सद्दाम के बाद अब गद्दाफी का अंत. केवल त्रिपोली
में क्रांति पूरी नहीं हुई. पूरी दुनिया की मीडिया के लिए जश्न का माहौल है. एक
"भयानक" "दुर्दांत" "आततायी" तानाशाह का वहां की जनता
ने अंत कर दिया. भारतीय मीडिया भी इस "भयानक तानाशाह" की जायज मौत को ऐसे
रिपोर्ट कर रही है मानों गद्दाफी लीबिया का नहीं बल्कि भारत का तानाशाह था और उसके
मरने से भारत में लोकतंत्र वगैरह जैसी कुछ आ गया है. टीवी चैनल, इंटरनेट और अखबार समझा रहे हैं
कि कैसे दुनिया से एक और "तानाशाह" का अंत हो गया और डेमोक्रेसी को एक और
देश में डांस करने का मौका मिल गया है.
हमारी मीडिया हमें जो बताती है उसकी वह समझ कहां
से बनती है इसे जानने के लिए सिर्फ इतना जान लीजिए कि दुनिया की कुछ बड़ी शीर्ष न्यूज
एजंसियां हमारे मीडिया संस्थानों तक जो पहुंचाती हैं अंतरराष्ट्रीय खबरों में उसी को
ट्रांसलेट करके हमारे पत्रकार आपको पढ़ा देते हैं. ये दुनिया की शीर्ष न्यूज एजंसियां
खबर कैसे लिखती हैं, किसके
लिए लिखती हैं इसका तात्विक विश्लेषण अलग विषय है लेकिन इन एजंसियों का अपना घोषित
रास्ता होता है जिससे विमुख होकर वे नहीं चलती. इसलिए सिर्ते की नाली में जिस व्यक्ति
को पकड़कर उसकी "गैर इरादतन" हत्या कर दी गई और क्रांति को पूरा कर दिया
गया, उसे आप ट्यूनिशिया या इजिप्ट की बराबरी में नहीं रख सकते.
लीबिया के तानाशाह का अंत ईराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन के समकक्ष हैं. हां,
फर्क सिर्फ इतना है कि अबकी सिर्त की नाली में अमेरिकी सेना ने लीबीयाई
तानाशाह को नहीं खोजा है बल्कि वहां की क्रुद्ध जनता ने खोजा जिसके हाथों में अत्याधुनिक
राइफलें थीं और दिमाग में गुस्से का तूफान. लीबीयाई क्रांतिकारी जनता लहुलुहान गद्दाफी
को नाले से निकालकर अस्पताल पहुंचाना चाहती थी लेकिन बकौल अंतरिम सरकार गुस्सा फूट
पड़ा और गद्दाफी मारे गये.
गद्दाफी की मौत की इस संक्षिप्त दास्तान के साथ
जो कुछ हम और जान पा रहे हैं वह यह कि गद्दाफी एक अय्याश तानाशाह था और कुंआरी लड़कियों
को अपना बॉडीगार्ड बनाता था. उसके पास लीबिया की कुल दौलत का सातवां या फिर दसवां हिस्सा
था जो उसने अपने "तानाशाही शासन" के दौरान कमाए थे. वह लीबीया के लिए संकट
था और अपने विरोधियों को मरवा देता था. लीबिया में उसकी तानाशाही का आलम यह था कि लोगों
का खुली हवा में सांस लेना मुश्किल हो गया था. ऐसी ही कुछ और बातें सामने आ रही हैं
और उन बातों और तर्कों के साथ ही यह भी समझाया जा रहा है कि उसकी मौत से किस कदर संसार
में डेमोक्रेसी एकदम से मजबूत हो गई है और अफ्रीका के एक और देश में जनता की जीत हो
गई है. लेकिन क्या गद्दाफी और उससे जुड़ी ये कहानियां ही गद्दाफी की हकीकत हैं? या फिर हमें भी गद्दाफी के बारे
में उतना ही मान लेना चाहिए जितना तात्कालिक तौर पर बताया जा रहा है?
इतिहास हमें एकदम से ऐसा मानने से हमें रोकता है.
जिस मोहम्मद (मुअम्मर) गद्दाफी के लड़कियों की बाडीगार्ड वाली कहानियों से उसे हम एक
निकम्मा और भ्रष्ट तानाशाह समझ रहे हैं उसका जन्म रंगीनियों में नहीं हुआ था. वह
1948 की तपती गर्मियों में अफ्रीका के रेगिस्तान में सिर्त के एक ऐसे परिवार में हुआ
जो ऊंट का कारोबार करता था और लड़ाका था. सिर्त से होते हुए इस लड़के ने बड़ी तेजी
से त्रिपोली पर अपना झंडा फहराया था. त्रिपोली छूटा तो एक बार आखिरी दौर में गद्दाफी
सिर्त की शरण में पहुंचे थे. सद्दाम और गद्दाफी की मौत में पहली समानता यही है कि दोनों
आखिरी वक्त में अपने गृहनगर की ओर भागते हैं, पकड़े जाते हैं और मार दिये जाते हैं. सद्दाम की ही तरह गद्दाफी
भी एक उसूलवाले अरब मुस्लिम जनजातीय समूह से ताल्लुक रखते थे और इस्लाम के जीवनमूल्यों
में पूरी आस्था रखते थे. 1969 में पहली बार लीबीया की सत्ता गद्दाफी ने कुछ उसी अंदाज
में संभाली थी जिस अंदाज में ईराक में सद्दाम हुसैन ने. ठीक वैसी ही कहानी जैसी सद्दाम
हुसैन की. दोनों गरीबी में पैदा हुए. देश के सत्ता शीर्ष पर लंबे समय तक काबिज रहे
और दोनों को अंत में अपने जन्मस्थान पर जाकर बहुत बुरी परिस्थितियों में शरण लेनी पड़ी.
इन दोनों के बीच और समानताओं के अलावा अमेरिकी भूमिका की भी समानता है. दोनों के पीछे
अमेरिका पड़ा था इसलिए एक को अमेरिकी सेना ने मार गिराया तो दूसरे को अमेरिका प्रायोजित
क्रांतिकारी नौजवानों ने.
सद्दाम की ही तरह 1969 में जब गद्दाफी ने लीबीया
की कमान संभाली थी तो उस वक्त भी अरब में क्रांतियों का दौर था. लीबीया के राजा इदरीस
को गद्दाफी के पांच हजार समर्पित विद्रोही सैनिकों ने सत्ता से बेदखल कर दिया था. लीबीया
में आई इस "हरित क्रांति" (गद्दाफी के विद्रोह को ग्रीन रिवोल्यूशन कहा जाता
है.) ने लीबीया को एक सुनहरा नायक दिया और लीबिया को नयी नियमावली मिली जिसे ग्रीन
बुक कहा जाता है. गद्दाफी के इस ग्रीनबुक में तीन तरह की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत
किया गया था. लोकतांत्रिक समस्याओं का समाधान, सामाजिक समस्याओं का समाधान और आर्थिक समस्याओं का समाधान. गद्दाफी
ने इसे संविधान कहने की बजाय राजनीतिक विचार बताया. लोकतंत्र की इन समस्याओं का समाधन
खोजते हुए ग्रीन बुक ने तीन तरह के समाधान भी दिये. पहला समाधान, नियंत्रित लोकतंत्र होना चाहिए. दूसरा, प्रेस पर नियंत्रण
होना चाहिए और तीसरा पूंजीवाद पर प्रतिबंध. अनियंत्रित लोकतंत्र, अनियंत्रित प्रेस और अनियंत्रित पूंजी तीनों पर रोक लगाने की पहल इसी ग्रीन
बुक से शुरू होती है. गद्दाफी मानते थे कि अपने अपने दायरे में न सिर्फ पूंजीवाद समस्या
है बल्कि साम्यवाद भी समस्याएं ही पैदा करता है. इसलिए उन्होंने ग्रीनबुक के जरिए नियंत्रित
लोकतंत्र की अवधारणा लीबीया के सामने रखी जिसे गद्दाफी को चाहनेवाली लीबीयाई जनता ने
उस दौर में स्वीकार भी कर लिया.
लेकिन लीबीयाई जनता की यही स्वीकार्यता और गद्दाफी
में विश्वास गद्दाफी के जिद्दी और अड़ियल होते जाने का कारण भी बना. नियंत्रण उदार
सोच को भी मार देता है. गद्दाफी जिस बेदोन कबीले से संबंध रखते थे वहां ये नियम कारगर
हो सकते थे लेकिन किसी देश के लिए ऐसे नियंत्रित लोकतंत्र के तानाशाही में तब्दील हो
जाने का खतरा होता हैं. इसका कारण कुछ और नहीं बल्कि यह है कि वर्तमान समय में जिस
सीमारेखा को हम देश मानते हैं वे समाज नहीं हुआ करते बल्कि समाजों का संगठन होते हैं.
गद्दाफी के नियंत्रित लोकतंत्र की राजनीतिक सोच ने लीबीया को धीरे धीरे नियंत्रित करने
में कामयाबी हासिल कर ली. इस नियंत्रित लोकतंत्र ने जहां लीबीया को आर्थिक रूप से समृद्ध
बनाया वहीं लोकतंत्र और मुक्त जीवन की उम्मीदों को भी बल प्रदान किया. गद्दाफी नहीं
समझ पाये कि समृद्धि नियंत्रण नहीं बल्कि मुक्ति चाहती है. गद्दाफी नियंत्रण के जरिए
जिस पूंजीवाद को खारिज कर रहे थे वह पूंजी समाजवाद को भी अनियंत्रित करती है. गद्दाफी
जिस अरब सोसलिस्ट यूनियन का मॉडल लीबिया में उतार रहे थे वह आगे चलकर उन्हें ही गद्दी
से उतारनेवाला था. इसके दो कारण थे. एक आंतरिक विद्रोह बढ़ा और दूसरा लीबीया में अमेरिकी
हितों को तगड़ा झटका लगा.
लीबीया के सर्वेसर्वा बनते ही गद्दाफी ने पहला झटका
अमेरिका को ही दिया था. अमेरिका की एस्सो आयल कंपनी लीबीया में लंबे समय से तेल का
उत्पादन कर रही थी. लेकिन सत्ता संभालते ही गद्दाफी ने सबसे पहले तेल के उत्पादन पर
नियंत्रण करना शुरू किया. लीबीया के कुल जीडीपी का 30 प्रतिशत उसके तेल निर्यात से
प्राप्त होता है. गद्दाफी के ग्रीन रिवोल्यूशन की परिणति खुद गद्दाफी एक समृद्ध लीबीया
के रूप में देखना चाहते थे. गद्दाफी के शुरूआती शासनकाल के दौरान लीबिया ने वह सब कुछ
देखना शुरू किया जो भ्रष्ट राजा इदरीस के राज्य में संभव नहीं था. लीबीया में शिशु
मृत्युदर घटकर प्रति हजार 15 पहुंच गई जो अफ्रीका में औसत 125 थी. प्रति एक हजार व्यक्ति
पर सात डॉक्टर और अस्पताल के तीन बेड का सरकारी आंकड़ा सामने आने लगा. आगे चलकर गद्दाफी
ने हर लीबीयावासी को एक घर देने की योजना शुरू की जिसके कारण लीबीया में त्रिपोली के
अलावा कई नये शहर उभर आये. खुद त्रिपोली को तेल की समृद्धि ने आलीशान मकानों और मंहगी
गाड़ियों का शहर बना दिया.
लेकिन गद्दाफी की इन योजनाओं में उसकी शुरूआत से
ही खोट भी पैदा हो गया था. गद्दाफी लीबीया में इस्लाम से प्रेरित जिस समाजवाद की स्थापना
करना चाहते थे उसके आर्थिक ढांचे में अपने खानदान का हित जोड़ने से अपने आपको नहीं
रोक पाये. लीबिया की साढ़े छह करोड़ जनता पर अकेले गद्दाफी भारी पड़ना चाहते थे. जैसे
जैसे दिन बीतते गये गद्दाफी की यह मानसिकता जिद्द से आगे पागलपन की हद तक मजबूत होती
चली गई. अपने शासनकाल के दौरान क्योंकि उन्हें पूंजीवाद को पस्त करना था इसलिए अमेरिका
को शुरू से ही उन्होंने किनारे करना शुरू कर दिया था जो 2004 में जाकर खत्म हुआ जब
अमेरिकी लोगों के लिए लीबीया आना संभव हो सका. अमेरिका से चली इस लंबी दुश्मनी के दौरान
गद्दाफी कभी सोवियत रूप से पाले में जाकर बैठते रहे तो कभी उन्होंने चीन और कभी इटली
की तरफ भी दोस्ती का हाथ बढ़ाया जिसका वह उपनिवेश रह चुका था. लेकिन गद्दाफी शायद यह
नहीं समझ पाये कि अमेरिका अपने आर्थिक हित साधने के लिए अगर दुश्मनी करके लीबिया को
परास्त नहीं कर पाया तो उसने उससे दोस्ती करके उसे परास्त कर दिया. अमेरिका दो तरीके
से युद्ध लड़ता है. जाहिर है, उसका पहला तरीका हमेशा दोस्ती वाला ही होता है. जिन दिनों गद्दाफी अमेरिका
के अलावा दूसरे देशों से मिलकर लीबिया के इस्लामिक समाजवाद को मान्यता दिलवा रहे थे
उन दिनों भी अमेरिका ने उनकी जड़ें कमजोर करने का ही काम किया. नहीं तो ऐसा कोई कारण
नहीं है कि कभी शांत क्रांति के नायक रहे गद्दाफी नरसंहार करवानेवाले तानाशाह साबित
कर दिये जाते. जो गद्दाफी इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार महिलाओं को घर की चारदीवारी
के अंदर रखने के नियम कायदे लागू कर रहा था वह जीवन के आखिरी वर्षों में एक अय्याश
और लंपट इंसान साबित कर दिया गया. गद्दाफी की यह सारी नाकामियां और कमियां 2004 के
बाद ही िवश्व के मीडिया पटल पर उभरनी शुरू हुई और खुद लीबीया की जनता भी अपनी गुलामी
से इतनी आजिज आ गई कि उसने करीब छह महीना लंबा विद्रोह चलाकर आखिरकार "अय्याश
तानाशाह" को उसके अंजाम तक पहुंचा दिया.
लीबिया की इस जनक्रांति को ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिकी मित्र राष्ट्रों
का भरपूर सहयोग मिला. इराक की तरह लीबिया में जमीनी और पैदल सेना तो नहीं आई लेकिन
हवाई हमले करके "अय्याश तानाशाह" को उसके महल से खदेड़ने में इन मित्र राष्ट्रों
ने विद्रोहियों की मदद जरूर की. जमीनी सेना के तौर पर अमेरिकी और यूरोपीय मीडिया पूरी
"क्रांति" के दौरान वहां तैनात रही. लीबिया की जो जनता त्रिपोली में क्रांति
करने उतरी थी उसकी पृष्ठभूमि बहुत पहले 2010 में ही बन गई थी जब अरब देशों में क्रांतियों
की शुरूआत भी नहीं हुई थी. 30 मार्च 2011 को अमेरिका के ही एक अखबार लांस एंजिल्स टाइम्स
ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें उसने ह्वाइट हाउस के हवाले से लिखा कि "सूचनाओं
के संकलन के लिहाज से सीआईए लीबिया में मौजूद है. लेकिन वहां विद्रोहियों को हथियार
देने के बारे में न तो हां कर सकते हैं और न ही ना कर सकते हैं." इसी खबर के साथ
रायटर ने एक और खबर प्रसारित की थी कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने एक गुप्त अनुमति पत्र
पर हस्ताक्षर किया है जिसमें लीबिया के विद्रोहियों को मदद करने की अनुमति दे दी गई
है. लेकिन ये दोनों ही खबरें आने के साथ ही इतिहास से गायब कर दी गई.
जाहिर है, लीबिया में विद्रोहियों के पीछे अमेरिका लड़ रहा था. और ऐसा भी
नहीं है कि अमेरिका इस लड़ाई में कोई फरवरी 2011 या फिर 2010 में शामिल हुआ. गद्दाफी
के शासन के दौरान जब गद्दाफी अमेरिका से लीबिया के सारे रिश्ते तोड़ने की कोशिश कर
रहे थे तब अमेरिका ने मानवाधिकार संगठनों के रूप में अपने आपको वहां मजबूत करना शुरू
किया. 1981 में नेशनल फ्रंट फार साल्वेशन आफ लीबिया और 1989 में बने लीबियन लीग फार
ह्यूमन राइट को अमेरिका और अरब से पैसा मिलता था. "एस्सेज आन अमेरिकन एम्पायर:
लिबर्टी वर्सेस डामिनेशन" के लेखक माइकल एस रोजेफ ने जून 2011 में ही एक लेख लिखा
था और कहा था कि लीबिया उस दिन ज्यादा खुश बताया जाएगा जिस दिन गद्दाफी को मौत के घाट
उतार दिया जाएगा. आज चार महीने बाद सचमुच माइकल की भविष्यवाणी सही साबित हो रही है.
अब निश्चित रूप से अमेरिका को एक ऐसे देश पर शासन
करने का परोक्ष रूप से मौका मिल गया है जिसकी प्रति व्यक्ति आय उभरते चीन से दोगुनी
है. जिसके पास पर्याप्त तेल भंडार है और जो देश इस्लामिक समाजवाद का प्रतीक बनना चाहता
था. अमेरिका ने लीबिया में करीब तीन दशक लंबी लड़ाई लड़ी और सद्दाम हुसैन की तरह गद्दाफी
को साफ करने में कामयाब रहा.
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