माननीय मुख्यमंत्री महोदय ने चुनाव पूर्व
बिहार में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को अपना प्रमुख मुद्दा बताया था| उन्होंने वादा किया था कि हम जनता की आँखों से देखेंगे और उन्हीं के कानों से
सुनेंगे भी| जनता की आँखें तो तथ्यात्मक सूचनाओं के बिना
मोतियाबिंद के मरीज की आँखें बन जाती हैं और कान तो सुनेंगे वही जो उन्हें सुनाया
जाएगा| पारदर्शिता के क्षेत्र में काम करने के लिए अखबारों में बिहार सरकार की काफी
तारीफ़ हो रही है और व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के लिए नित नई-नई व्यवस्थाएं की जा रही है| सूचना का अधिकार क़ानून स्वतन्त्र भारत में एक क्रांतिकारी बदलाव के रूप में
देखा गया था| लोकहित में इसका काफी प्रयोग किया जाने लगा, जिससे सरकारी तंत्र और भ्रष्ट अधिकारियों में खौफ पैदा हुआ| बिहार सरकार ने प्रशासनिक पारदर्शिता के क्षेत्र में विशिष्ट पहल करते हुए जानकारी सुविधा केन्द्र की स्थापना की, जिसमें कॉल सेंटर तथा इंटरनेट के माध्यम से सूचना
हेतु आवेदन देने की व्यवस्था की गयी| देश में पहली बार जब बिहार
सरकार ने आईसीटी (ICT-Information and Communications
Technology) का प्रयोग करते
हुए सूचना अधिकार अधिनियम को व्यापक स्तर पर प्रसारित करने एवं आम लोगों की पहुँच
तक लाने का काम किया तो बिहार सरकार की इस पहल को भारत सरकार द्वारा ई-गवर्नेंस का उत्कृष्ट उदाहरण
मानते हुए पुरस्कृत किया गया था| समय बीतने के साथ भ्रष्ट
गठजोड़ ने इसका तोड़ खोजना शुरू किया और आज इस क़ानून को ठेंगा दिखाया जाने लगा| आज बिहार सरकार के सारे दफ्तरों में सूचना देने के बजाए सूचना छुपाने हेतु
भरपूर जोर-आजमाईश हो
रही है|
जानकारी सुविधा केन्द्र के बारे में तो बस यही कहा जा सकता है कि यह व्यवस्था संभवतः बिहार सरकार ने केवल पुरस्कार पाने के लिए ही बनाई थी| ऑनलाइन दर्ज आवेदनों के बारे में मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह कहता है कि उनका कोई रेस्पोंस नहीं लिया जाता| अगर व्यवस्था गूंगी-बहरी हो तो क़ानून में दर्ज प्रथम अपील, द्वितीय अपील बस कागज़ पर लिखे क़ानून ही रह जाते हैं, वे जमीन पर पाँव ही नहीं रखते| इतनी शानदार व्यवस्था का व्यवस्थापकों ने भ्रूण-ह्त्या कर रखी है|
सूचना आयोग की लापरवाही का आलम यह है वाद संख्या ४६९६३/१०-११ के लोक सूचना अधिकारी प्रखंड विकास पदाधिकारी, दाउदनगर है| पर, सूचना आयोग से नोटिस प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी, दाउदनगर को प्रेषित की जाती है| हद तो तब, जब प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी एवं आवेदक दोनों द्वारा बार-बार यह बताया जाता है कि इसमें लोक सूचना अधिकारी प्रखंड विकास पदाधिकारी, दाउदनगर हैं तब भी आयोग के वेबसाईट पर इसे सुधारा नहीं जाता है| इस लेख के लिखे जाने तक आयोग के आधिकारिक वेबसाईट पर इसमें सुधार नहीं किया गया है और पूरा विश्वास है कि इस लेख के छपने के बाद भी आप इसे यथावत देख सकते है|
सूचना के अधिकार पर काम कर रहे बिहार के चर्चित कार्यकर्ता एवं नागरिक अधिकार मंच के अध्यक्ष श्री शिवप्रकाश राय ने जब सूचना आयोग से यह जाननी चाही कि अब तक आयोग ने सूचना के अधिकार अधिनियम की धारा २०(१) और २०(२) अंतर्गत कितने लोक सूचना पदाधिकारियों पर अर्थ दंड लगाए, कितने पर विभागीय कार्रवाई की अनुशंसा की, कितनों से अर्थदंड की वसूली हुई और कितनों पर विभागीय कार्रवाई की गयी| तो सूचना आयोग के लोक सूचना पदाधिकारी ने इन सूचनाओं के उपलब्ध नहीं रहने की सूचना दी| क्या सूचना आयोग के पास भी अपने कार्यों के बारे में ही सूचना नहीं है ?
असली बात यह है कि सूचना आयोग में द्वितीय अपील की सुनवाई के दौरान दिखावे को तो लोक सूचना पदाधिकारियों पर अधिनियम के विरुद्ध आचरण करने हेतु जुर्माना लगाया जाता है, जो समाचार पत्रों की सुर्खियाँ बनती हैं| पर, या तो उन पर लगाए जुर्माने को वसूलने हेतु कोई कार्रवाई नहीं होती अथवा अवैधानिक तरीके से उनका जुर्माना ही माफ कर दिया जाता है| सूचना के अधिकार अधिनियम में कहीं भी लोक सूचना अधिकारी पर लगे अर्थदंड को माफ करने का प्रावधान नहीं है| उदाहरण के तौर पर वाद संख्या ३२२८६/०९-१० का उल्लेख करना मुनासिब होगा| दिनांक ०५|०४|२०११ को इस मामले की सुनवाई करते हुए राज्य सूचना आयुक्त श्री पी० एन० नारायणन ने लोक सूचना अधिकारी सह पंचायत सचिव तथा पंचायत रोजगार सेवक, ग्राम पंचायत- राजपुर (बक्सर) पर २५००० रूपए का अर्थदंड लगाया तथा दिनांक ३०|०६|२०११ तक आवेदक को सूचना दी जाने, दंड राशि जमा किए जाने तथा धारा २०(२) अंतर्गत आयोग में स्पष्टीकरण देने का आदेश दिया| लेकिन अगली तिथि दिनांक ०२|०९|२०११ को मुख्य सूचना आयुक्त श्री अशोक कुमार चौधरी ने जुर्माने एवं स्पष्टीकरण की बात तो छोड़ ही दें, लोक सूचना अधिकारी को सूचना आयोग में उपस्थिति से भी छूट दे दी| ऐसे फैसले दाल में कुछ काला होने का भान कराते हैं, नागरिक अधिकार मंच के अध्यक्ष श्री शिव प्रकाश राय तो कहते हैं कि पूरी दाल ही काली है|
ऐसे भी मामले हैं जिनमें सूचना आयोग ने लोक सूचना पदाधिकारी को सूचना देने का आदेश दिया, तो वे सूचना आयोग के आदेश के खिलाफ उच्च न्यायालय चले गए| श्री शिव प्रकाश राय द्वारा प्राप्त की गयी सूचना के अनुसार वर्ष २००८ से ०५|०८|२०११ तक ऐसे कुल १०० मामले हैं| इन मामलों में सूचना आयोग को अब तक दस लाख रूपए से अधिक की राशि वकीलों को कानूनी सलाह लेने के बदले में देना पड़ा है, लोक सूचना पदाधिकारियों द्वारा व्यय की गयी राशि का विवरण उपलब्ध नहीं है| पर यह निश्चित रूप से राज्य सूचना आयोग द्वारा व्यय की गयी राशि से कई गुनी अधिक होगी| दोनों पक्षों द्वारा व्यय की गयी राशि बिहार सरकार के राजकोष से खर्च हो रहे हैं| कितनी अजीब बात है कि बिहार सरकार के राजकोष की राशि का अपव्यय सरकार के संस्थाओं द्वारा ही परस्पर विरोध में किया जा रहा है- एक सूचना दिलाने के नाम पर दूसरा सूचना छुपाने के लिए| क्या यह प्रदेश की निरीह जनता के साथ भद्दा मजाक नहीं है
जानकारी सुविधा केन्द्र के बारे में तो बस यही कहा जा सकता है कि यह व्यवस्था संभवतः बिहार सरकार ने केवल पुरस्कार पाने के लिए ही बनाई थी| ऑनलाइन दर्ज आवेदनों के बारे में मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह कहता है कि उनका कोई रेस्पोंस नहीं लिया जाता| अगर व्यवस्था गूंगी-बहरी हो तो क़ानून में दर्ज प्रथम अपील, द्वितीय अपील बस कागज़ पर लिखे क़ानून ही रह जाते हैं, वे जमीन पर पाँव ही नहीं रखते| इतनी शानदार व्यवस्था का व्यवस्थापकों ने भ्रूण-ह्त्या कर रखी है|
सूचना आयोग की लापरवाही का आलम यह है वाद संख्या ४६९६३/१०-११ के लोक सूचना अधिकारी प्रखंड विकास पदाधिकारी, दाउदनगर है| पर, सूचना आयोग से नोटिस प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी, दाउदनगर को प्रेषित की जाती है| हद तो तब, जब प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी एवं आवेदक दोनों द्वारा बार-बार यह बताया जाता है कि इसमें लोक सूचना अधिकारी प्रखंड विकास पदाधिकारी, दाउदनगर हैं तब भी आयोग के वेबसाईट पर इसे सुधारा नहीं जाता है| इस लेख के लिखे जाने तक आयोग के आधिकारिक वेबसाईट पर इसमें सुधार नहीं किया गया है और पूरा विश्वास है कि इस लेख के छपने के बाद भी आप इसे यथावत देख सकते है|
सूचना के अधिकार पर काम कर रहे बिहार के चर्चित कार्यकर्ता एवं नागरिक अधिकार मंच के अध्यक्ष श्री शिवप्रकाश राय ने जब सूचना आयोग से यह जाननी चाही कि अब तक आयोग ने सूचना के अधिकार अधिनियम की धारा २०(१) और २०(२) अंतर्गत कितने लोक सूचना पदाधिकारियों पर अर्थ दंड लगाए, कितने पर विभागीय कार्रवाई की अनुशंसा की, कितनों से अर्थदंड की वसूली हुई और कितनों पर विभागीय कार्रवाई की गयी| तो सूचना आयोग के लोक सूचना पदाधिकारी ने इन सूचनाओं के उपलब्ध नहीं रहने की सूचना दी| क्या सूचना आयोग के पास भी अपने कार्यों के बारे में ही सूचना नहीं है ?
असली बात यह है कि सूचना आयोग में द्वितीय अपील की सुनवाई के दौरान दिखावे को तो लोक सूचना पदाधिकारियों पर अधिनियम के विरुद्ध आचरण करने हेतु जुर्माना लगाया जाता है, जो समाचार पत्रों की सुर्खियाँ बनती हैं| पर, या तो उन पर लगाए जुर्माने को वसूलने हेतु कोई कार्रवाई नहीं होती अथवा अवैधानिक तरीके से उनका जुर्माना ही माफ कर दिया जाता है| सूचना के अधिकार अधिनियम में कहीं भी लोक सूचना अधिकारी पर लगे अर्थदंड को माफ करने का प्रावधान नहीं है| उदाहरण के तौर पर वाद संख्या ३२२८६/०९-१० का उल्लेख करना मुनासिब होगा| दिनांक ०५|०४|२०११ को इस मामले की सुनवाई करते हुए राज्य सूचना आयुक्त श्री पी० एन० नारायणन ने लोक सूचना अधिकारी सह पंचायत सचिव तथा पंचायत रोजगार सेवक, ग्राम पंचायत- राजपुर (बक्सर) पर २५००० रूपए का अर्थदंड लगाया तथा दिनांक ३०|०६|२०११ तक आवेदक को सूचना दी जाने, दंड राशि जमा किए जाने तथा धारा २०(२) अंतर्गत आयोग में स्पष्टीकरण देने का आदेश दिया| लेकिन अगली तिथि दिनांक ०२|०९|२०११ को मुख्य सूचना आयुक्त श्री अशोक कुमार चौधरी ने जुर्माने एवं स्पष्टीकरण की बात तो छोड़ ही दें, लोक सूचना अधिकारी को सूचना आयोग में उपस्थिति से भी छूट दे दी| ऐसे फैसले दाल में कुछ काला होने का भान कराते हैं, नागरिक अधिकार मंच के अध्यक्ष श्री शिव प्रकाश राय तो कहते हैं कि पूरी दाल ही काली है|
ऐसे भी मामले हैं जिनमें सूचना आयोग ने लोक सूचना पदाधिकारी को सूचना देने का आदेश दिया, तो वे सूचना आयोग के आदेश के खिलाफ उच्च न्यायालय चले गए| श्री शिव प्रकाश राय द्वारा प्राप्त की गयी सूचना के अनुसार वर्ष २००८ से ०५|०८|२०११ तक ऐसे कुल १०० मामले हैं| इन मामलों में सूचना आयोग को अब तक दस लाख रूपए से अधिक की राशि वकीलों को कानूनी सलाह लेने के बदले में देना पड़ा है, लोक सूचना पदाधिकारियों द्वारा व्यय की गयी राशि का विवरण उपलब्ध नहीं है| पर यह निश्चित रूप से राज्य सूचना आयोग द्वारा व्यय की गयी राशि से कई गुनी अधिक होगी| दोनों पक्षों द्वारा व्यय की गयी राशि बिहार सरकार के राजकोष से खर्च हो रहे हैं| कितनी अजीब बात है कि बिहार सरकार के राजकोष की राशि का अपव्यय सरकार के संस्थाओं द्वारा ही परस्पर विरोध में किया जा रहा है- एक सूचना दिलाने के नाम पर दूसरा सूचना छुपाने के लिए| क्या यह प्रदेश की निरीह जनता के साथ भद्दा मजाक नहीं है
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