गुजरात के
मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 3 दिन का उपवास रखा
लेकिन समय से पहले ही खत्म कर दिया। कायदे से 72 घंटे का उपवास
था जो आजतक टीवी चैनल के अनुसार 55 घंटे में ही
खत्म हो गया। मोदी ने यह उपवास क्यों किया इस पर खूब बहस हुई है। संघ की राजनीति
को मैं विगत 35 सालों से ज्यादा समय
से करीब से देखता रहा हूँ और मेरी जानकारी में मोदी ने इन 35 सालों में कभी उपवास नहीं किया। हो सकता है उनके भक्त मोदी
के उपवास की कोई नई सूची लेकर
आएं। लेकिन कम से कम 35 सालों में यह उनका
बहुप्रचारित पहला उपवास था। जैसाकि मोदी का व्यक्तित्व है उसके अनुरूप इस उपवास की
हाईटैक मीडिया तैयारियां की गयीं और इस उपवास पर 50 करोड़ से
ज्यादा का खर्चा किया गया। इतने ज्यादा पैसे खर्च करके भारत में किसी ने राजनीतिक
उपवास नहीं किया। सदभावना मिशन के रूप में उपवास को मीडिया में प्रचारित किया गया।
उपवास में गुजरात की जनता से ज्यादा संख्या में मीडियावालों ने कवरेज करते हुए
शिरकत की। मीडिया का इतना शानदार समावेश और प्रभावशाली कवरेज देखने लायक था।
मजेदार बात यह हैकि किसी भी मीडिया घराने ने मोदी के सदभावना के दावे को जमीनी
स्तर पर जाकर देखने और नए सिरे से तथ्यसंग्रह करके कोई रिपोर्ट फाइल नहीं की।
मीडिया घराने पूरी तरह मोदी को कवरेज देने में व्यस्त रहे और अपने प्रचारक रूप पर
पर्दा डालने के लिए किसी न किसी पत्रकार या एंकर के जरिए मोदी के बारे में
आलोचनात्मक सवाल उठाते रहे, एंकरों की मोदी आलोचना
सुनाते रहे। इससे मोदी के प्रचार में इजाफा हुआ। मोदी के प्रचार का जबाब एंकर की
राय या पत्रकार विशेष की राय नहीं हो सकती बल्कि गुजरात की जमीनी हकीकत के तथ्यों
से उसका जबाव खोजना चाहिए।
इस समय सारे देश में सदभाव है ,कहीं पर भी साम्प्रदायिक
तनाव नहीं है। ऐसे में सदभावना के नाम पर उपवास का अर्थ क्या है ? क्या मोदी
ने आडवाणी-सुषमा स्वराज-जेटली टाइप नेताओं को कमजोर करके अपने लिए भाजपा में और ज्यादा शक्ति
जुटाने के लिए यह मिशन आरंभ किया है ? क्या यह भाजपा को और भी ज्यादा हिन्दुत्ववादी एजेण्डे पर
ठेलने की कोशिश है ? एनडीए के नाम
पर जो मोर्चा बना हुआ है उसमें शामिल धर्मनिरपेक्ष दलों को यह आईना दिखाने की
कोशिश भी हो सकती है ? मीडिया ने इसे मोदी की भावी राजनीतिक
महत्वाकांक्षाओं से जोड़ा है और भावी प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें पेश किया है।
असल में भावी प्रधानमंत्री के सपने से इस उपवास का कोई संबंध नहीं है। इसका गहरा
संबंध भाजपा के पीछे सक्रिय हिन्दुत्व की पुख्ता शक्तियों को और भी आक्रामक ढ़ंग
से काम करने और हिन्दुत्व के कार्ड को प्रच्छन्न भाव से इस्तेमाल करने की ओर है।
मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के सदभावना मिशन का हिन्दू-मुस्लिम सदभाव से कोई संबंध नहीं है। उलटे
विकास के नाम पर मुस्लिम विरोध को और भी आक्रामक बनाना इसका लक्ष्य है। मोदी ने
उपवास खत्म करते हुए साफ कहा कि उनका अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक
के विभाजन में विश्वास नहीं है। यह बयान संघ परिवार की बुनियादी मुस्लिम विरोधी
धारणाओं की ही प्रस्तुति है। मोदी जानते हैं अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक
नामक केटेगरी मौजूद हैं। ये विश्व संस्थानों के द्वारा बनाई केटेगरी हैं और उनके
आधार पर ही भारत में यह वर्गीकरण किया गया है। मोदी को इनको मानना होगा।सत्ता के
नियम और कानूनों का ये केटेगरी अभिन्न हिस्सा हैं। अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक संवैधानिक केटेगरी हैं। इनका पालन करना सभी को अनिवार्य है।
मोदी ने इन केटेगरी को अस्वीकार करके अंततः अपने अंदर बैठे लोकतंत्रविरोधी और
अल्पसंख्यक विरोधी भावों की ही अभिव्यक्ति की है।
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अनशन समाप्त
करतेहुए संदेश दिया है कि वे मुसलमानों से उतनी ही घृणा करते हैं जितनी कोई संघी
नेता करता है। वे विकास की ओट में मुस्लिम समाज के प्रति अपनी घृणा को संकेतों में
व्यक्त कर गए ,वे सदभावना के नाम पर हिन्दू एकजुटता में लगे रहे।
नभाटा के अनुसार (29सितम्बर 2011)" पिराना गांव की एक दरगाह के
सैयद इमाम शाही सैयद मंच पर मोदी से मिलने पहुंचे और उन्हें शॉल तथा टोपी पहनानी
चाही, तो मोदी ने शॉल तो ओढ़ ली, मगर टोपी पहनने से इनकार कर
दिया। बकौल इमाम मोदी ने उनसे गुजराती में कहा 'मैं टोपी नहीं पहनता।'
इमाम ने वहां तो कुछ नहीं कहा, लेकिन वह
मुख्यमंत्री के इस व्यवहार से निराश हुए। बाद में मीडिया से बात करते हुए उन्होंने
कहा कि 'यह मेरा अपमान नहीं
बल्कि सूफी परंपरा और हमारे धर्म गुरुओं का अपमान है।' उन्होंने
कहा कि बतौर मुख्यमंत्री अगर वह मंच पर दूसरे तमाम समुदायों की भावनाओं का सम्मान
करते हुए उनके निशान धारण कर सकते थे तो फिर हमारे निशान पर एतराज क्यों? "
अब हम मोदी के विकासपुरूष वाले पहलू पर गौर करें और उससे
जुड़ी वैचारिक संरचनाओं की गंभीरता से पड़ताल करें।
संघ परिवार
के द्वारा विकासपुरूष के रूप में मोदी को अनशन पर उतारा गया । इसबार मोदी भक्त 'जयश्री राम' का नारा
लगाने की बजाय 'विकास -विकास'
,'सदभावना-सदभावना' का
नारा लगा रहे थे। जिस गुजरात में पांच साल पहले तक संघी नेता घृणा से भरे भाषण
देते थे अब उसी गुजरात में संघ के नेताओं का विकास और सिर्फ विकास का जाप उस बदलती
इमेज की ओर ध्यान खींचता है जिसे सचेत रूप से मीडिया के जरिए निर्मित किया गया है।
विकास का नारा ,कारपोरेट नारा है। यह जनता का नारा नहीं है।
मोदी ने अपने प्रचार के लिए इसबार सदभावना को चुना है। यह हाइपररीयल राजनीति की
विचारधारा में निर्मित नारा है।
हाइपररीयल राजनीति की केन्द्रीय विशेषता है कि वह
आयामकेन्द्रित होती है। कृत्रिम होती है। कृत्रिम स्मृति निर्मित करती है। अन्तर्निहित
नियंत्रण को उभारती है। पहले वाली इमेजों को तरल, सरल और नरम बनाती है। तरल,नरम और सरल इमेजों का
ताना-बाना नेता की इमेज को भी परिवर्तित करता है
और आम लोगों के जेहन से नेता की पुरानी इमेज को धो देता है। याद करें तरल,नरम और सरल का
चरमोत्कर्ष था मोदी का विधायकदल की बैठक में रो पड़ना । भाजपा के साथ अपने रिश्ते
को माँ-बेटे के रिश्ते के रूप में परिभाषित करना।
माँ-बेटे का रिश्ता तरल,नरम और सरलता की आदर्श
मिसाल माना जाता है।और इसबार सदभावना -सदभावना का जाप।
मुसलमानों
को वे तरलभाव से फासीवाद का पाठ पढ़ा रहे हैं। इसबार सदभावना की थीम है,पहले गुजरात के गौरव और
अस्मिता की थीम थी। उसके बहाने मोदी ने गुजरात के जनमानस का पुनर्निर्माण किया है।
उसकी चित्तवृत्तियों को पुनर्निर्मित किया है। उसमें गुजरात अस्मिता और गौरव के
हाइपररीयल आख्यान को अनुकरणात्मक रणनीति के तहत पेश किया है। यह एक तरह का 'माइक्रोवेब
डिसकम्युनिकेशन' है। इलैक्ट्रिक संवेदना और भावों का निर्माण है। इसमें
आंकड़े चकाचौंध पैदा करने वाले होते हैं। भाषण भ्रमित करने वाले होते
हैं।प्रौपेगैण्डा के जरिए 'सिंथेटिक कल्ट' पैदा किया जाता है। बौने लोग बड़े नजर आने लगते हैं।
महानायक नजर आने लगते हैं। ये मूलत: वर्चुअल नायक हैं। इनके चारों ओर वर्चुअल चौकसी जारी रहती है। अदृश्य
बौध्दिकता का वातावरण बनाया जाता है और प्रचार के लिए,खासकर मीडिया प्रचार के
लिए पेशेवर लोगों का इस्तेमाल किया जाता है। हाइपररीयल प्रौपेगैण्डा अहर्निश
संप्रेषण और संपर्क है। इसके लिए इंटरनेट,एसएमएस और इलैक्ट्रोनिक मीडिया का व्यापक इस्तेमाल किया
जाता है। हाइपररीयल प्रचार रणनीति मूलत: मेगनेटिक निद्राचारी की रणनीति है।
हाइपररीयल प्रौपेगैण्डा वातावरण बनाता है। यह निर्मित
वातावरण है,स्वाभाविक वातावरण नहीं है। इसमें दाखिल होते ही इसकी भाषा
बोलने के लिए मजबूर होते हैं। इसके स्पर्श में बंधे रहने के लिए अभिशप्त हैं। एक
बार इस वातावरण में दाखिल हो जाने के बाद वही करते हैं जो वातावरण निर्देश देता
है। आप बातें नहीं करते, बहस नहीं करते सिर्फ निर्मित वातावरण के निर्देशों के
अनुसार काम करते हैं। इस क्रम में धीरे-धीरे आपकी चेतना भी बदलनी शुरू हो जाती है। इसी को चुम्बकीय प्रचार कहते
हैं। चुम्बकीय प्रचार अभियान समयकेन्द्रित संपर्क पर आधारित होता है। नियमन करता
है और अनुकरण के लिए उदबुद्ध करता है।। चुम्बकीय घेरे में एकबार आ जाने के बाद
नियंता के जरिए जो भी संदेश,आदेश मिलते हैं व्यक्ति उनका पालन करता है। व्यक्ति में यह
क्षमता नहीं होती कि उसके बाहर चला जाए। व्यक्ति बहुत ही सीमित दायरे में रखकर
चीजें देखने लगता है,जिन चीजों से डर लगता है उनसे ध्यान हटा लेता है। वैविध्यपूर्ण
संवेदनाओं से ध्यान हटा लेता है। वह एकदम आराम की अवस्था में होता है अथवा भय की।
हाइपररीयल प्रौपेगैण्डा की भाषिक रणनीति वह नहीं है जो
प्रिंटयुग की भाषिक रणनीति है। प्रिंटयुग की भाषा सटीक भाषा के प्रयोग और ठोस
यथार्थ पर आधारित होती थी। उसके अनुरूप ही भाषा भी चुनी जाती थी। भाषा और यथार्थ
में अंतर नहीं होता। इसके विपरीत हाइपरीयल भाषा ठोस यथार्थ को व्यक्त नहीं करती।
बल्कि निर्मित या कृत्रिम यथार्थ को व्यक्त करती है। यह इमेजों की भाषा है।
अयथार्थ भाषा है। यह ऐसी भाषा है जिसे आप पकड़ नहीं सकते। ठोस यथार्थ से जोड़ नहीं
सकते । यह मूलत: पेशेवर लोगों की भाषा है
जिसे धीरे-धीरे साधारणजन भी अपनाने लगते हैं। इस भाषा का
वास्तव संदर्भ से कोई संबंध नहीं होता। यह संदर्भरहितभाषा है। प्रिंटयुग की भाषा
में संदर्भ खुला होता था। संदर्भरहित होने के कारण ही इसकी अनेकार्थी व्याख्याएं
भी होती हैं।
साम्प्रदायिकता
को नंगा करने वाली भाषा अब मर्मस्पर्शी भाषा नहीं गयी है। वह जड़पूजावाद की शिकार
हो गयी है। वह देवत्वभाव की शिकार हो गयी है। प्रयोगकर्ता यह मानकर चलता है कि साम्प्रदायिकता के बारे
में ज्योंही कुछ बोलना शुरू करेंगे लोग आशा ,उम्मीद और भरोसे के साथ जुड़ना पसंद करेंगे। किंतु साइबरयुग
में ऐसा नहीं होता, साम्प्रदायिकता विरोध जड़पूजावाद का शिकार हो चुका है और जब
कोई विषय और उसकी भाषा अहर्निश पुनरावृत्ति करने लगे तो समझो वह अप्रासंगिक हो गयी
है अथवा अप्रासंगिकता की दिशा में जा रही है। इस मामले में हमें साम्प्रदायिक-तत्ववादियों और आतंकवादियों की भाषा के
प्रयोगों को गौर से देखें। वे कभी रूढ़िगत भाषा का प्रयोग नहीं करते और अप्रासंगिक
सवाल नहीं उठाते। वे भाषा की पुनरावृत्ति नहीं करते। वे लगातार मुद्दे बदलते हैं।
हमेशा सामयिक मुद्दे के साथ हमला करते हैं। सामयिक व्यक्ति पर हमला करते हैं।
उन्हें प्रासंगिक अथवा सामयिक पसंद है। प्रच्छन्नभाषा अथवा कृत्रिम भाषा पसंद है।
हाइपररीयल
प्रौपेगैण्डा में व्यक्ति के अवचेतन को निशाना बनाया जाता है। यथार्थ की घेराबंदी
की जाती है। ऊपर से आपको यही लगता है कि आप इससे परे हैं। चुम्बकीय प्रचार अभियान
सहजजात संवेदनाओं को सम्बोधित करता है। उसके जरिए ही व्यक्ति के व्यवहार और आदतों
को नियंत्रित किया जाता है। धीरे-धीरे उसे
इस सबका अभ्यस्त बना दिया जाता है। इस कार्य में भाषा बहुत बड़ी भूमिका अदा करती
है। भाषा के स्तर पर साम्प्रदायिक और फासीवादी ताकतें 'और', 'किंतु','परंतु','मसलन्', 'क्योंकि','इसलिए', 'कब' का वैचारिक
सेतु के रूप में इस्तेमाल करती हैं। 'और' आदि का इस्तेमाल अमूमन यथार्थ से ध्यान हटाने के लिए किया
जाता है।
No comments:
Post a Comment