संयुक्त राष्ट्र महासभा में बराक ओबामा का संबोधन अमेरिकी
स्वार्थों को दिखाता है। उनका संबोधन यह बताता है कि किस तरह अमेरिकी साम्राज्यवाद
मुस्तैदी से इजरायल की पीठ पर अपना हाथ रखे हुए है। इजरायल को संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों से
कोई फर्क नहीं पड़ता। वह बड़ी बेशर्मी से संयुक्त राष्ट्र संघ के अनेकानेक
प्रस्तावों का उल्लंघन कर फलस्तीनी भूभाग पर कब्जा किए हुए है। उस पर लगतार हमले
कर रहा है और एक स्वतंत्र फलस्तीन देश के गठन का रास्ता रोके हुए है। यह संयुक्त
राष्ट्र संघ की प्रस्ताव संख्या-181 का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन है, जिसमें इजरायल के साथ एक फलस्तीन देश के
गठन का प्रावधान है।
संयुक्त राष्ट्र संघ में ही पिछले साल के अपने संबोधन में
राष्ट्रपति ओबामा ने फलस्तीन देश के गठन की ओर बढ़ने के वायदे तथा संकल्प की बात
कही थी, इसके ठीक उलट इस साल के अपने संबोधन में
उन्होंने इसकी चर्चा की कि किस तरह ‘शांति कठिन है’ और इसकी कसम भी खाई कि अगर
फलस्तीन मुल्क को मान्यता देने का मुद्दा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सामने
आता है, तो अमेरिका उसे वीटो करेगा।
अमेरिका के 44वें राष्ट्रपति के रूप में पहली बार किसी
अफ्रीकी-अमेरिकी के राष्ट्रपति चुने जाने तथा उससे जुड़े जोशो-खरोश तथा दुनिया भर
में पैदा हुई उम्मीदों को ध्यान में रखते हुए भी यह सवाल उठाया गया था कि क्या
इसका उपयोग एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए किया जाएगा? हालांकि सवाल करने वालों ने उस वक्त यह भी
कहा था, ‘अमेरिकी साम्राज्यवाद का पिछला अनुभव यही बताता है
कि वह कभी नहीं बदल सकता। अगर ऐसा है, तो अनुभव पर उम्मीद की
जीत के लिए संघर्ष जारी रहना चाहिए।’
बहरहाल, जहां तक
फलस्तीनियों का सवाल है, तो यह स्पष्ट है कि उनका संघर्ष न
सिर्फ जारी रहेगा, बल्कि निश्चित रूप से इस संघर्ष में और
तेजी आने जा रही है। इजरायल के सबसे लोकप्रिय दैनिक हारेत्ज ने पिछले हफ्ते लिखा था: ‘इजरायल के खुश होने
की वजहें हैं। राष्ट्रपति ओबामा के भाषण का स्वर पहले के किसी भी भाषण से कहीं
ज्यादा यहूदीवादी लग रहा था। फलस्तीन अथॉरिटी का नेतृत्व अमेरिका के साथ टकराव के
रास्ते पर है और फलस्तीन मुक्ति संगठन (पीएलओ) के महासचिव यासिर आबेद रब्बो ने
पिछले दिनों चैनल-2 से बात करते हुए कहा था कि अमेरिकी अब इजरायलियों और फलस्तीन
अथारिटी के बीच मध्यस्थता नहीं कर सकेंगे।
पूरी भाषणबाजी तथा लफ्फाजी के बावजूद अपने ताजातरीन भाषण से
ओबामा ताकतवर यहूदी लॉबी का वफादार बनकर सामने आए हैं और उन्होंने विश्व प्रभुत्व
के अमेरिकी साम्राज्यवाद के मनसूबों को ही स्वर दिया है। न्यूयॉर्क टाइम्स इस बात
का शोर मचा रहा था कि फलस्तीन की सदस्यता के पक्ष में संयुक्त राष्ट्र संघ में
मतदान सत्यानाशी होगा। वॉल स्ट्रीट जर्नल
आरोप लगा रहा था कि फलस्तीनी इजरायल को परेशान करने, उसकी वैधता खत्म करने तथा अंतत: उसे नष्ट
कर देने के अपने शाश्वत अभियान में एक और औजार का इस्तेमाल कर रहे हैं। कंजर्वेटिव
दबदबे वाली अमेरिकी कांग्रेस ने धमकी दी थी कि अगर फलस्तीन को एक देश के रूप में
मान्यता जाती है, तो सरकार के महत्वपूर्ण कामों को रोक दिया
जाएगा।
लगातार यह प्रचार किया जा रहा है कि फलस्तीन के लोग इजरायल
को स्वीकार ही नहीं करना चाहते हैं, जबकि फलस्तीन अथॉरिटी के राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने संयुक्त राष्ट्र संघ
के महासचिव बान की मून से यह अनुरोध किया था कि 1967 की सीमाओं में फलस्तीन देश को
मान्यता दी जाए, जो शांति से इजरायल के साथ रहने के लिए
तैयार है। यह मान्यता संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रस्ताव संख्या 181 के आधार पर दी
जानी है, जिसमें पूर्वी-येरूशलम को फलस्तीन राज्य की राजधानी
बनाए जाने का भी प्रावधान है।
पश्चिमी एजेंसियों द्वारा कराए गए सर्वेक्षणों के अनुसार, दुनिया भर में फैले 83 प्रतिशत फलस्तीनियों
ने संयुक्त राष्ट्र संघ से मान्यता हासिल करने के प्रयास का उत्साह के साथ समर्थन
किया है। उधर, द इकोनॉमिस्ट के अनुसार, अनेक अरब देशों ने कड़ी चेतावनियां दी हैं कि अगर अमेरिका वीटो का प्रयोग
करता है, तो अरब तथा मुस्लिम जगत के साथ संबंध सुधारने के
उसके सारे प्रयास निर्थक हो जाएंगे।’ सऊदी खुफिया तंत्र के लंबे अरसे तक प्रमुख
रहे शख्स का हवाला देते हुए इस पत्रिका ने लिखा है कि अगर अमेरिका फलस्तीन राज्य
के दर्जे के खिलाफ वोट करता है, तो सऊदी अरब भविष्य में
अमेरिका के साथ उस तरह से सहयोग नहीं कर पाएगा, जिस ऐतिहासिक
रूप से अब तक करता आया है।
साफ है, वर्तमान
गंभीर आर्थिक संकट व मंदी की पृष्ठभूमि में, जब यहूदी लॉबी
द्वारा नियंत्रित वित्तीय पूंजी, अमेरिका की संकट में फंसी
अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने की ओबामा की कोशिशों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है,
ओबामा ने उग्रपंथी स्वर अपना लिया है। आखिरकार, इन्हीं परिस्थितियों के बीच उन्हें अपने चुनाव का अभियान भी जो चलाना है।
यह अमेरिकी साम्राज्यवाद की उस लगातार बनी हुई आक्रामकता के भी अनुरूप है, जो अफगानिस्तान में देखने को मिली है। वहां अमेरिका की अफ-पाक नीति ने
संकट पैदा कर दिया है। नौबत यहां तक पहुंच गई है कि पाकिस्तान ने, जिसे लंबे अरसे से तथा पुराने जमाने से दक्षिण एशिया में अमेरिका की
कठपुतली माना जाता रहा है, एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए अपनी
विदेश मंत्री को अमेरिका से यात्रा रद्द कर स्वदेश लौटने के लिए कहा।
इन हालात में अपने विश्व प्रभुत्व को और पुख्ता करने के
अमेरिका के मनसूबे दुनिया की बहुमत आबादी की तकलीफें और बढ़ाने का ही काम करेंगे।
इसी के हिस्से के तौर पर फलस्तीनियों को अपने देश के उनके मौलिक अधिकार से आगे भी
वंचित रखा जाएगा। ज्यादा संभावना इसी बात की है कि जैसे ही अमेरिका संयुक्त
राष्ट्र सुरक्षा परिषद में फलस्तीन राज्य की मान्यता के खिलाफ अपना वीटो इस्तेमाल
करने की धमकी देगा, सुरक्षा
परिषद किसी निश्चित टाइम टेबल से मुक्त समीक्षा प्रक्रिया का गठन कर देगा। अमेरिका
चाहेगा कि इससे उसे वह समय और मौका मिल जाए कि वह अपनी कथित चौकड़ी- अमेरिका,
यूरोपीय संघ, रूस और संयुक्त राष्ट्र— के बीच
बातचीत को आगे बढ़ाए। लेकिन यह चौकड़ी तो अब तक सीमाओं, सुरक्षा,
शरणार्थी तथा येरूशलम जैसे प्रश्नों पर वार्ता के लिए दिशा-निर्देश
तय करने पर भी सहमति नहीं बना पाई है।
पश्चिम एशिया में कोई स्थायी शांति तभी आ सकती है, जब 1967 से पहले की सीमाओं में तथा अवैध
रूप से इजरायल द्वारा कब्जाए गए भूभाग को खाली कराने के बाद एक फलस्तीन देश का गठन
हो जाए, जिसकी राजधानी पूर्वी-येरूशलम हो।
सीताराम येचुरी
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