Tuesday, October 11, 2011

नीम-हकीमी न्याय व्यवस्था!




भ्रष्टाचार, अत्याचार, भेदभाव, मनमानी और गैर-बराबरी की जननी
नीम-हकीमी न्याय व्यवस्था
विधायिका और कार्यपालिका को तो नहीं दिखती,
लेकिन न्यायपालिका क्यों चुप है?
जबकि अपने ऊपर सवाल उठाने मात्र
से तत्काल सबकुछ नजर आने लगता है!
सच बात तो ये है कि जमीन जायदाद आदि से सम्बन्धित सभी प्रकार के आपसी या सरकार से जुड़े सभी विवादों का निपटारा करने की जिम्मेदारी अंग्रेजों द्वारा स्थापित दीवानी कानूनी व्यवस्था के तहत आज भी कानून जानकारी के मामले में शून्य तहसीलदार, डिप्टी कलेक्टर, कमिश्‍नर और राजस्व बोर्ड को सौंपी हुई है| जिनके समक्ष सभी पक्षकारों की ओर से मामला प्रस्तुत (पैरवी) करने वाले तो विधि स्नातक और विधि व्यवसायी होते हैं, लेकिन पीठासीन अधिकारियों को कानून का शून्य ज्ञान होता है| ऐसे में भारत में अपना संविधान लागू होने के उपरान्त भी पिछले छह दशक से भी अधिक समय से सभी सिविल मामलों में देश के लोगों को इंसाफ के नाम पर नीम-हकीमी निर्णय प्राप्त हो रहे हैं| जिनमें न्याय कम, अन्याय अधिक होता है|
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आजादी से पूर्व भारतियों पर होने वाले अन्याय, अत्याचार और सभी प्रकार के गैर-कानूनी कार्यों के लिये तो हम गौरे-अंग्रेजों को दोषी ठहराकर और खून की घूंट पीकर चुप हो जाया करते थे, लेकिन आजादी के बाद भारत में अपना संविधान लागू हो गया तथा संविधान की भूमिका में ही देश के सभी लोगों को सभी प्रकार के न्याय और सभी प्रकार की समता तथा स्वतन्त्रता की स्थापना की वचनबद्धता का उल्लेख किये जाने के बावजूद भी देश के अधिकांश लोग भ्रष्टाचार, अत्याचार, गैर-बराबरी, कालाबाजारी, मिलावट, भेदभाव, शोषण, अपमान और ना-ना प्रकार की नांइसाफियों के कालचक्र में लगातार पिसते जा रहे हैं| लोगों को इंसाफ के नाम पर कानून के कथित रखवालों द्वारा ही ठगा जा रहा है| कानून लागू करने और न्याय करने का नाटक करके लोगों के साथ धोखा किया जा रहा है|

सबकुछ जानते समझते हुए भी स्थानीय निकायों के जनप्रतिनिधि, विधायक, सांसद और सभी प्रदेशों की सभी दलों की सरकारें एकदम चुप हैं| केन्द्र में भी कमोबेश सभी दलों को सत्तासुख प्राप्त हो चुका है, लेकिन किसी भी दल को ये अन्याय का खुला कालचक्र आज तक तो नजर नहीं आया! राजनेताओं के चुप रहने के निहितार्थ तो अब जनता को भी समझ में आने लगे हैं, लेकिन इस बारे में देश की सर्वोच्च न्यायपालिका की चुप्पी आश्‍चर्यजनक है|

जबकि इसके विपरीत जब कभी किधर से भी न्यायपालिका के निर्णयों पर या न्यायपालिका की प्रशासनिक व्यवस्था पर सवाल भी उठाया जाता है तो सुप्रीम कोर्ट अपनी विशेष शक्तियों का उपयोग करते हुए खुद नियम बनाने लगता है| इसी के तहत सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति का केन्द्र सरकार का संवैधानिक अधिकार छीनकर एक झटके में अपने हाथ में ले लिया है| इसके विपरीत यह भी उतना ही सच है कि न्यायपालिका ने जनहित याचिकाओं के जरिये कुछ मामलों में ऐतिहासिक निर्णय सुनाकर और नये निर्देश जारी करके या कानून बनाकर न्याय के नये प्रतिमान भी स्थापित किये हैं, लेकिन आम व्यक्ति को इंसाफ मिलने में सबसे बड़े बाधक तत्व न जाने क्यों आज तक इस देश की न्यायपालिका तथा मीडिया तक को दिखाई नहीं देते!

प्रेसरिपोर्टिंग का मामला:
पिछले कुछ समय से भारतीय इलेक्ट्रोनिक मीडिया सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों तथा जजों की टिप्पणियों की रिपोर्टिंग करने में अधिक रुचि दिखाने लगा है| या कहो कि इस प्रकार से रिपोर्टिंग करने लगा है, जिससे देश के आम लोगों को भी यह बात समझ में आने लगी है कि हमारे माननीय जजों की न्याय तथा लोगों की संवेदनाओं के प्रति किस प्रकार की सोच है?

विशेषकर सूचना अधिकार को लेकर सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य जज बालाकृष्णन द्वारा नकारात्मक रुख अपनाना और इसके विपरीत दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा सकारात्मक रुख अपनाने को मीडिया में प्रमुखता से पेश किया गया| जिससे न्यायपालिका की उदार और संकीर्ण सोच का तो खुलासा हुआ ही साथ ही साथ यह बात भी साफ हो गयी कि न्यायमूर्ति कहलाने वाले देश के सर्वोच्च जज पादर्शिता के मामले में दौहरी सोच रखते हैं| दूसरों को सबकुछ प्रकट करने के हिमायती जज अपने बारे में कुछ भी प्रकट नहीं करना चाहते!

यदि मीडिया की खबरों को सच माना जाये तो इस बात से न्यायपालिका की छवि को और सम्भवत: नकारात्मक सोच रखने वाले पीठासीनों के अहं को काफी धक्का लगा? उसी समय इस बात की आशंका व्यक्त की जा रही थी कि अब कभी भी मीडिया की आजादी को किसी बहाने नियन्त्रित करने के लिये सुप्रीम कोर्ट अपने विचार व्यक्त कर सकता है|

यह आशंका सही सिद्ध हुई और पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया कि आगे से कोर्ट के मामलों में रिपोर्टिंग करने का ऐरे-गैरे पत्रकारों को कोई हक नहीं होगा| यदि किसी पत्रकार को कोर्ट या कानूनी मामलों में रिपोर्टिंग करनी है तो ऐसे पत्रकार को न मात्र विधि स्नातक ही होना चाहिये, बल्कि साथ ही साथ उसके पास कम से कम सात वर्ष तक प्रेस रिपोर्टर के रूप में कार्य करने का अनुभव भी होना चाहिये|

सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के मायने? 
सुप्रीम कोर्ट के इस विचार या निर्देश के क्या मायने हैं? इस बात को गहराई से समझने के लिये थोड़ा विश्‍लेषणात्मक और उदार सोच का परिचय देना होगा| जिससे कोर्ट के इस निर्णय के भावी परिणामों/प्रभावों को समझा जा सके|

सुप्रीम कोर्ट के जज, कानून के मामलों के जानकार को ही प्रेसरिपोर्टिंग करने देना चाहते हैं, जिसके पीछेनिश्‍चय ही सुप्रीम कोर्ट की मंशा है कि प्रेसरिपोर्टिंग में विधि की बारीकियों को समझने वाला व्यक्ति ही सही रिपोर्टिंग कर सकता है| यदि यह बात अमल में लायी जाती है तो बहुत अच्छा है, लेकिन माननीय सुप्रीम कोर्ट को इस बात से पहले देशहित में और भी बहुत सारे इसी प्रकार के बल्कि इससे भी कई गुना गम्भीर मामलों पर भी तो विचार करना चाहिये था| अभी तक विचार नहीं किया गया तो अब तत्काल किया जाना चाहिए! जिनमें से कुछ यहॉं प्रस्तुत हैं-

मामले जिन पर कोर्ट ने आज तक ध्यान नहीं दिया!
हमारे देश में कानून विधायिका बनाती है, लेकिन विधायिका के सदस्यों अर्थात् सांसदों और विधायकों के लिये कानून की डिग्री की अनिवार्यता तो दूर किसी भी प्रकार की शैक्षणिक योग्यता तक की जरूरत नहीं है|जिसका लाभ उठाकर सभी सरकारों के असली कर्ता-धर्ता और नीति-नियन्ता आईएएस अर्थात् भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसर अपने अपने विभाग के कानूनों का निर्माण करते हैं, जबकि स्वयं आईएएस कानून के ज्ञान में शून्य होते हैं! जिन पर कैबीनेट की मोहर लगने के बाद संसद और विधानमण्डलों द्वारा उन पर औपचारिक सहमति प्रदान की जाती हैं|

कानूनों का क्रियान्वयन और अभियोजन:-

हमारे देश में विधायिका द्वारा निर्मित कानूनों का क्रियान्वयन कार्यपालिका द्वारा किया जाता है और सीधे शब्दों में कहा जाये तो 90 प्रतिशत से अधिक कानूनों का क्रियान्वयन देश की पुलिस द्वारा करवाया जाता है, क्योंकि पुलिस नामक संस्था नहीं हो तो कार्यपालिका किसी भी कानून को पालन करना तो दूर मानने से ही इनकार कर दे! कानून का जाने अनजाने उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध अभियोजन भी पुलिस द्वारा ही चलाया जाता है|

यह बात भी सर्व-विदित है कि सभी प्रकार के आपराधिक या कानून का उल्लंघन करने के मामलों की जॉंच-पड़ताल विधि द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार करनी होती है| जिसके लिये देश के सभी प्रकार के कानूनों का ही नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के और सम्बन्धित प्रदेश के उच्च न्यायालय के मार्गदर्शक निर्णयों की बारीकियों को समझ सकने की विधिक योग्यता की सख्त जरूरत होती है| मानव अधिकारों और मानव अधिकारों से सम्बन्धित राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय नियमों व सन्धियों को समझ सकने की मानवीय संवेदना और कानूनी योग्यता की जरूरत होती है, लेकिन इस देश के 121 करोड़ लोगों का दुर्भाग्य है कि पुलिस के सिपाही से लेकर पुलिस महानिदेशक तक, किसी के लिये भी कानूनी डिग्री की जरूरत नहीं है!

नीम-हकीमी जॉंच पड़ताल मात्र डेढ फीसदी मामलों में सजा:-

पुलिस की इस कानूनी अज्ञानता और अक्षमता के चलते पुलिस द्वारा गम्भीर आर्थिक अपराधों, तकनीकी अपराधों और मानव जीवन से गहराई तक जुड़े अपराधों की मनमर्जी से सतही ज्ञान के आधार पर नीम-हकीमी जॉंच पड़ताल की जाती है| जिसके चलते पुलिस द्वारा अभियोजित मामलों में मात्र डेढ फीसदी मामलों में ही आरोपियों को सजा मिल पाती है| इनमें भी कितने निर्दोषों को सजा मिलती है, यह भी अध्ययन का विषय है?

पुलिस के लिये कानूनी ज्ञान की अनिवार्यता:
इस सबके उपरान्त भी देश की सबसे बड़ी अदालत को पिछले छह दशक से अधिक समय में यह बात कभी तक न तो दिखी और न हीं समझ में आयी कि कानून लागू करने और कानून का उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध अभियोजन चलाने वाली पुलिस के लिये कानून का केवल सतही कानूनी ज्ञान या कुछ माह के अवैज्ञानिक प्रशिक्षण पर आधारित ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि आज इक्कीसवीं सदी में जब एक ओर तो तेजी से आर्थिक अपराध बढ रहे हैं| साइबर क्राइम ने पुलिस को अनेक प्रकार की चुनौतियॉं पेश की हैं| दूसरी ओर मानव अधिकारों की उदार व्याख्याएँ की जा रही हैं| मानव अधिकारों को विश्‍वव्यापी मान्यता प्राप्त हो रही हैं|

ऐसे में अपराधों की जाँच करने वाली पुलिस के लिये न मात्र भारतीय कानूनों में विधि स्नातक ही होना चाहिये| बल्कि इसके साथ-साथ पुलिस में कानून की विभिन्न विधाओं मास्टर डिग्रीधारी और विशेषज्ञता अफसरों की भी नियुक्तियों की सख्त जरूरत है, जो देशवासियों के सम्मान तथा मानव अधिकारों की रक्षा करने के साथ-साथ पुलिस के सिपाहियों के विरुद्ध किये जाने वाले अमानवीय और क्रूर अपराधों को होने से पूर्व ही रोक सकने में भी सक्षम हों| पुलिस में मानव-व्यवहारशास्त्री, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक अपराधों के जानकारों की भी सख्त जरूरत है|

क्या यह बात विचारणीय नहीं कि सुप्रीम कोर्ट जिस प्रकार के कानूनी ज्ञान को कोर्ट की प्रेसरिपोर्टिंग करने के लिये जरूरी और उचित ठहरा रहा है, यदि उसी प्रकार से पुलिस को भी पेचीदे आपराधिक मामलों की जॉंच-पड़ताल आदि के लिये भी उपरोक्तानुसार कानून की बारीकियों का ज्ञान जरूरी हो तो निश्‍चय ही सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचने वाले मामलों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज की जा सकती है|इस विषय को छह दशक तक देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा विचार योग्य नहीं माना जाना न मात्र दुर्भाग्यपूर्ण है, बल्कि अनेकों सवालों को भी जन्म देता है|

दीवानी मामलों में विलम्ब का काला सच शून्य कानूनी ज्ञानधारी करते हैं-निर्णय! जिनमें न्याय कम और अन्याय अधिक होता है!
हमारे देश में सिविल (दीवानी) मामलों का निर्णय इतने लम्बे समय में होता है कि अब तो ये बात प्रचलन में आ चुकी है कि दादा लड़े और पोता निर्णय प्राप्त करे| दीवानी मामलों में होने वाले इस विलम्ब का कारण केवल मामलों की संख्या में हो रही वृद्धि बतलाकर पल्ला झाड़ लिया जाता है, जबकि हकीकत कारण ये नहीं है|

सच बात तो ये है कि जमीन जायदाद आदि से सम्बन्धित सभी प्रकार के आपसी या सरकार से जुड़े सभी विवादों का निपटारा करने की जिम्मेदारी अंग्रेजों द्वारा स्थापित दीवानी कानूनी व्यवस्था के तहत आज भी कानून जानकारी के मामले में शून्य तहसीलदार, डिप्टी कलेक्टर, कमिश्‍नर और राजस्व बोर्ड को सौंपी हुई है| जिनके समक्ष सभी पक्षकारों की ओर से मामला प्रस्तुत (पैरवी) करने वाले तो विधि स्नातक और विधि व्यवसायी होते हैं, लेकिन पीठासीन अधिकारियों को कानून का शून्य ज्ञान होता है| ऐसे में भारत में अपना संविधान लागू होने के उपरान्त भी पिछले छह दशक से भी अधिक समय से सभी सिविल मामलों में देश के लोगों को इंसाफ के नाम पर नीम-हकीमी निर्णय प्राप्त हो रहे हैं| जिनमें न्याय कम, अन्याय अधिक होता है|

निर्णय से उठते सवाल उत्तर मांगते हैं :-

उपरोक्त विवेचन के अलावा भी सुप्रीम कोर्ट के ताजा रुख और निर्णय से अनेक सवाल खड़े होते हैं| जिन्हें भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) की ओर से लगातार पिछले डेढ दशक से उठाया जाता रहा है| जैसे-

-यदि विधि की डिग्री के अभाव में न्यायिक मामलों की रिपोर्टिंग अनुचित और देश के लोगों को दिग्भ्रिमित करने वाली है तो बिना मैडीकल डॉक्टरेट की डिग्री के कोई भी प्रेसरिपोर्टर मैडीकल सम्बन्धी मामलों की रिपोर्टिंग कैसे कर सकता है? केवल यही नहीं आयुर्वेड में डॉक्टरेट की डिग्रीधारी प्रेसरिपोर्टर होम्योपैथी या ऐलोपैथी सम्बन्धी मामलों की रिपोर्टिंग कैसे कर सकता है? बिना कृषि के व्यावहारिक ज्ञान या कृषि विज्ञान में उपाधि प्राप्त किये बिना क्या कोई रिपोर्टर कृषि और किसान की सही तस्वीर देश के समक्ष प्रस्तुत करने में सक्षम हो सकता है?

-यदि विधि की डिग्री के अभाव में न्यायिक मामलों की रिपोर्टिंग अनुचित है तो परमाणु शक्ति और मिसाइल तकनीक से जुड़े मामलों की रिपोर्टिंग के लिये भी परमाणु विज्ञान के ज्ञान के में अभाव में इन सबकी रिपोर्टिंग करना क्या घातक नहीं होगा?

-यदि विधि की डिग्री के अभाव में न्यायिक मामलों की रिपोर्टिंग अनुचित है तो बिना सम्बन्धित विषय डिग्री हासिल किये किसी भी आईएएस को सम्बन्धित विभाग का सचिव कैसे नियुक्त किया जा सकता है| केवल कुछेक में नहीं, बल्कि हर एक मामले में यह हो रहा है कि आईएएस अपने विभाग की नीतियों का निर्धारण करता रहा है और कानूनी तौर पर उसे उस विभाग की एबीसीडी भी पता नहीं होती है!

-यदि एक रिपोर्टर को कानूनी ज्ञान ही नहीं, बल्कि कानूनी डिग्री हासिल करके और सात साल तक प्रेस रिपोर्टर का अनुभव प्राप्त करके विधि या कोर्ट से जुड़े मामलों की रिपोर्टिंग के लिये सक्षम माना जाता है, फिर तो देश में लागू भारतीय प्रशासनिक सेवा और सभी राज्यों की प्रशासनिक सेवा के सभी अधिकारी असक्षम, अयोग्य और अकुशल ही नहीं, बल्कि नीम-हकीम ही हैं| जिसे भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) ने बार-बार उठाया है|

निम्न कुछ उदाहरण हैं, जो इस बात को सही प्रमाणित करते हैं| इससे पूर्व इस बात को साफ कर देना जरूरी है कि भारतीय या किसी भी राज्य प्रशासनिक सेवा के लिये अर्हक योग्यता किसी भी विषय में ग्रेज्युएट (स्नातक) होना जरूरी है| जिसके चलते देश में क्या हो रहा है?

लुहार से अपने हृदय का ऑपरेशन करओगे:-

इस विषय पर किताब लिखी जा सकती है, लेकिन इस विषय पर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों के साथ-साथ मीडिया की ओर से भी तवज्जो नहीं दिया जाना घोर चिन्ता और दु:ख का विषय है| ऐसे में संविधान को लागू करने और संविधान की रक्षा करने को वचनबद्ध सभी निकायों से सीधा सवाल है कि क्या कोई भी व्यक्ति अपने हृदय का ऑपरेशन किसी लुहार से करवाना पसन्द करेगा? एक अनपढ और साधारण सा व्यक्ति भी इसका उत्तर नहीं में देगा, लेकिन देश के नीति-नियन्ताओं को यह बात आज तक समझ में नहीं आयी है| जबकि भारत सरकार और सभी राज्य सरकारें लुहार से ही देश के लोगों के हृदय का ऑपरेशन करने की नीति पर चल रही हैं| यदि विश्‍वास नहीं होता है, तो निम्न कुछेक उदाहरणों को पढकर पाठक खुद अनुमान लगा सकते हैं|

इलेक्ट्रीकल इंजीनियर भेड़-ऊन
विभाग की नीतियॉं बना रहा है!
इलेक्ट्रीकल इंजीनियरिंग में ग्रेज्युएशन की डिग्री हासिल करके आईएएस बनने वाले व्यक्ति से भेड़ऊन विभाग के सचिव के रूप में कितनी सही नीतियों के निर्माण की उम्मीद की जा सकती है? लेकिन अनेक राज्यों में ऐसा होता है|

पशुचिकित्सक की डिग्रीधारी लोक
निर्माण विभाग का नीति-निर्माता
पशुचिकित्सक की डिग्री हासिल करके आईएएस बनने वाले व्यक्ति से लोक निर्माण विभाग के सचिव के रूप में पुलों, तालाबों और सड़कों के निर्माण के लिये कितनी सही और कैसी नीतियों के निर्माण की उम्मीद की जा सकती है? लेकिन भारत में ऐसा ही होता रहा है|

जिसे शिक्षक होना चाहिये वह 
कृषि नीति का निर्धारण कर रहा है!
हिन्दी उर्दू, अंग्रेजी जैसे विषयों में डिग्री हासिल करके आईएएस बनने वाले व्यक्ति से किसान लोग कृषि विभाग के सचिव के रूप में कृषि-नीति के निर्धारण के लिये कितनी सही और कैसी नीतियों केबनाने की उम्मीद की जा सकती है? लेकिन ऐसा होता है|

इलेक्ट्रोनिक-कम्प्यूटर इंजीनियर-गृह सचिव:
इलेक्ट्रोनिक और कम्प्यूटर जैसे विषयों में इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करके आईएएस बनने वाले व्यक्ति से कपड़ा मन्त्रालय या गृह विभाग के सचिव के रूप में कितनी सही और कारगर नीतियों के निर्माण या विभाग के संचालन की उम्मीद की जा सकती है? लेकिन सारे देश में ये चल रहा है?
यह फेहरस्ति बहुत लम्बी है....?
इसके अलावा भी अनेक बातें हैं, जिन पर देश के लोगों को विचार करना होगा| जैसे-

सुप्रीम कोर्ट में वकालत करने के लिये वकीलों को परीक्षा पास करनी होती है
लेकिन जजों के लिये चयन प्रक्रिया ही नहीं!
विधि स्नातक होते हुए सुप्रीम कोर्ट में वकालत करने के लिये सभी वकीलों को अनिवार्य रूप से एक लिखित परीक्षा उत्तीर्ण करनी पड़ती है, जबकि इसके ठीक विपरीत सुप्रीम कार्ट के जजों के लिये किसी प्रकार की परीक्षा उत्तीर्ण करना तो दूर कोई निष्पक्ष और स्वतन्त्र चयन प्रक्रिया ही निर्धारित नहीं है| देश में एक चपरासी और सिपाही से लेकर आईएएस तक सबकी भर्ती के नियम और प्रक्रिया निर्धारित हैं, लेकिन भारत में उच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति के लिये कोई भर्ती या चयन प्रक्रिया निर्धारित नहीं है| हाई कोर्ट के ये ही जज बाद में पदौन्नति पाकर सुप्रीम कोर्ट के जज बनते हैं|

निर्णय सार जारी करने में क्या दिक्कत है?
इग्लैण्ड की उच्च न्यायपालिका द्वारा निर्णीत हर एक मामले के निर्णय के साथ ही निर्णय का संशिप्त सारांश भी प्रेस-विज्ञप्ति के रूप में वहॉं के मीडिया को जारी किया जाता है| जिससे प्रेस रिपोर्टिंग करने में किसी भी प्रकार की विधिक या तकनीकी त्रुटि होने की सारी सम्भावनाएँ शुरू में ही समाप्त हो जाती है| इसके विपरीत हमारे देश की उच्च न्यायपालिका (हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट) ने खुद ही एक ऐसा नियम या परम्परा बना रखी है कि वह जिस मामले को उचित समझेगी उसे ही रिपोर्टिंग हेतु जारी किया जायेगा| इस स्वघोषित नियम के चलते हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के बहुत कम मामलों की ही रिपोर्टिंग हो पाती है!

इंग्लैंड की पारदर्शी न्याय व्यवस्था!
केवल यही नहीं इंग्लैण्ड जहॉं के सभी औपनिशिक कानून और सम्पूर्ण न्यायिक व्यवस्था हमने ज्यों की त्यों ओढ रही है, आज वहॉं के सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार का दफ्तर, (जहॉं सभी मामलों के निर्णय रखे रहते हैं) न मात्र मीडिया के लिये, बल्कि आम जनता के लिये भी खुले रहते हैं| जिसके चलते कोई भी किसी भी निर्णय की प्रति आसानी से प्राप्त कर सकता है| सिवाय उन मामलों के जो उनके देश की एकता, अखण्डता और सम्प्रभुता आदि के लिये समुचित तरीके से घातक हैं|

अमेरिका की अधिक पारदर्शी न्याय व्यवस्था! 
अमेरिका में तो सन 1961 से ही कोर्ट की कार्यवाहियों की ऑडियो रिकार्डिंग की जा रही हैं और करीब एक दशक पूर्व से चर्चित मामलों को लाइव दिखाया जा रहा है, जबकि हमारे देश में यदि कोई जाने-अनजाने कोर्ट की कार्यवाही की रिकार्डिंग कर ले तो उसे न्यायिक अवमानना आदि कानूनों के आधार पर दण्डित करने तक की कानूनी व्यवस्था है|

ऐसे में सवाल उठता है कि न्यायपालिका देश के लोगों से क्या छुपाना चाहती है? यदि छुपाना नहीं चाहती तो फिर उसे कोर्ट की कार्यवाही और निर्णयों को जन साधारण के लिये किसी भी प्रकार से जारी होने में किसी भी प्रकार की दिक्कत क्यों होनी चाहिये?

अमेरिकी न्यायपालिका की ओर से पत्रकारों के लिए निर्देशिका जारी कर रखी है, जिसके अनुसार मिडिया ही लोगों को न्यायालयों के विषय में सूचित और शिक्षित करता है, उनके कार्यों के विषय में सारगर्भित बहस और परिचर्चा प्रारम्भ करता है| मीडिया न्यायपालिका में जनता की आस्था और विश्वास जागृत करता है और न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा में सहायता करता है|

अमेरिका के संघीय (सर्वोच्च्य) न्यायालय की रिपोर्टिंग करने के लिए कानून में डिग्री होना जरूरी नहीं है| संघीय न्यायालयों का अधिकांश कार्य और निर्णय खुले न्यायालयों में संपन्न होते हैं और अधिकांश मामलों में न्यायालय अभिलेख इन्टरनेट पर उपलब्ध हैं| वे मामले जिनमें मिडिया समूह का काफी ध्यान आकर्षित होता है उनकी सामग्री को न्यायालयों ने मुक्त पहुँच के लिए अपनी वेबसाइट पर डालना अधिक श्रेयष्कर समझा है और जब कभी ऐसी वेबसाइट पर नई सामग्री डाली जाये तो स्वतः ही ऐसे रिपोर्टरों को ईमेल भेज दिया जाता है|

अमेरिका की उच्च न्यायपालिका द्वारा उसके निर्णयों का सार जारी किया जाता है| जिसे न मात्र अमेरिका का, बल्कि किसी भी देश का कोई भी नागरिक मेल पर मुफ्त में प्राप्त कर सकता है| जिससे सभी लोगों को निर्णय के बारे में पूर्ण जानकारी मिल जाती है| ऐसे में मीडिया द्वारा किसी भी प्रकार के भ्रम या सन्देह फैलाये जाने की सारी सम्भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं| क्या इन सब दिशाओं में हमारे देश की सरकार और न्यायपालिका को नहीं सोचना चाहिये?

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