर सवाल उठाने के बजाय मीडिया ने भी इसे शांति और सद्भावना कायम करने वाले ऐतिहासिक फैसले के रूप में प्रचारित करने का अभियान छेड़ रखा है।
फासिस्ट मुहिम के खिलाफ प्रतिरोध जिलाए रखने वाले हिंदी लेखकों के स्वर भी इस बार सुनाई नहीं दिए। शायद पूंजीवादी मीडिया में प्रतिरोधी स्वर के लिए स्पेस भी नहीं था। ऐसे में यह जरूरी था कि इस स्थिति में उठ रहे कुछ सवालों के साथ अपने लेखकों के पास जाया जाए। यह परिचर्चा मोटे तौर पर तीन सवालों के इर्द-गिर्द केंद्रित रखी गई है। पहला यह कि वे बाबरी मस्जिद मसले को किस तरह देखते हैं, दूसरा, हाई कोर्ट के फैसले पर उनकी राय क्या है? आखिरी सवाल, हिंदी जगत में व्याप्त सन्नाटे और मीडिया, खासकर हिंदी मीडिया के रवैये को लेकर था।
सभी लेखकों के पास इतने कम समय और स्थान की सीमा के चलते, पहुंच पाना संभव नहीं था और कुछ लेखकों की अपनी मजबूरियां भी थीं। मसलन, कुंवरनारायण को परिचर्चा का मुद्दा और तीनों सवाल बताए गए तो उन्होंने मजबूरी जताई कि इन दिनों वे इंटरव्यू नहीं दे रहे हैं। नामवर सिंह को 22 सितंबर की शाम को फोन किया तो उन्होंने सवाल सुनने के बाद बताया कि उनके दांत में दर्द है और पांच दिनों तक वह बात करने की स्थिति में नहीं हैं। पांच दिन बाद उन्हें फिर फोन किया गया तो उन्होंने बताया कि अभी दांत में दर्द है और वे अगले पांच दिनों बाद बात कर सकते हैं। अशोक वाजपेयी व्यस्तता के कारण अंत तक समय नहीं निकाल पाये।
राजेंद्र यादव
बौद्ध धर्म की सारी किताबें, मूर्तियां और स्मारक शंकराचार्य के अनुयायियों ने नष्ट कर डाले थे। यहां तक कि बुद्ध की जो भी मूर्तियां मिलती हैं, वे अफगानिस्तान, नेपाल, तिब्बत, रंगून आदि में तो मिलती हैं लेकिन हिंदुस्तान में बुद्ध की एक भी ऐसी मूर्ति नहीं मिलती जो खंडित न हो। इस तरह हम देखते हैं कि हिंदू कम कट्टर नहीं हैं। उन्होंने बाबरी मस्जिद को भी बाकायदा योजनाबद्ध ढंग से ढहा दिया था। कुछ हिंदुत्ववादी नेता भीड़ को रोकने के नाम पर मस्जिद से बाहर खड़े रहे थे और षडयंत्र के तहत महज आधा घंटे में उसे जमींदोज कर दिया गया था। उमा भारती उल्लास में मुरली मनोहर जोशी के कंधे पर बैठकर तस्वीरें खिंचवा रही थीं। उमा भारती और ऋ तंभरा के आग उगलते हुए भाषण बाकायदा रिकॉर्ड हैं। हाई कोर्ट के फैसले में इसका कोई जिक्र नहीं है। यह मानकर चला गया है कि जहां बीच का गुंबद था, वहीं नीचे राम का जन्म हुआ था। कोर्ट ने जिस तरह जमीन का बंटवारा किया है, उसमें बीच में रामलला का मंदिर है, एक तरफ राम चबूतरा है और एक तरफ सीता रसोई। कोर्ट द्वारा मुसलमानों को दिए गए हिस्से में मस्जिद बनाई भी जाती है तो वह राम चबूतरे और सीता रसोई के बीच में होगी। जाहिर है, रोज दंगे होंगे। एक तरह से यह जान-बूझकर किया गया लगता है कि बहुसंख्यक आतंक में दबकर मुसलमान खुद ही कहें कि भैया इस जगह को भी आप ही ले लें। यह फैसला निश्चय ही अन्यायपूर्ण, अवैध और अतार्किक है। यह तर्क और कानून के ऊपर आस्था की विजय है।
आखिर कोर्ट ने यह कैसे तय कर लिया कि राम कहां पैदा हुए थे? अयोध्या में ही राम के करीब 10 मंदिर ऐसे हैं जहां राम का जन्मस्थान होने का दावा किया जाता है। कोर्ट ने कानून पर आस्था को तरजीह दे दी है तो हर कहीं आस्था और अंधविश्वास को वैधता मिल जाएगी। सती, नर बलि आदि को भी परंपरा और आस्था के नाम पर सही ठहराया जा सकता है। फिर तो खाप-पंचायतें भी प्रेमी-प्रेमिकाओं के गले काटने को अपनी आस्था और परंपरा के आधार पर अपना अधिकार मानेंगी। ओझे, सयाने, झाड़-फूंक करने वाले औरतों को डायन बताकर क्यों नहीं पीटेंगे?
बाबरी मस्जिद तोड़ी गई थी तो हिंदुओं ने पाकिस्तान और बांग्लादेश में मंदिर तोड़े जाने का रोना रोया था। तरुण विजय आज भी गिनाते रहते हैं कि पाकिस्तान में कितनी मस्जिदें तोड़ी गईं और मुंबई में ब्लॉस्ट हुए। एक बात बताइए कि आप तो खुलेआम मस्जिद तोड़ दें और फिर चाहें कि दूसरा पक्ष कुछ भी न करे। हिंदुस्तान में हिंदुत्व की राजनीति करने वाले यह भी भूल जाते हैं कि उनकी वजह से पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदू कितने असुरक्षित हो जाते हैं। बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों के उत्पीडऩ को आधार बनाकर तस्लीमा नसरीन ने लज्जा उपन्यास लिखा था तो पांचजन्य ने कहा था कि देखिए, मुसलमान कितने अत्याचारी हैं। लेकिन, हिंदुस्तान में भी बहुसंख्यकों के आतंक का ही नतीजा है कि बाबरी मस्जिद के ऐसे फैसले को लेकर मुसलमान चुप हैं। कुछ बूढ़े-बुजुर्ग जो लंबे समय से इस मसले में लगे हैं, सुप्रीम कोर्ट जा रहे हैं पर सच कहूं तो मुझे सुप्रीम कोर्ट से भी कोई बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं है। लेकिन क्या वाकई इस तरह मसले का निपटारा हो सकता है? हाई कोर्ट के फैसले ने भी शांति स्थापित करने के बजाय भीतर आग लगा दी है जो फिर भड़क सकती है।
एक बात यह भी कि बाबर के एक जनरल मीर बाक़ी ने जो मस्जिद बनवाई थी, वह तो आपने तोड़ दी लेकिन देश में आप क्या-क्या तोड़ेंगे? राम पर एक बहस में हिस्सा लेते हुए मैंने कहा कि राम ने लंका पर आक्रमण किया, रावण की बहन की नाक काटी। नाक काटने के मुहावरे का सीधा अर्थ है इज़्जत लेना। बाबर भी 1,800 सैनिकों के साथ हिंदुस्तान आया था। उसने भी यहां के लोगों को मिलाकर अपना साम्राज्य स्थापित किया। फिर राम और बाबर में अंतर क्या है, जो राम का इतना महत्व गाते रहते हैं? हालांकि राम सिर्फ मिथकीय चरित्र है और उसका कोई पौराणिक महत्व भी नहीं है। वाल्मीकि से पहले राम का कहीं जिक्र शायद ही मिलता हो।
हमारी राजनीति ने सांप्रदायिक समस्याओं को इतना दूषित और जटिल बना दिया है कि कोई गुजांइश नजरही नहीं आती है। लगता नहीं है कि हम लोगों की जिंदगी शांति से गुजर पाएगी। अशांति रहेगी, आतंकवादी विस्फोट होंगे। हिंदुत्व की राजनीति करने वालों को इससे कोई मतलब नहीं है, उन्हें लाशों का ढेर लगाकर दिल्ली के सिंहासन पर बैठना है। हिंदुत्व की राजनीति संगठित है और हिंदू वोटों के लालच में यूपीए सरकार का रवैया भी नर्म है। कांग्रेस कोर्ट के फैसले का समर्थन ही कर रही है। रामभक्त कोर्ट में हो सकते हैं तो कांग्रेस में क्यों नहीं?
हिंदी लेखकों ने इस मसले पर जो कुछ भी लिखा, इस फैसले को आस्था और अंधविश्वास की विजय ही बताया है। भगवान सिंह, कृष्णदत्त पालीवाल जैसे कुछ लोगों को छोड़ दीजिए जिन्होंने हिंदुत्व की बात कही है। कुछ लेखकों का स्वर नर्म हो सकता है पर अधिकांश लेखक अपने स्टेंड पर कायम हैं। मुझे नहीं लगता कि हिंदी लेखकों में पुनरुत्थानवाद की कोई लहर चल रही है।

कृष्णा सोबती

हम भारतीयों के मर्यादा पुरुष राम के नाम की अर्जित महिमा और गरिमा को जिस तरह एक राजनीतिक महत्वाकांक्षी खेमे ने राजनीति के सांस्कृतिक विज्ञापन की तरह रथयात्रा में सड़कों पर उतारा, वह भारतीय मानस को गुमराह करने की शर्मनाक कोशिश थी।
यह लोकतांत्रिक प्रणाली और धर्मनिरपेक्षता पर कीटनाशक रसायन से छिड़काव करने का प्रयास था जिसे वोट बैंक का आंकड़ा बढ़ाने के लिए किया गया था। जिसे नेतागण सांस्कृतिक आस्था का नाम देते हैं, वह दरअसल देश की हिंसक प्रवृत्तियों का ही प्रदर्शन था। लोकतंत्र के धर्मनिरपेक्ष पक्ष के बदले सांप्रदायिकता को भड़का देने का प्रदर्शन। बरसों पहले जिस दिन रामलला के नाम पर बाबरी मस्जिद का ढांचा गिराया गया, उस शाम इकट्ठे हुए दर्जनों लेखक इस आक्रामकता से घायल हुए एक-दूसरे को लाचारी से देख रहे थे। जैसे यह सदियों बाद पुराने आक्रमणकारियों को बहुत ही मामूली जवाब देने का दृश्य हो। विस्मयकारी था कि हम आजादी के पक्ष में विभाजन की त्रासदी को अब तक कुछ संतुलित कर चुके थे और यह एक बार फिर वोट के लिए नया विभाजन हो गया था। दुर्भाग्यपूर्ण प्रतिबद्धताएं, आक्रामक, हिंसात्मक, तत्वहीन मुद्दे जिन्हें राजनीतिक रूप दिया जा रहा था, धर्म के नाम पर सेंध लगाए एक बार फिर बंटवारा कर रहे थे। अगर यह राजनीतिक दल किसी अच्छी विज्ञापन एजेंसी को सांस्कृतिक उत्थान का काम सौंपता तो न मर्यादा पुरुष राम की छवि सड़कों पर रौंदी जाती और न रामलला के तथाकथित स्थान के नाम पर इस ढांचे को बर्बाद करने का अनाचार होता और वह भी धार्मिक आचार-विचार के नाम पर। इस बौद्धिक विश्लेषण से परे की शाम में मैं और कुर्रतुल एन हैदर आमने-सामने खड़े हैं, जैसे उन्होंने बंटवारा करवाया हो और बदले में हमने बाबरी मस्जिद को तोड़ गिराया हो। वह हमें दंगों की विरासत में मिली शाम थी।
अब बरसों बाद फिर अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की शाम है। भारत का नागरिक समाज अब इतना तो जानता है कि राम जन्मभूमि को लेकर जो नकारात्मक वैचारिक जगमग बनाया गया था, उसे अब समानता के लोकतांत्रिक मूल्यों के समक्ष खड़ा नहीं किया जा सकता। राष्ट्र ने वयस्क भंगिमा में यह सिद्ध कर दिया मगर इस विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के तराजू में एक ओर तर्क और एक ओर आस्था रख दी गई। हम लोग एक बार फिर चिंतित हैं, इस बार माननीय उच्च न्यायालय के निर्णय पर क्योंकि इस निर्णय से एक बार फिर गंभीर सवाल उठ खड़े हुए हैं। इस विवाद को हल करने का न्यायालय ने जो भी मध्यस्थता का निर्देश देने को आस्था का सहारा लिया है, क्या वह सचमुच तर्क और आस्था के बीच एक नया प्रश्नचिह्न नहीं लगाता है? इस विवाद को हल करने की अपेक्षा रखते हुए यह भी क्यों जरूरी नहीं समझा गया कि जिस तरह बाबरी मस्जिद ढांचे का विध्वंस किया गया, वह अपराध की श्रेणी में आता है। उसे बिना किसी जुर्माने और हर्जाने के निर्णय में मौन रखा गया है। यह समानता और भारतीय लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनकूल नहीं।
यह हकीकत कि बाबरी ढांचा तोड़ा गया, एक गंभीर मामला है। कोई भी नागरिक किसी भी ढांचे को, छोटे- बड़े या पुराने खंडहर को जिस पर उसका स्वामित्व नहीं, तोड़ता है या नष्ट करता है तो यह कानून के मुताबिक अपराध है। जो यह करता है, वह दंड का भागी है। इस विवाद को सुलझाने और दो दलों में सामंजस्य बैठाने में इसे मौन रखना हम लोगों के खयाल में गंभीर मामला है। ऐसे लोकतंत्र में जो बहुसंख्यक, बहुधर्मी, बहुभाषी हो, फिर भी विभिन्नता से अपनी भौगोलिक सीमाओं में एकत्व का प्रतीक हो, उसमें आत्मकेंद्रित संकीर्णता से उठकर विभिन्न धर्म-समुदाय और सांस्कृतिक संस्कारों का आदर करने की लोकवृत्ति को पनपने देने का हममें साहस होना चाहिए।
बुद्धिजीवी बिरादरी भारत सरकार से यह उम्मीद करती है कि अयोध्या के इस विवाद को कुछ ऐसे सुलझाए कि राष्ट्र के नए लोकतांत्रिक मूल्यों की परंपरा में एक विश्वकेंद्र की स्थापना की प्रक्रिया शुरू करे। भारत के तमाम धर्म-समुदायों के साहित्य, दर्शन, विचार, अध्यात्म, चिंतन-मनन का यह एक ऐसा विराट संस्थान हो जो अपने स्थापत्य निर्माण में भी राष्ट्र के सभी धर्मों का प्रतीक हो।

केदारनाथ सिंह

यह फैसला एक कानूनी दायरे से बाहर जाकर सुलह-सपाटे की कोशिश जैसा लगता है। यह फैसला कई बार तथ्यों को अलग रखके आस्था को महत्व देते हुए दिया गया है। कई लोगों ने यह बात कही है और यह सही है कि इसके नतीजे दूरगामी हो सकते हैं। कोर्ट में अगर तथ्यों को अलग रखके आस्था के सवाल पर फैसले दिए जाते रहेंगे या भविष्य में दिए जाएंगे तो कई नई समस्याएं पैदा हो सकती हैं।
अगर इससे बातचीत के जरिए कोई नतीजा निकल रहा है और उस समस्या का समाधान हो जाए तो मुझे खुशी होगी। लेकिन मेरे ख्याल में यह फैसला जिस रूप में आया है, उसे लेकर सवाल उठते रहेंगे और उठ रहे हैं, उन पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। दोनों सम्प्रदायों को, इसके दोनों फरीकों को संतुष्ट करने वाला कोई समाधान बातचीत से निकल आए तो मुझे खुशी होगी लेकिन ऐसा कोई समाधान निकलेगा तो कोर्ट को एक तरफ रखकर ही निकलेगा।
यह सही है कि फैसला सुलह-सपाटे जैसा लगता है और इसे जिन मुद्दों को आधार बनाकर दिया गया है, वे सारे के सारे इतिहास के तथ्यों पर आधारित नहीं हैं। लेकिन मैं फिर अपनी बात को दोहराऊं कि अगर इससे प्रेरित होकर दोनों संप्रदायों के लोग बैठकर कोई समझौता कर लें और उससे झगड़े का कोई सर्वसंतोषी हल निकल आए तो जिन लोगों को प्रसन्नता होगी, उनमें मैं भी शामिल होऊंगा।

असगर वजाहत

यह (बाबरी मस्जिद विवाद) राजनीतिक दलों द्वारा खड़ा किया गया मसला है। राजनीतिक दल धर्मांधता का फायदा उठाते रहे हैं। इसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि यह एक राजनीतिक खेल है जिसे राजनीतिक दल सत्ता में बने रहने के लिए खेलते रहे हैं।
इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ का फैसला एक प्रकार का समझौता है जो हालात को सामने रखते हुए लिया गया है ताकि शांति बनी रहे। इस फैसले में कानून का सहारा कम लिया गया है लेकिन अगर यह बाबरी मस्जिद तक सीमित रहे तो ठीक है। अगर यह प्रवृत्ति देश के दूसरे हिस्सों में भी फैलती है तो खतरनाक बात होगी। कानून कानून रहे, धर्म धर्म रहे, बेशक यही डेमोक्रे सी का आधार है वरना डेमोक्रेसी के लिए खतरा पैदा होगा। इसे बाबरी मस्जिद के संदर्भ में नहीं बल्कि व्यापक तौर पर देखा जाएगा।
देश में सांप्रदायिकता बहुत गहरे तक उतरी हुई है। हिंदू सांप्रदायिकता भी और मुस्लिम सांप्रदायिकता भी। खासकर हिंदू सांप्रदायिकता मतलब बहुसंख्यक सांप्रदायिकता ज्यादा खतरनाक है। मैं यह भी सोचता हूं कि यह फैसला न लिया जाता तो देश में क्या होता, जाने कितने दंगे होते। और क्या किया जा सकता था, मेरी समझ में नहीं आ पा रहा है। कोई क्लियर कट फैसला आता तो क्या बहुत नुकसान होता? दंगों में अंतत: साधारण लोग ही मरते हैंपर अब तो बड़ों-बड़ों को मार दिया जा रहा है। राजनीतिक दलों से खासकर कांग्रेस-बीजेपी से कोई नहीं पूछता कि देश को यहां क्यों ला खड़ा किया, सब अदालत से ही पूछ रहे हैं।
इस पूरे मसले को भावना से जोड़ दिया गया। यह काम राजनीतिक दलों ने किया, खासकर कांग्रेस-बीजेपी ने। ये देश को बर्बादी की ओर ले जा रहे हैं। इन्होंने देश को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया है। इन्होंने देश की एकता-अखंडता को भारी नुकसान पहुंचाया है।
अंदरूनी तौर पर देश पूरी तरह बांट दिया गया है सांप्रदायिकता, जातिवाद, हेव्ज और हेव नॉट्स के आधार पर। देश में बहुत विस्फोटक स्थितियां हैं। इनमें से कुछ का इतिहास पुराना है, कुछ को बनाया-बढ़ाया गया। इन मसलों को एड्रेस नहीं किया गया। अब क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता है।
सत्ता पर अधिकार के लिए करोड़ों रुपये खर्च करके जिस तरह की राजनीति और प्रपंच चल रहे हैं, उनमें हिंदी लेखकों का स्वर कहां सुनाई देता है? हिंदी के लेखक लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए एकजुट रहते आए हैं। इस बार बहुत ज्यादा नहीं बोला गया पर मुझे उनकी लोकतांत्रिक आस्था में पूरा यकीन है। मैं ऐसा नहीं मानता कि हिंदी के लेखक सांप्रदायिकता से प्रभावित हो रहे हैं।
हिंदी अखबारों की भूमिका शुरू से ही सवालों के घेरे में रही है। हिंदी के बहुत से अखबार सांप्रदायिक संकीर्ण शक्तियों के प्रभाव में हैं। उन्होंने इस बार भी जो किया, वह उनके लिए कुछ नया नहीं है।

गिरिराज किशोर

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक ऐसा निर्णय लिया जो हो सकता है कि लोगों को कानूनी दृष्टि से ठीक न लग रहा हो, लेकिन कांग्रेस के लोगों ने बाद में जो वक्तव्य दिए, वे पहले क्यों नहीं दे रहे थे? निर्णय आने के बाद कहा जाने लगा कि यह कानून के हिसाब से नहीं है, वगैरह-वगैरह। सवाल यह है कि आप देश में समानता और शांति चाहते हैं या कानून? कानून मनुष्य के लिए है या मनुष्य कानून के लिए? कानून का एक काम संवाद की स्थिति पैदा करना भी है। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कानून व समाज की नकारात्मक प्रवृत्तियों के बीच समन्वय स्थापित करने के अपने दायित्व का अच्छे ढंग से निर्वाह किया है। यहां मन्दिर है, उसके पास मस्जिद नहीं चाहिए या मस्जिद के आसपास मन्दिर नहीं बनना चाहिए, ये सब सवाल उठ रहे हैं। मैं समझता हूं कि अच्छा है कि बातचीत की शुरुआत है। लेकिन मैं नहीं समझता कि सुप्रीम कोर्ट एक ऐसे निर्णय को जो मनुष्य और शांति के हित में हो, बदलेगा। कानून इसलिए नहीं कि यहां देश में दंगा कराए या लोगों की हत्याएं कराए।
मैं समझता हूं कि इस निर्णय पर राजनीति करने की कोशिश की जा रही है। जैसे, मुलायम सिंह ने पहले कहा कि अच्छा निर्णय है, बाद में कहा कि मुसलमानों को ठग लिया गया। कम्युनिस्ट ऐसी बातें कहने लगे, कांग्रेसी कहने लगे। इस तरह आप देश में समन्वय कैसे स्थापित रखेंगे? क्या राजनीति का मतलब सिर्फ वोट लेना है, मनुष्य के मनुष्य के संबंधों से कोई लेना-देना नहीं है?
वोट की राजनीति बहुत गंदी राजनीति है। देश के हित को न सोचकर लोग अपने और अपनी पार्टी के हित में सोचते हैं। गांधी ने हिन्द स्वराज में यह लिखा है कि पार्लियामेंट या संसद जो भी हैं, बिल्कुल वेश्या की तरह हैं जो अपने बारे में सोचती है। हमारे राजनीतिज्ञ यही तो कर रहे हैं।
संघ परिवार के लोग देश के हित में काम नहीं कर रहे हैं। इस तरह की बातें कर पड़ोसी मुल्क को उत्साहित कर रहे हैं। मैं इसे स्वस्थ परंपरा नहीं मानता। अगर ऐसी बातें संत कर रहे हैं तो मैं उन्हें भी संत नहीं डिक्टेटर मानता हूं।
हिंदी लेखक कुछ नहीं करता, वह सिर्फ दस्तखत मीर है। प्रोटेस्ट फाइल कर देते हैं, बस। अभी राय प्रकरण में क्या किया? मैं समझता हूं कि मुसलमानों का रोल ज्यादा रचनात्मक है। 90 साल का बूढ़ा पक्षकार बातचीत के लिए भागदौड़ करता है। सुप्रीम कोर्ट जाना उनका अधिकार है। लेकिन जहां तक कम्युनिस्ट चाहते हैं कि निर्णय का एक-एक शब्द कानून के मद्देनजर हो तो वे बताएं कि स्टालिन रूस में किस कानून के आधार पर दुनिया भर के लोगों को मारते थे। क्या जो हिटलर कर रहा था, वह कानून था? कानून का मतलब है सबको समान अधिकार यानी सब समान रूप से रह सकें। यहां तो यह हाल है कि आततातियों का अधिकार हो जाए तो झुकते चले जाएंगे और आज़ादी हो तो कानून-कानून चिल्लाएंगे। अफगानिस्तान में कुछ समय पहले ही बौद्ध स्मारक तोड़े गए। हिंदुस्तान में एक समय आतताइयों ने जो मुसलमान थे, मंदिर तोड़कर मस्जिदें बनवाईं, पिछड़ों के साथ ज्यादती की, तब हमने क्या किया? तब तो हम खुद को सुरक्षित समझते रहे। ज्यादातर हिंदुओं को समानता का अधिकार नहीं दिया गया, इसलिए धर्म परिवर्तन हुआ।
मैं नहीं समझता कि अतीत की इस तरह की बातों को अब कोई मुद्दा बनाया जाना चाहिए। बाबरी मस्जिद का वह स्ट्रक्चर बाबर ने, उसके मंत्री ने बनवाया, वह एक मोन्युमेंट की तरह था। उसे तोडऩा निश्चय ही अस्वस्थ मानसिकता का परिचायक था।
राम अयोध्या में पैदा हुए थे, यह बेशक आस्था का सवाल है। लेकिन, इस आधार पर कम्युनिस्ट कहते हैं कि कोर्ट का फैसला कानून पर आस्था को तरजीह है तो उन्हें मालूम होना चाहिए कि आस्था तो कानून में भी रखनी पड़ेगी वर्ना कानून का भी क्या मतलब रह जाता है।
मुझे नहीं लगता कि कोर्ट के फैसले से बाबरी मस्जिद विध्वंस के औचित्य या मुसलमानों की पराजय जैसी कोई अनुगूंज निकलती है। यह फैसला तो डेमोक्रेसी की सबसे बड़ी ताकत संवाद और भाईचारे की स्थिति पैदा करता है।

मंगलेश डबराल

गुजरात नरसंहार के दौरान गुजरात के कई लोगों (वे लोग जो दंगों का शिकार हो रहे थे, तबाह किए जा रहे थे) ने कहा कि हमें यह भी मालूम नहीं था कि बाबरी मस्जिद क्या है, कहां पर है। हिंदुत्ववादी और सांप्रदायिक शक्तियों ने, जो कि दरअसल राष्ट्रविरोधी हैं, एक नामालूम-सी जगह में स्थित एक नामालूम-सी मस्जिद को एक इतना बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना दिया कि लगभग एक दशक तक उत्तर भारत की पूरी राजनीति उसके इर्द-गिर्द सिमट आई। उसे एक ऐसे प्रतीक के रूप में निर्मित किया गया कि जैसे उसकी उपस्थिति हिंदुओं का अपमान हो। इस तरह उसे एक नकली और छद्म प्रतिष्ठा का विषय बना दिया गया। संघ परिवार जिसके कई मुखौटों वाले वैध’-अवैध संगठन हैं, ने इस प्रतीक के खिलाफ एक उन्माद की रचना की जिसका उद्देश्य सिर्फ सत्ता में आना था। और अंतत: उसे ढहा दिया गया जो कि निश्चय ही अपराध था। इस अपराध के लिए संघ परिवार के किसी भी नेता ने न कोई ग्लानि व्यक्त की और न पश्चाताप जताया। न उन लोगों से क्षमा-याचना की गई जो इस मस्जिद से किसी न किसी रूप से जुड़े हुए थे।
लालकृष्ण आडवाणी, जो कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के असली सूत्रधार हैं, ने एक हल्का-सा खेद जरूर व्यक्त किया और यह खेद भी एक छद्म था। अंग्रेजी मीडिया में इस घटना के सैकड़ों साक्ष्य और दस्तावेज मौजूद हैं जो बताते हैं कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती जैसे लोगों के सक्रिय समर्थन और उकसावे के कारण हुआ। संघ परिवार के दूसरे संगठनों के बजाय ये लोग इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार इसलिए हैं कि वे इस देश के संविधान से बंधे हुए थे। इस विध्वंस के बाद जो कुछ हुआ, उसमें उन लोगों की भी तबाही हुई जिन्हें यह मालूम नहीं था कि अयोध्या में कोई बाबरी मस्जिद है कि नहीं। एक अमेरिकी इतिहासकार हॉवर्ड जिन की एक उक्ति है कि निर्दोषों की हत्या करना आतंकवाद है। इस तरह बाबरी मस्जिद का विध्वंस हिंदू आतंकवादियों का काम था।
इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के फैसले पर राय उन तमाम आलोचनाओं में दिखाई देती है जो बुद्धिजीवियों ने प्रकट की हैं। यह ऐसा विचित्र फैसला है जो सबको मान्य होने के नाम पर दिया गया पर, जो किसी को मान्य नहीं है। मीडिया और इस देश का नया मध्यवर्ग इसे इस रूप में भी देख रहा है कि फैसले से अशांति नहीं फैली लेकिन इस शांति का क्या अर्थ है? यह एक निष्फल शांति है। जहां तक मुसलमानों का सवाल है, उनके लिए अब इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि वहां अब क्या बनता है, वहां कोई मंदिर बनता है, मस्जिद बनती है या कि उस जगह का क्या होता है। उनके दिल में अभी तक यह जख्म है कि आखिर बाबरी मस्जिद को क्यों तोड़ा गया। दरअसल, उसे एक बहुत बड़े प्रतीक में बदलकर, उसका मुसलमानों का अपमान करने के प्रतीक के रूप में ध्वंस किया गया था। इसका एक दुखद पहलू यह है कि जो मुस्लिम बुद्धिजीवी धर्मनिरपेक्षता के प्रति अपनी निष्ठा के कारण हिंदू धर्म और इस्लाम दोनों की कट्टरता और संकीर्णता से यथासंभव मोर्चा लेते रहे हैं, वे इस फैसले से बेहद हताश हुए हैं। अगर यही न्याय है तो यह एक बहुसंख्यक न्याय है।
इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के तीन न्यायाधीशों में से एक हनुमान के भक्त बताए जाते हैं और वह इतिहास, पुरातत्व, विधि और न्याय के तथ्यों और सिद्धांतों की अनदेखी करके यह निर्णय देते हैं कि वहां मंदिर था। संभव है कि इतिहास में कभी वहां कोई मंदिर रहा होगा तो यह सिर्फ एक अनुमान ही हो सकता है। और अगर यह सच भी हो तो इस देश के अत्यंत प्राचीन इतिहास के भूगर्भ में क्या-क्या दबा हुआ है, किस-किस तरह के ढांचे दबे हुए हैं और किन ढांचों के ऊपर क्या निर्मित हुआ, इसका कोई हिसाब नहीं लगाया जा सकता। मसलन, चौथी शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेन सांग अपनी यात्रा के दौरान अयोध्या भी गया था और अपनी डायरी में अयोध्या का जिक्र करते हुए वह लिखता है कि अयोध्या बौद्ध धर्म का एक बड़ा केंद्र थी जहां कम से कम 500 विहार थे और विधर्मियों की संख्या नगण्य थी। सवाल यह है कि तत्कालीन विधर्मी कौन थे? वे मुसलमान नहीं बल्कि सनातन धर्मी या वैष्णव ही रहे होंगे। कहने का अर्थ यह है कि इस देश के भूगर्भ में जितनी मिट्टी है, उतना ही इतिहास है। अगर अयोध्या की मस्जिद के नीचे कोई मंदिर था तो उससे बड़ा सच यह है कि वहां एक मस्जिद थी। विद्वान न्यायाधीशों ने इस पर कोई टिप्पणी क्यों नहीं की कि उस मस्जिद को क्यों तोड़ा गया?
एक और पहलू यह है कि न्यायालय का फैसला भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की जिस रिपोर्ट का जिक्र करता है, उसके निष्कर्षों को लेकर देश के तमाम जाने-माने और अंतर्राष्ट्र्रीय ख्याति के इतिहासकार गंभीर सवाल उठाते रहे हैं। अयोध्या की यह खुदाई एनडीए शासन के दौरान की गई थी और उसमें उन्हीं पुरातत्वविदों को रखा गया जो संघ परिवार के प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थक थे। उन दिनों इस पुरातत्व दल द्वारा खुदाई में पाई गई चीजों को मीडिया में जोर-शोर से प्रचारित किया गया लेकिन इनकी विश्वसनीयता को लेकर उस समय भी सवाल उठाए गए थे। इससे पहले बी.बी. लाल द्वारा की गई खुदाई की प्रकृति भी कुछ इसी ढंग की थी लेकिन उसमें कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं दिए गए थे। अयोध्या की खुदाई के दौरान वामपंथी और धर्मनिरपेक्ष धारा के इतिहासकार सिर्फ पर्यवेक्षक के रूप में शामिल थे और उनकी कोई आधिकारिक उपस्थिति नहीं थी। यानी, संघ परिवार और विश्व हिंदू परिषद वगैरह को आधिकारिक रूप से पुरातत्वविदों की सेवा उपलब्ध थी जबकि बाबरी मस्जिद मुस्लिम एक्शन क मेटी के पास ऐसे कोई पुरातत्वविद नहीं थे। फैसले में जस्टिस शर्मा का कहना था कि धर्मनिरपेक्ष इतिहासकारों ने अदालत में कोई सुनिश्चत रवैया नहीं अपनाया लेकिन यह वे इसलिए नहीं अपना सकते थे क्योंकि उनकी हैसियत आधिकारिक न होकर स्वतंत्र जांचकर्ताओं की थी। वे खुदाई की प्रक्रिया में शामिल नहीं थे। कोई भी बौद्धिक अनुशासन इसकी अनुमति नहीं देता कि अप्रमाणिक ढंग से कोई बात कही जाए। यह इतिहासकारों द्वारा अपने क्षेत्र के साथ गैर ईमानदारी होती। हैरत की बात यह है कि अदालत ने सरकारी पुरातत्वविदों के संदिग्ध निष्कर्षों को प्रमाण के तौर पर मान लिया और स्वतंत्र इतिहासकारों की राय को कतई अनदेखा किया।
न्यायाधीश शर्मा के फैसले में यह प्रवचन भी दिया गया है कि बाबरी मस्जिद इस्लाम के नियमों के आधार पर नहीं बनी थी क्योंकि उसमें मीनार नहीं थी। इस देश में हजारों ऐसी छोटी-छोटी मस्जिदें होंगी, जिनमें कोई मीनार नहीं है।
यह एक बड़ा विरोधाभास है कि बाबरी विध्वंस और गुजरात नरसंहार पर बहुत सारी कविताएं और कुछ कहानियां भी लिखी गई थीं। अब अदालत के इस फैसले के बाद जन संस्कृति मंच, जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ का साझा बयान जरूर आया है जो यह उम्मीद जताता है कि हिंदी में राजनीतिक और प्रतिरोधात्मक चेतना अभी जीवित है। लेकिन इस फैसले पर ज्यादातर खामोशी ही रही, यह दुखद है। लेकिन मैं इसे साहित्य पर भूमंडलीकरण और बाजारवाद के दुष्प्रभावों के नतीजे के तौर पर देखता हूं। हिंदी की नई पीढ़ी इस समय देश के नए और संपन्न होते मध्यवर्गीय जीवन, बाजार की चमक-दमक, कम्प्यूटर-मोबाइल तंत्र और उपभोक्तावाद के प्रति बहुत आकर्षित है। पूरा साहित्यिक परिदृश्य किसी कस्बे में चाय की उस दुकान की तरह लगता है जिसमें एक तख्ती पर लिखा होता है कि यहां राजनीतिक बातें करना मना है। इसमें हिंदी के अखबारों का अपना भीषण योगदान है जो इस समय किसी भी वैकल्पिक राजनीति या यथास्थितिवाद के विरोध में उठ रहे किसी भी कदम को अपने पन्नों पर जगह नहीं देते। वे एक भीषण सुख-भ्रांति में जी रहे हैं क्योंकि उनका मुनाफा बढ़ रहा है। जरा गौर करें, अदालती फैसले के अगले दिन हिंदी के सभी बड़े अखबारों में इस तरह के बैनर छपे थे कि रामलला वहीं विराजमान रहेंगे, सारी भूमि राम की आदि-आदि। हिंदी मीडिया ने यह लिखने की जहमत भी नहीं उठाई कि जमीन का जो बंटवारा हुआ है, उसके मुताबिक राम का तथाकथित भव्य मंदिर कैसे बनेगा। संघ परिवार ने इस खंडित फैसले को राम का मन्दिर बनाने के आदेश की तरह प्रचारित किया और अखबारों ने इसे बिना किसी आलोचना के प्रचारित किया। दरअसल, पूरे अयोध्या कांड पर हिंदी मीडिया का रवैया बेहद शर्मनाक और निंदनीय रहा है।

मैत्रेयी पुष्पा

बाबरी मस्जिद मसला पूरी तरह बनाया गया, राजनीतिक मसला है। वरना मंदिर कहां है, मस्जिद कहां है, इस पर क्या लडऩा? बहुत सारी जगहों पर अलग-अलग धर्मों के स्थल एक जगह हैं। हमारे यहां बुंदेलखंड में वहीं मंदिर भी हैं, वहीं मस्जिद भी, वहां तो लड़ाई नहीं हो रही। अगर कोई लाभ मिलने वाले होंगे तो वहां भी लड़ाई होने लगेगी। मुझे तो कभी भी इस मुद्दे में कोई दम दिखाई नहीं दिया लेकिन देश की और बहुत सारी वास्तविक समस्याओं से मुंह फेरकर इसे खड़ा किया गया है। जनसंख्या वृद्धि, खेती पर संकट जैसे बहुत सारे मसले हैं, उन पर बातचीत को तुरंत निपटा देते हैं लेकिन मंदिर-मस्जिद की लड़ाई में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगते हैं।
हाई कोर्ट का फैसला फैसला बहुत बच-बचकर लिया गया। इस फैसले से स्पष्ट होता है कि कारसेवकों, संघियों से ज्यादा डर था। इसलिए फैसला उनके पक्ष में गया। जब दंगे होते हैं तो ज्यादातर दोष मुसलमानों को दिया जाता है और शिकार भी वही होते हैं। यह इतना सावधानीपूर्वक लिया गया फैसला है। आप कहेंगे कि इसमें तो मुसलमान जज भी शामिल था। लेकिन उसकी आवाज कितनी थी? जब दो लोग हिन्दू हैं और एक मुस्लिम है तो अपने आप ही एक पलड़ा भारी हो गया। अगर वोटिंग भी कर लें तो पलड़ा वही भारी है, न! इसीलिए ही, अगर बराबर का बंटवारा होता तो आगे यह मामला न चलता, सुप्रीम कोर्ट न जाता। अगर मुस्लिमों को एक इंच भी ज्यादा जमीन मिल जाती तो जरूर दंगे हो जाते। फिर दलील भी यह है कि भई, हिंदुस्तान में हो तो यह तो होना ही है, कल किसी मुस्लिम देश में हो तो मुसलमानों के पक्ष में जाएगा। कहा जा रहा है कि ऐसा तो होता ही है। साफ है कि समस्या के निपटारे के लिए यह सही फैसला नहीं है।
हिंदी लेखकों में इन दिनों कितनी ईमानदारी बची रह गई है? लेकिन जिनको विरोध करना है, वे कर रहे हैं। ऐसा नहीं कि बिल्कुल ही सन्नाटा है, जो चुप रहना चाहते हैं, वे चुप हैं। चूंकि फैसला गोल-मोल आया है तो सन्नाटे का एक कारण यह भी है। साफ-साफ कुछ नहीं है। अभी तो सुप्रीम कोर्ट में जाने का भी रास्ता खुला है।
पूरी हिंदी पत्रकारिता को दोष दे दिया जाता है। कोर्ट के फैसले के बाद रविशंकर प्रसाद ही तो कह रहे थे कि भव्य मंदिर बनेगा, मीडिया तो नहीं कह रहा था। मुझे नहीं पता कि मीडिया ने सेक्युलर पक्ष को कमजोर करने वाली चीजें लिखीं। जो लेख आए, वे मैंने भी देखे हैं। वाकई, कोई भी आदमी अपने अंदर स्पष्ट नहीं है, इस फैसले को लेकर। सिर्फ वो स्पष्ट हैं जिन्हें लग रहा है कि फैसला उनके पक्ष में आया है और सोच रहे हैं कि अब भव्य राम मंदिर बनाकर ही मानेंगे। आखिर उन्होंने कैसे भव्य मंदिर बनाने की बात कही दी, अभी तो सुप्रीम कोर्ट बाकी है। और अब पूरे अयोध्या को ही राम जन्मभूमि क्षेत्र बताकर वहां कहीं भी मस्जिद न बनने देने की बात कह रहे हैं। जैसे इन्होंने देखा हो कि राम कहां पैदा हुए थे। ऐसी बातों से झगड़े-फसाद तो होंगे ही। यह क्या बात हुई कि उन्हें एक इंच भी जमीन नहीं देना चाहते। आपको अपने मन्दिर प्यारे हैं तो उन्हें भी तो मस्जिद प्यारी है। अब आप खड़े हैं तो उन्हें भी तो खड़ा होने दीजिए।
ऐसी ताकतों से लड़े जाने की जरूरत तो है पर धर्म से सरकार भी डरती है। ये लोग जनता को आसानी से बरगला लेते हैं। जो दंगे-फसाद करते हैं, जनता उन्हें ही वोट दे देती है। गुजरात में यही तो हो रहा है।

मैनेजर पाण्डेय

बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि का विवाद हिंदू संप्रदायवादियों की राजनीति के द्वारा पैदा किया गया विवाद है। यह विवाद छोटे-मोटे स्तर पर 1949 से शुरू होता है। उसके बाद दोनों ओर से, सांप्रदायिक हिंदू राजनीतिक दलों की ओर से और बाबरी मस्जिद की रक्षा के लिए कोशिश करने वाले मुसलमानों की ओर से भी बहस-विवाद और झगड़ों की शुरूआत हुई। वह विवाद भयानक स्थिति पर तब पहुंचा जब लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा निकली। उस रथयात्रा से उपजे उन्माद के तहत ही 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ और उसके परिणामस्वरूप देश में भयानक दंगे हुए।
भारत के इतिहास में राजाओं, महाराजाओं, बादशाहों की सत्ताओं द्वारा बहुत बार ऐसे काम किए गए जिन्हें उचित नहीं कहा जा सकता। मतलब, कभी हिंदू राजाओं ने बौद्ध पूजास्थलों का विनाश किया, बाद के दिनों में कुछ मुसलमान शासकों ने हिंदू पूजास्थलों का विनाश किया। ये सारी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं 1000-500 साल पहले की हैं। हिंदुस्तान में या दुनिया के किसी भी देश में बीते हुए इतिहास की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बदले के आधार पर वर्तमान और भविष्य की राह तय नहीं की जा सकती। मैं यह समझता हूं कि किसी मंदिर-मस्जिद, गुरुद्वारा, मठ या विहार के अतीत, वर्तमान और भविष्य के लिए पूरे देश और देश की जनता के जीवन को खतरे में डालना ऐतिहासिक दृष्टि से गलत है, सामाजिक दृष्टि से अपराध है और मानवीय दृष्टि से पिछड़ी हुई मानसिकता का प्रमाण है।
अयोध्या विवाद पर फैसले संबंध में पहली यह कि यह है कि यह फैसला कानून और न्याय की सहज और प्रमाणिक समझ के आधार पर न होकर राजनीतिक फैसला है।
कानूनी निर्णयों में इस फैसले के पहले कभी भी आस्था को आधार नहीं बनाया गया था और मेरा ख्याल है कि भविष्य में भी अगर कानून और न्याय की प्रक्रिया को मजबूत बनाना है तो न्यायिक फैसलों का आधार आस्था को नहीं बनाया जाएगा और नहीं बनाया जाना चाहिए। क्योंकि आस्था व्यक्ति यों की होती है, समुदायों की होती है, धर्मों की होती है और वह दूसरे व्यक्तियों, समुदायों और धर्मों के विरुद्ध भी हो सकती है।
इस निर्णय में एक मिथक को ऐतिहासिक सच माना गया है जो सही नहीं है। मेरा विचार है कि राम पैदा हुए थे वाल्मीकि के मन में। इसीलिए राम का जन्मस्थान वाल्मीकि और तुलसीदास के मन हैं। इस बात को भूलकर उनको ऐतिहासिक व्यक्ति और राजा के रूप में मानना मिथक को इतिहास बनाना है। मिथक इतिहास से कम महत्वपूर्ण नहीं होते लेकिन यह भी सच है कि वे इतिहास नहीं होते।
चौथी बात यह है कि इस निर्णय का आधार पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ऐसी रिपोर्ट को बनाया गया है जिसका विरोध और खंडन देश के जाने-माने इतिहासकारों ने पहले भी किया था और अब भी कर रहे हैं। जैसे कानून के बारे में निर्णय देने के अधिकार न्यायालयों का है, उसी तरह ऐतिहासिक प्रमाण के आधार पर राय देने का काम इतिहासकारों का है, न्यायाधीशों या वकीलों का नहीं।
इस प्रसंग में एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस हम लोगों के सामने की घटना है। सरकार भी मानती है कि वह एक आपराधिक कार्रवाई थी। ऐसी आपराधिक कार्रवाई का निर्णय में उल्लेख नहीं करना और उसके बारे में कोई राय व्यक्त न करना सही नहीं है।
आखिरी बात यह कि इस निर्णय में जिस तरह बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि की जमीन के बंटवारे का सुझाव दिया गया है, वह अल्पसंख्यक मुसलमानों के लिए निराशाजनक है जो भारतीय समाज और देश के लिए दुखद है।
यह कहना सही नहीं है कि हिंदी जगत में कोई प्रतिरोध नहीं है, सन्नाटा है। अभी तीन संगठनों ने बयान जारी करके न्यायालय के इस निर्णय की स्पष्ट आलोचना की है और उसके विरुद्ध अपनी राय व्यक्त की है। दूसरी बात यह है कि एक न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध वैसी प्रतिक्रिया और वैसा प्रतिरोध नहीं हो सकता जैसा बाबरी मस्जिद के विध्वंस की भयानक घटना के विरुद्ध हुआ था। न्यायालय के निर्णय के पक्ष और विपक्ष में केवल अपनी राय व्यक्त की जा सकती है जो हिंदी के वामपंथी लेखक और उनके संगठन कर रहे हैं।
हिंदुस्तान में धार्मिक कट्टरतावाद और उससे जुड़ी हुई सांप्रदायिक राजनीति का विरोध जो लोग पहले से करते आ रहे हैं, वही आज भी कर रहे हैं। मैं ऐसा नहीं समझता कि पूरा हिंदी क्षेत्र या हिंदुस्तान का मध्य वर्ग फासिज्म से समझौता करने को तैयार हो गया है। लेखकों और संस्कृतिकर्मियों की तुलना में सभी तरह के मीडिया ने जो भूमिका निभाई है, वह अधिक चिंताजनक है। आजकल अखबारों, व्यावसायिक पत्रिकाओं और टेलिविजन के विभिन्न चैनलों से जिस तरह की खबरें और जिस तरह के विचार प्रचारित-प्रसारित किए जा रहे हैं, उनसे ऐसा लगता है कि जनसंचार के सारे माध्यम सच और झूठ के बीच में, न्याय और अन्याय के बीच में मानवीयता और अमानवीयता के बीच में निर्णय लेने या पक्ष लेने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। यह न उनके भविष्य के लिए अच्छा है, न भारतीय समाज के भविष्य के लिए। ऐसे कठिन समय में सच का, न्याय का और इंसानियत का पक्ष लेना देश में लोकतंत्र की रक्षा के लिए जरूरी है।

असद जै़दी

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दिसंबर 1992 के रोज़ संघ परिवार के विभिन्न गिरोहों ने मिल-जुलकर उत्तर प्रदेश सरकार के संरक्षण में और केंद्र सरकार के परोक्ष समर्थन से बाबरी मस्जिद को ढहा दिया। तब से अब के बीच मुल्क के माहौल में काफी बदलाव आ चुका है और सेक्युलर सिद्धांत पर टिकी भारतीय संवैधानिक व्यवस्था चौतरफा मार खा-खा कर खासी पस्त हो चुकी है। राजनीतिक दल, कार्यपालिका, न्यायपालिका, मीडिया, राजनीतिक विमर्श और बुद्धिजीवी समाज सभी पर इसका असर पड़ा है। इलाहाबाद न्यायालय की लखनऊ पीठ द्वारा बाबरी मस्जिद संपत्ति विवाद पर हाल में दिया गया फ़ैसला और इसपर विभिन्न हलकों से आयी प्रतिक्रियाएं इस दूरगामी परिवर्तन की सूचक हैं। न्याय की जगह आस्था, सबूत की जगह आस्था को आधार बनाकर दिया गया यह फ़ैसला उस आने वाले खतरे का शाही ऐलान है जिसका अंदेशा नागरिक-कवि रघुवीर सहाय ने कऱीब तीस साल पहले हँसो हंसो जल्दी हंसो नाम की किताब में दर्ज किया था। आने वाले दिनों में ग़ैर-कानून और ग़ैर-इंसाफ़ के लिए पक्की शाहराह तैयार अब लगती है।
गो कि मस्जिद अठारह साल पहले गिरा दी गयी थी, पर गिराने वालों को भी कहीं न कहीं लगता था कि वह अभी पूरी तरह गिरी नहीं है, मस्जिद का भूत मंडरा रहा था और यह डर भी कि कहीं किसी रोज़ यह अचानक जमीन फोड़कर प्रकट न हो जाए। इस खंडपीठ के फैसले के साथ वह पूरी तरह ध्वस्त हो गयी लगती है।
अगर इस मुल्क में कानून-सम्मत व्यवस्था और लोकतंत्र को बने रहना है तो न सिफऱ् इस फ़ैसले को उच्चतम न्यालय में पलटा जाना चाहिए, बल्कि संविधान की रक्षा के लिए ली गयी शपथ को तोडऩे और कानून और इंसाफ की स्थापित परिभाषाओं और मर्यादाओं का उल्लंघन करने के लिए न्यायमूर्तिगण शर्मा, अग्रवाल और खान के खिलाफ महाभियोग (इंपीच्मेंट) की कार्रवाई शुरू की जानी चाहिए।
कुछ सदाशयी लोग यह कहते पाए जा रहे हैं कि इलाहाबाद न्यायालय का 30 सितंबर का फैसलामुल्क में शांति स्थापित करने में मदद करेगा, और मुसलमानों को चाहिए कि न सिर्फ इसे मान लें और उच्चतम न्यायालय में न जाएं, बल्कि कुछ और उदारता दिखाएं और हिंदुओं की सद्भावना जीतने के लिए एक तिहाई हिस्सा भी राम मंदिर के लिए दे दें। जरा गौर करें तो प्रकारांतर से यह कहा जा रहा है कि अपना नागरिक अस्तित्व बचाए रखने के लिए इंसाफ़ की कुर्बानी दे दो, तभी चैन से रह पाओगे। अमन चाहिए तो न्याय को भूल जाओ, आतताइयों की शर्त पर सुरक्षा खरीद लो। पता नहीं यह मासूम सदाशयता है या धूर्ततापूर्ण चेतावनी? कुछ लोग शांति बनाए रखने के लिए मुस्लिम भाइयों को बधाई दे रहे हैं। दरअसल शांति बनाए रखने का श्रेय तो संघ परिवार को जाना चाहिए क्योंकि राष्ट्रव्यापी उपद्रव की धमकी वही दे रहे थे। यह सब फिर से मुझे रघुवीर सहाय की कविता में दर्ज पूर्वानुमानित मध्यवर्गीय आचरण की जिंदा मिसालें लगती हैं। सहायजी को गए बीस साल हो चुके हैं; एक तरह से वह खुशकिस्मत रहे कि 1992 का वो दिन और 2010 की 30 सितंबर को अपने शहर लखनऊ की इस खंडपीठ का कारनामा देखने से बच गए।
मेरे दिमाग में फौरी तौर पर तीन बातें आती हैं:
एक तो यह कि इतने सालों तक बीच-बीच में कई हल्क़ों से अदालत के बाहर आपसी बातचीत, सुलह और समझौते की तजवीज आती रहती थी, और दोनों पक्षों के बीच कम-से-कम एक खय़ाली बराबरी तो थी। इस फैसलेने उस खय़ाली बराबरी का न्यायिक आधार भी खत्म कर दिया है। अब जीता हुआपक्ष हारे हुएपक्ष से सुलह के नाम पर पूर्ण समर्पण की मांग करता दिखाई देता है। और कुछ चतुर सुजान मीडिया-पसंद लोग कह रहे हैं कि मुसलमानों को अब तो कुछ उदारता दिखानी चाहिए।
दूसरी यह कि राष्ट्रकी हमारी परिकल्पना या कथानक को लेकर एक ऐतिहासिक द्वंद्व पिछले डेढ़ सौ साल से चला आ रहा है मसलन राष्ट्रवादी आंदोलन के दौरान मुख्यधारा के राष्ट्रवादी कैसा राष्ट्र बनाना चाहते थे, वामपंथी किन चीजों पर जोर दे रहे थे, और दक्षिणपंथी बहुमतवादी क्या चाहते थे, आदि। आजादी और सांप्रदायिक विभाजन के बाद, और भारत के एक लोकतांत्रिक संवैधानिक गणतंत्र के रूप में गठन के बाद, भी यह संघर्ष बना रहा और इस की अंतर्धाराएं हर दौर में दिखाई देती रही हैं, जिसके मूल में यह सवाल है कि राष्ट्र का आधार क्या हो। इलाहाबाद कोर्ट के इस फैसले ने आस्था को सर्वोपरि कर दिया है. इस फैसले के पीछे कोई सेकुलर या वस्तुनिष्ठ सिद्धांत सक्रिय नहीं है। यह फैसला ऐसी नज़ीर बना रहा है जो हर अवसर, हर जगह और हर किस्म की चीजों पर लागू की जा सके, और जरूरी नहीं कि सिर्फ मतभेदों के संदर्भ में ही यह मान्य होगी, यह नज़ीर ऐसे मामलों में भी लागू की जा सकेगी जहां मतभेद भी नहीं है। इस फैसले में जैसे राष्ट्र का विजऩदिख रहा है वह आस्था पर आधारित हिंदू राष्ट्रही हो सकता है।
तीसरी बात यह है कि धार्मिक बहुमत को राजनीतिक बहुमत पर वरीयता दी जाती रही और न्यायपालिका इस रवैये की पुष्टि करती रही तो हमारी राजनीतिक व्यवस्था और दलीय प्रतिबद्धताओं पर इसका गहरा असर पडऩा लाजि़मी है। राजनीतिक पार्टियां अकसर संविधान और न्यायपालिका के हवाले से बात करती हैं, चाहे उनके इरादे जो भी हों। और यह मजबूरी एक लोकतांत्रिक बंदिश का काम करती है। अब अस्मिता की राजनीति करने वालों को खुली छूट दी जा रही है कि आगे बढ़ो, कानून तुम्हारे साथ है। संघ परिवार में शामिल दलों और संगठनों की तो बात ही क्या, अनेक मध्यमार्गी पार्टियां जो बुनियादी तौर पर धर्मनिरपेक्ष आधार पर बनी हैं (जैसे समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, तेलुगु देशम, बहुजन समाज पार्टी, तृणमूल पार्टी) वे भी दबाव में आकर धर्मनिरपेक्षता और सामासिकता के विमर्श से और अधिक दूर खिसकने लगेंगी। (अभी से हमारे सामने कई मिसालें हैं : मायावती गुजरात जाकर नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार में शामिल हो जाती हैं, मुलायम सिंह बाबरी मस्जिद ध्वंस के बुनियादी अपराधी कल्याण सिंह को एक नहीं दो-दो बार अपनी पार्टी में घसीट लाते हैं)। अगर यही रफ़्तार रही तो भविष्य में एक गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा मोर्चे (तीसरे मोर्चे) का मजबूत सेकुलर आधार पर गठन मुश्किल होगा। सिर्फ वाम-दल ही धर्मनिरपेक्षता को थामे रह जाएंगे। और अगर हालात इतने ही खराब बने रहे तो फिर इस देश की धर्मनिरपेक्ष, सामासिक, लोकतांत्रिक, बहुलतावादी विरासत का भार वामपंथी भी कितनी देर तक मजबूती से उठाए रखेंगे? उनपर भी नए राष्ट्रवाद का दबाव पड़ेगा ही। बक़ौल मीर तक़ी मीर: इश्क़ मीर भारी इक पत्थर है / कब वो तुझ नातवां से उठता है।
अब इससे बड़ा नागरिक दुस्वप्न और क्या हो सकता है?
राजेश जोशी

बाबरी मस्जिद मसले पर इस तरह का बंटवारा भला कैसे हो सकता है कि एक तिहाई का मालिक यह है, दो तिहाई के मालिक वे हैं या फिर एक तिहाई ये, एक तिहाई ये और एक तिहाई ये ले लें। यह बहुत ही हास्यास्पद बात है कि न्यायाधीश यह कहे कि यहां राम जन्मभूमि थी और मिथक को इतिहाइस में बदल रहे हैं। अगर आप यह मान रहे हैं कि राम ऐतिहासिक व्यक्ति हैं तो उसका पूजा से कोई ताल्लुक नहीं है। फिर उसका मंदिर क्यों बनेगा? ऐतिहासिक व्यक्ति का तो मंदिर नहीं बनता। कोई अम्बेडकर का मंदिर बनाने लगे, कोई सम्राट अशोक का मंदिर बनाने लगे या कोई कल को महात्मा गांधी का मंदिर बनाने की बात कहने लगे? आप यह तय कर लें कि राम मिथकीय पात्र हैं या ऐतिहासिक। यह कोई कानूनसम्मत निर्णय नहीं है और मुझे इसका कोई औचित्य नजर नहीं आता है।
अगर इस मसले पर इतने साल लगाने के बाद भी आप कोई बिल्कुल एकेडमिक किस्म का, न्यायिक निर्णय नहीं देना चाहते थे तो ज्यादा अच्छा यह था कि आप यह जमीन किसी को न देते और यहां कोई सार्वजनिक स्थल बनाया जाता। एक तिहाई-वएक तिहाई बांटने के बजाय मन्दिर-मस्जिद दोनों को यहां से पांच-पांच किलोमीटर दूरी पर जगहें दे दी जातीं। या फिर पूरी तरह न्यायिक निर्णय दिया जाता।
पहले एक ढांचा तोडऩे के बाद अब बहुसंख्यक हिंदू अल्पसंख्यक मुसलमानों से यह अपेक्षा कर रहे हैं कि वे यहां मंदिर बनाने में सहयोग करें। दरअसल, इस देश की बहुसंख्यक हिंदू मानस शर्मनाक स्थिति तक पहुंच चुका है। उसे अपने उदार होने का ढोंग नहीं करना चाहिए और अगर उसमें वाकई बहुसंख्यक होने की गरिमा का जरा भी अहसास है तो आगे बढ़कर बाकी दो हिस्से भी अल्पसंख्यकों को दे देने चाहिए।
भारतीय समाज में 1985 के बाद टेक्नॉलजी का प्रवेश हुआ और 1990 तक का समय बेहद संक्रमण का रहा। 1990 के बाद आवारा वित्तीय पूंजी का प्रभाव बढ़ा और उसने एक नए किस्म के सांप्रदायिकीकरण को जन्म दिया और पोषित किया। मध्यवर्ग, खासकर पढ़े-लिखे मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग का एक खास किस्म का सांप्रदायिकीकरण हुआ। वह पिछले 20 सालों में बेहद मालामाल हुआ है। उसे गरीबों से घृणा है। अर्थशास्त्री और भारत सरकार तक जब 70 फीसदी जनता के 20 रुपये रोजाना पर गुजारा करने की बात कहती है तो वह तकलीफ महसूस करता है और इसे झूठ करार देता है। दरअसल अपने को पढ़ा-लिखा कहने वाला मध्यवर्ग बौद्धिक रूप से बेहद दरिद्र और जन विरोधी है।
फिर भी मुझे यह नहीं लगता कि हिन्दुसतान की आम जनता का पूरी तरह सांप्रदायिकीकरण कर दिया गया है। ऐसा होता तो पिछले दो चुनावों में भाजपा लगातार कम से कम न होती जाती। अभी भी आप पाएंगे कि सिर्फ सांप्रदायिकीकरण से राजनीतिक शक्ति के रूप में कामयाब नहीं हुआ जा सकता।
हिंदी जगत की दिक्कत यह है कि वह व्यर्थ की बहसों में उलझा हुआ है। सोवियत संघ के विखंडन के बाद विचारधारात्मक और राजनीतिक बहसों दोनों का ह्रास हुआ है। बेशक, जिस ताकत के साथ हम लोग सांप्रदायिकता का विरोध करते थे, इस दौर में उस ताकत के साथ वह विरोध नहीं दिखाई देता। सरकार की जनविरोधी नीतियों का भी अब पहले की तरह विरोध नहीं किया जा रहा है। मुझे लगता है कि नई पीढ़ी का, पूरी तरह से न सही, लेकिन थोड़ा-सा गैरराजनीतिकरण जरूर हुआ है। इसलिए वह राजनीतिक मुद्दों को उस तरह नहीं उठाता, जिस ताकत से हम लोगों की पीढ़ी उठा रही थी। साहित्य का बड़ा बल्कि 90 फीसदा से ज्यादा हिस्सा बड़े राजनीतिक प्रतिरोध का हिस्सा हुआ करता था, अब साहित्य में राजनीतिक प्रतिरोध कम हुआ है। रचना पर भी यह क्षरण दिखाई दे रहा है। हालांकि, आज भी भारतीय समाज में महत्वपूर्ण रचना वही होगी जो प्रतिरोध की होगी।
हिंदी का अखबार लोकल गवर्नमेंट के हाथों में बिका हुआ बनियों का अखबार है। अंग्रेजी अखबार फिर भी राष्ट्रीय बुर्जुआ का अखबार है यानी वह बड़े हाउसेज का अखबार है, वह छोटे-मोटे स्टेंड ले भी सकता है। हिंदी पत्रकारिता का मूल स्वभाव अलोकतांत्रिक और फासिस्टों क े मददगार का है। कोर्ट के ताजा फैसले के बाद भी इन अखबारों में ज्यादातर जगह हिंदू फासिस्टों को ही मिल रही है।

वीरेन डंगवाल

बाबरी मस्जिद को लेकर पिछले कितने ही सालों से एक बिल्कुल धूर्ततापूर्ण षडयंत्रकारी प्रपंच चलाया जा रहा था, जिसे 6 दिसंबर 1992 को उद्दंडता और अराजकता से एक मुकाम तक पहुंचाया गया था। अभी जो हाई कोर्ट का फैसला आया है, दुर्भाग्य से वह उसकी मज़म्मत करने के बजाय उस अन्याय को ही आगे बढ़ाता है। उस पर वैधता की मुहर लग रही है, यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। इससे मुसलमानों की हेठी करने और उन्हें नीचा दिखाने की कोशिशें और तेज हो गई हैं। इस बार यह काम विनम्रता का मुखौटा लगाकर और भाईचारे का बहुत ज्यादा ढोंग करते हुए किया जा रहा है। मुसलमान भाइयोंशब्दों पर बहुत जोर दिया जा रहा है। लेकिन, दरअसल मुसलमानों को बी ग्रेड सिटीजन की हैसियत बताने की कोशिश की जा रही है। जमीन को ऐसे बांट दो, वैसे बांट दो, रामलला को हिस्सा दे दो, यह क्या है? मतलब एक अजीब किस्म का वितंडावाद है। बीच में लगने लगा था कि सांप्रदायिकता का खतरा अब खत्म हो चुका है और अब यह इतना बड़ा मुद्दा नहीं बनेगा। लेकिन अब तो लगता है कि इसे कभी भी रिक्रिएट कर खड़ा किया जा सकता है। फासिस्टिक खतरा प्रच्छन्न रूप से पहले से कहीं ज्यादा विद्यमान है। इस बार चूंकि कोर्ट का फैसला ही मुसलमानों को नैतिक रूप से दबाकर आया है तो अब वे ज्यादा दबे रहेंगे। उनमें जो उद्दंड लोग होंगे, वे आक्रामक होंगे, ऐसी आशंका भी स्वाभाविक है।
जहां तक हिंदी लेखन का सवाल है तो एक खास किस्म का गैरराजनीतिक माहौल बना दिया गया है। हम लोग तो बूढ़े हो गए हैं, फिर हमारे साथी तो अपनी बात कह ही रहे हैं लेकिन जो युवतर पीढ़ी थी, वह तो इस बारे में बिल्कुल भी बात नहीं कर रही है।
कुल मिलाकर बहुत शर्मनाक स्थिति है। शायद लोग यह भी समझ रहे हैं कि अब टंटा काटो, झगड़ा खत्म करो। अशोक वाजपेयी ने भी इस मसले पर लिखा है (24 अक्तूबर, जनसत्ता), लेकिन उसका लब्बो-लुवाब क्या है कि नई पीढ़ी विकास चाहती है और वह इन सब मसलों को पीछे छोड़कर आगे चली गई है। मुद्दे अप्रासंगिक हो गए हैं और अब इनसे कुछ हो नहीं सकता। मुझे लगता है कि वह गलत समझ रहे हैं। मध्यवर्ग पहले से ज्यादा उन्मत्त हुआ है। फिर यह भी चौंकानेवाली बात है कि नई पीढ़ी के लोग हर मसले से उदासीन हो रहे हैं लेकिन दूसरी ओर वे ज्यादा कठोर हिंदू या ज्यादा कठोर मुसलमान हो रहे हैं। किसी भी किस्म की बड़ी संभावनाओं को रोकने के लिए धर्म का विश्वव्यापी पुनरोत्थान हो रहा है। दरअसल, इस वक्त चिन्ता यह होनी चाहिए कि इस नए तरह के सांप्रदायिकीकरण से कैसे लड़ा जाए। सांप्रदायिकता का नया मुखौटा, पता नहीं कितना आधुनिक होगा? कहीं ज्यादा संगीन वक्त आने वाला है और उससे लडऩे की तैयारी नहीं है।
हिंदी का मीडिया तो सोफ्ट हिंदू लाइन पहले ही ले चुका था। वह इसे बिक्री के एक फॉर्मूले की तरह देखता है। वह जिस तरह बाज़ार की पैरोकारी कर रहा है और उसके लिए चाहत बढ़ाने का काम कर रहा है, उसी तरह हिंदुत्व की पैरोकारी कर रहा है और उसे भड़काने का काम कर रहा है। हिंदू सामाजिक कर्मकांड जो पहले बड़ी बाधा खड़ी किए बिना, शालीनता से मौजूद रहता था, उसका बाज़ार से भयावह गठजोड़ हो गया है। दूसरी तरफ, अंग्रेजी मीडिया अपनी स्नॉबरी बचाने में लगा हुआ है। हालांकि, बाजार का पिट्ठू तो वह भी है।

अरुण कमल

कोई भी धर्म संबंधी समस्या प्राय: हल नहीं होती। विशेष कर ऐसे समाज में जिसमें दो धर्म शामिल हों, बिल्कुल ही हल नहीं होती। अगर, होती है तो गैर धार्मिक तरीकों से। कई बार एक ही धर्म के दो पंथों के बीच भी समस्याएं होती हैं। हर धर्म में ऐसा देखा जाता है। इन्हें आप न तो सदिच्छा से हल कर सकते हैं और न दो में से किसी एक का पक्ष लेकर। क्योंकि एक समस्या दूसरी को, दूसरी तीसरी को जन्म देती जाती हैं। इसलिए, अगर समस्या हल होती भी है तो गैर धार्मिक यानी धर्मनिरपेक्ष तरीकों से। जैसे इस्ताम्बूल में, जो पहले बिजेंटियम कहा जाता था और भारत में वैजयन्ती, वहां एक पुराना भव्य चर्च था जिसे इस्लाम के अनुयायियों ने मस्जिद में बदल दिया। समस्या पैदा हो गई। बाद में इसे हल किया मुस्तफा कमाल पाशा ने, इस मस्जिद को बेजेंटाइन संस्कृति के संग्रहालय में बदलकर। इसी तरह यॉर्क (इंग्लैंड) में पुराने चर्च को बूढ़े लोगों की बैठक में बदल दिया गया। शुरू से ही धर्म, हरेक धर्म और हर धर्म का हरेक पंथ आक्रामक रहा है। जितना खून धर्म और पंथ के नाम पर बहा, उतना और किसी कारण नहीं। इसलिए, मेरी समझ है कि चाहे जैसे भी हो, ऐसा कुछ भी न किया जाए जिससे खून बहे।
दूसरी बात यह कि धार्मिक समस्या या कोई भी सामाजिक समस्या कोर्ट-कचहरी से हल नहीं होती। कचहरी ने तो यह कह दिया कि हड़ताल गैरकानूनी है। तो क्या हम इसे मान लेंगे? इसके अलावा ज्ञान, दर्शन या इतिहास की समस्याएं कभी भी अंतिम रूप से हल नहीं होतीं। बहस चलती रहती है। यह कोर्ट-कचहरी के ऊपर की चीज है। इसमें मान्य विद्वानों की बात ही मानी जाएगी और मानी जानी चाहिए। तुलसीदास बड़े कवि हैं या नहीं, इसका फैसला सुप्रीम कोर्ट थोड़े ही करेगा। यही बात अयोध्या की खुदाई पर भी लागू होगी।
जहां तक मेरी बात है, मैं समझता हूं कि अगर वह स्थल किसी एक धार्मिक स्थल या पंथ को देने से खून-खराबे का डर हो तो बेहतर है कि एक संग्रहालय, वृद्धाश्रम, अनाथालय जैसा कुछ बनाया जाए।
जहां तक हिंदी के लेखकों की बात है तो हमेशा ही उन्होंने हिंसा और उन्माद का विरोध किया है। अगर आज वे कम बोल रहे हैं तो इसका कारण है हिंसा का भय। चाहे जो हो, हम खून-खराबा नहीं चाहते।
जहां तक पूरे देश और समाज की बात है, मुझे लगता है कि पिछले वर्षों में हमारा समाज पहले की तुलना में ज्यादा रूढिग़्रस्त, दकियानूस तथा धर्म-डरपोक बना है। आज बहुत से लोग अपने हाथ में बद्धी (कलावा) बांधे मिलते हैं, नेता लोग भी, जबकि पहले इसे केवल सत्यनारायण व्रत कथा में बांधा जाता था या यज्ञ प्रयोजन में। इसी तरह मुसलमानों में दाढ़ी रखने, बुर्का पहनने का चलन बढ़ा है। रूढि़वादियों से डर बढ़ा है। आदिम पंचायतों का खौफ बढ़ा है। केरल में एक शिक्षक के हाथ तक काट डाले गए। अगर आप कश्मीर से केरल तक नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि हमारा समाज दूसरे धर्म के प्रति ज्यादा असहिष्णु हुआ है। दूसरी जातियों, क्षेत्रों और भाषाओं के प्रति भी। असुरक्षा और अनिश्चय की भावना बढ़ी है। यह सब पूंजीवाद के बढऩे से हो रहा है जिस पर हम कोई बात नहीं करते। सब कुछ की जड़ में हैं पूंजीवाद। सारी खुराफात की जड़ में है पूंजीवाद। यह पूंजीवाद के हित में है कि आपसी झगड़े बढ़ें। यह अकारण नहीं है कि 20 साल पहले जबसे पूंजीवाद इस देश में बेलगाम हुआ, तभी से धर्म, जाति, क्षेत्र के झगड़े भी तेज हुए। हम इस साजिश को समझें और इस पृथ्वी पर ईश्वर के घर की तलाश नहीं, मनुष्य के घर का निर्माण करें। कोर्ट-कचहरी भी तो पूंजीवाद की रक्षा के लिए ही हैं।

कात्यायनी

यह फैसला बाबरी मस्जिद गिराने वाली सांप्रदायिक फासीवादी शक्तियों को सही ठहरा रहा है और उन्हें एक तरह से दोषमुक्त कर रहा है। बेंच ने दो-एक के बहुमत से मान लिया कि चूंकि हिंदू गुंबद के नीचे की जगह को राम का जन्मस्थान मानते रहे हैं, इसलिए इस जगह को हिंदुओं को सौंप दिया जाना चाहिए। यह फैसला भारतीय न्यायपालिका के सेक्युलर चरित्र के खिलाफ जाता है। अजीब-सा बंटवारा कर अधिकांश जगह हिंदुओं को सौंप दी गई है। न्यायालय ने अपने मन से यह फैसला सुनाकर कि रामलला गुंबद के नीचे ही जन्मे थे, पूरे फैसले की सत्यता पर संगीन सवाल खड़ा कर दिया है। दूसरी ओर, मस्जिद गिराए जाने का मुकदमा अभी चल ही रहा था तो जमीन के बंटवारे का फैसला कैसे दिया जा सकता था? राम को बाहर से लाकर स्थापित करने, ताला खोले जाने और मस्जिद को ढहा दिए जाने जैसी बातों को नजरंदाज कर दिया गया। यह फैसला अतार्किक है और सांप्रदायिकता के पक्ष में जाकर खड़ा होता है। पुरातात्विक प्रमाणों पर बहुसंख्यक हिंदुओं की आस्था को तरजीह दी गई है। अगर यही करना था तो फिर न्यायालय ने पुरातत्व विभाग को वहां खुदाई करने का आदेश क्यों दिया था? आस्था को आधार बनाकर तो पहले ही फैसला दिया जा सकता था।
पुरातत्व की रिपोर्ट अगर बताती है कि जहां मस्जिद थी, वहां पहले किसी पूजास्थल के अवशेष थे तो भी यह दावे से नहीं कहा जा सकता कि वहां मंदिर था या पूजास्थल किसी घर में रहा होगा। उस स्थल से कब्र और हड्डियां भी मिली हैं, जिनका किसी वैष्णव मंदिर में कोई औचित्य नहीं बनता। हो सकता है कि वह कोई ऐसी जगह रही हो, जहां हिंदू और मुसलमान दोनों मिलकर रहते रहे हों और और इसीलिए अब दोनों की रिहाइश के प्रमाण मिल रहे हैं। खुदाई के दौरान बतौर पर्यवेक्षक उपस्थित रहीं सुप्रिया वर्मा कहती हैं कि न्यायाधीशों ने पुरातात्विक नतीजों का इस्तेमाल ही नहीं किया। ऐसा लगता है कि न्यायाधीश स्वयं भी पुरातत्ववेत्ताओं की खोजसे संतुष्ट नहीं थे और उन्हें मनचाहे फैसले के लिए आस्था को ही आधार बनाना पड़ा।
वैसे तो ये सवाल ही व्यर्थ हैं कि राम थे या नहीं, थे तो उनका जन्म कहां हुआ था और बाबरी मस्जिद मंदिर तोड़कर बनाई गई थी या नहीं। लेकिन इन्हें सवाल माना जाता है तो हिंदुवादी संगठनों के तर्कों पर भी तो सवाल खड़े होते हैं। आखिर यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि अयोध्या में जितने भी मंदिर बने, सब बौद्ध स्थलों को तोड़कर बनाए गए। न जाने कितने बौद्धों को मार-काटकर सरयू में बहा दिया गया। अगर यह मान भी लिया जाए कि बाबर ने मंदिर तोड़कर मस्जिद बनवाई थी तो इतिहास में किसी एक जगह कैसे रुकोगे। फिर क्या मंदिरों को तोड़कर बौद्धस्थलों का निर्माण कराया जाएगा। जितना पीछे जाएंगे, उतनी ही बातें सामने आती रहेंगी। इतिहास में घटित हो चुकी घटनाओं का हिसाब न तो वर्तमान में किया जा सकता है और न ही किया जाना चाहिए। वैसे अयोध्या में ऐसे कई मंदिर हैं जहां राम का जन्मस्थान होने का दावा किया जाता है।
पूंजीवादी मीडिया देश के वास्तविक प्रश्नों मसलन, करीब 84 करोड़ लोगों के 20 रुपये रोज़ाना से कम पर गुजर करने को मजबूर होने, बड़ी आबादी की बेरोजगारी, भुखमरी, जातिगत व स्त्री उत्पीडऩ की भयावह स्थिति आदि से मुख मोड़कर मंदिर-मस्जिद को प्रमुख सवाल की तरह पेश करता रहा है। अब वह लगातार यह भोंपू बजा रहा है कि इस फैसले से सद्भावना बढ़ेगी, भाईचारा बनेगा और शांति कायम होगी। इस फैसले से धार्मिक वैमनस्य खत्म नहीं होगा, बढ़ेगा। जहां तक शांति की बात है तो संघ परिवार चाहकर भी फिलहाल वैसा उन्माद पैदा नहीं कर सकता था, जैसा बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद पैदा किया गया था। कांग्रेस अपने नए बन रहे वोट बैंक को खिसकने न देने के लिए चुप रही और दलितों की राजनीति करने वाली पार्टी सांप्रदायिक उन्माद की स्थिति में दलित वोटों के सांप्रदायिक शक्तियों की ओर खिसक जाने के डर से चौकस रहीं। कॉमनवेल्थ गेम्स और बाहर से आ रही पूंजी से खड़ी हो रही चीजों की बंदरबांट ने भी इन ताकतों के स्वर को जरा नरमबनाए रखा।
लेकिन अफसोस बुद्धिजीवियों की भूमिका को लेकर है जो विश्लेषण कर सही परिप्रेक्ष्य में चीजें रखने के बजाय पूंजीवादी मीडिया के फंदे में ही फंसता दिखाई दिया। 1980 के बाद से मध्यवर्ग का वर्ग चरित्र बदलने लगा था और उसे व्यवस्था ने प्रलोभन देने शुरू कर दिए थे। लेखक भी अब इसी मध्य वर्ग का हिस्सा हैं। एक तरह से यह आम जनता के साथ ऐतिहासिक विश्वासघात का दृश्य है। कुछ लोग जरूर मजबूती से स्टेंड पर कायम हैं और इन परिस्थितियों के बीच से ही नई राह और न्याय के लिए लडऩे वाले नए लोग आएंगे, यह उम्मीद भी कायम है।
 http://www.samayantar.com/2010/11/01/babari-masjid-faisala-hindi-lekhak/

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