अगले साल पांच राज्यों में चुनाव होने हैं।
लेकिन मीडिया से लेकर नेताओं तक सभी की नजर उत्तर प्रदेश चुनाव पर टिकी है। जाहिर
सी बात है कि यूपी 2011 के जनादेश के बाद 2014 को लेकर नए राजनीतिक समीकरण बनेंगे
और बिगड़ेंगे भी। यूपी विधान सभा चुनाव सिर्फ चुनाव भर नहीं है, बल्कि इस बार राजनीतिक सूरमाओं
के कद मापने का पैमाना भी है। यूपी विधानसभा चुनाव का जनादेश आगामी राजनीति की दशा
भी तय कर सकता है क्योंकि कांग्रेस राहुल गांधी को अगला पीएम पद का उम्मीदवार
बनाने की तैयारी में है, तो बसपा सुप्रीमो मायावती की नजर भी
दिल्ली की कुर्सी पर टिकी है, जबकि मुलायम सिंह की पार्टी को
संजीवनी के लिए सत्ता में बने रहना जरूरी है, तो भाजपा को
राज्य में चैथे पायदान पर मृतप्राय हो चुकी पार्टी में जान फूंकने और हिंदुत्व
एजेंडे को पुनर्जीवित करने की चुनौती है। ऐसे में हर पार्टी ‘चुनावी कार्ड’ खेलने
से चूक नहीं रही। इसमें मुख्य है ‘मुस्लिम कार्ड’।
बसपा, कांग्रेस, सपा जैसी पार्टियां ये दांव
(मुस्लिम कार्ड) मुस्लिम आरक्षण के जरिए खेल चुकी है। दरअसल उत्तर प्रदेश में करीब
20 फीसदी मुसलमान हैं, जिनका सीधा असर 70-80 विधानसभा सीटों
पर है और इन आंकड़ों को लेकर सभी पार्टियां जागरूक हैं। राजनीतिक पंडितों को मालूम
है कि इनका वोट किस्तों में विभाजित नही होता, बल्कि एक
मुश्त किसी पार्टी की झोली में गिरता है। जो सत्ता तक पहुंचने की आसान सीढ़ी है।
सत्ता की इस मलाई को लेकर ही यूपी की जंग में कांग्रेस, बसपा,
सपा, बीजेपी, रालोद,
पीस पार्टी के बीच मुस्लिम बिरादरी की बदहाली और विकास को लेकर
जुबानी जंग तेज हो गई है। राजनीतिक पार्टियों को पता है कि जिधर गए मुसलमान,
वही बनेगा भाग्यवान।
ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या 21वीं सदी में
भी अल्पसंख्यक समुदाय वोट बैंक की तरह राजनीतिक पार्टियों, नेताओं और उलेमाओं के हाथों की
कठपुतली बनते रहेंगे या पिफर बिहार, पश्चिम बंगाल की तर्ज पर
यूपी विधान सभा चुनाव में अपने लोकतांत्रिक अधिकारों और विकास के एजेंडे के साथ
अपनी किस्मत का फैसला स्वयं करेंगे। ये सवाल उठना जरूरी है क्योंकि सच्चर कमिटी की
रिपोर्ट बताती है कि देश में अल्पसंख्यकों की हालत दलितों से भी बदतर है। जबकि हर
चुनाव में मुस्लिम वोट के लिए राजनीति होती है। वादे दर वादे किए जाते हैं,
भले ही निभाए ना जाते हों। आखिर मुसलमानों की स्थिति दयनीय क्यों है?
आखिर हिन्दुस्तान का दूसरा सबसे बड़ा तबका विकास की किरण से महरूम
क्यों है? इसके लिए 1990 के बाद की भारतीय राजनीति पर नजर
डालने की जरूरत है। ये ऐसा वक्त था जब मंडल-कमंडल जैसे मुद्दों ने देश की राजनीति
को जाति- धर्म के आधर पर बांट रखा था। इसी नब्बे के दौर में देश में ग्लोबलाइजेशन
की शुरूआत हो चुकी थी। ये ऐसा दौर था जब देश में विदेशी पूंजी का प्रभाव तेजी से
हो रहा था। इसी दौर में धर्मनिरपेक्षता और असुरक्षा का भय दिखाकर नेताओं ने
राजनीति खेली। जिसका सीधा नुकसान अल्पसंख्यक बिरादरी को, खासतौर
पर यूपी, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम के मुस्लिम समुदायों को उठाना पड़ा। जिसका सीध असर इनकी कमाई पर हुआ,
जबकि उनके हुनर पर आधरित उद्योग को बचाने की कोशिश नहीं हुई। ये वो
राज्य है जहां मुस्लिमों की आबादी 17 प्रतिशत से ज्यादा है। खासतौर पर हिंदी पट्टी
के राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार और पूर्वोतर के पश्चिम बंगाल
और असम में।
देश के 28 राज्यों और 7 केंद्र शासित प्रदेशों
में इन राज्यों की चर्चा इसलिए जरूरी है क्योंकि चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाने
वाले अल्पसंख्यक समुदाय के नाम पर ही यहां कुछ पार्टियों की राजनीति टिकी है। 2001
के जनगणना के मुताबिक देश के तकरीबन आधी आबादी से ज्यादा मुसलमान तीन राज्यों यूपी;19 फीसदी, बिहार ;17 फीसदी और पश्चिम बंगाल ;25 फीसदी में रहते हैं। इन तीन राज्यों में ही देश की 50 फीसदी मुस्लिम
आबादी रहती है, यहीं इनके नाम पर सबसे ज्यादा राजनीतिक तू-तू,
मैं-मैं होती है। पर यहीं सबसे ज्यादा बदहाल भी हैं। नब्बे के दशक
यानि राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद से उपजे राजनीति ने धर्म के नाम पर वोटों का
धूरुवीकरण शुरू हुआ। जिसे बिहार के लालू प्रसाद यादव ने सामाजिक समता और सेक्यूलर
शासन के नाम पर 1990 से 2005 तक ‘माई’ ;मुस्लिम-यादव समीकरण
के जरिए 15 साल तक शासन किया। वोट बैंक के इस खेल में आरजेडी सत्ता सुख भोगती रही,
लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय आर्थिक-सामाजिक तौर पर मजबूत हुआ हो,
ऐसा कम ही देखने को मिलता है। लेकिन 2005 विधान सभा चुनाव में बिहार
के मुस्लिम मतदाताओं के साथ-साथ दूसरे समुदाय ने अन्य राज्यों के विकास और खुद की
गरीबी की वजह को महूसस किया। देर से ही सही, मतदाताओं ने
विकास के एजेंडे को समझा और फिर भविष्य की रणनीति को लेकर सुगबुगाहट शुरू हुई।
इसका साफ असर चुनाव में देखने को मिला। जिन अल्पसंख्यकों को लालू यादव की पार्टी
ने वोट बैंक से ज्यादा कुछ नहीं समझा, उन्होंने 2005 विधान
सभा चुनाव में वोट बैंक की अवधरणा को ध्वस्त कर दिया।
ऐसा ही बदलाव पश्चिम बंगाल में देखने को मिला।
पिछले विधान सभा चुनाव में महज 30 विधान सभा सीटें जीतने वाली ममता बनर्जी की
तृणमूल कांग्रेस यदि इस बार लगभग छह गुना सीटें पाकर अभूतपूर्व जीत दर्ज करा चुकी
है तो उसमें राज्य के लगभग 35 प्रतिशत मुस्लिमों का बड़ा हाथ है। तृणमूल के
मुस्लिम समुदाय के प्रत्याशियों की भारी मतों के अंतर से जीत भी यह संकेत देती है
कि ममता की तरफ मुसलमानों का कितना जबरदस्त झुकाव था। ममता ने अपने घोषणा पत्रा
में माल्दा, बीरभूम,
मुर्शिदाबाद और दिनाजपुर जैसे लगभग दर्जनभर मुस्लिम आबादी बहुल
जिलों पर फोकस किया, नतीजे भी मिले। क्योंकि 90 के बाद बदली
स्थिति में 34 साल के शासन में 20 साल तक सेक्यूलरवाद के नाम पर ही वोट पाते रहें।
बीते तीन दशक से वामदलों को अपना मसीहा मानते रहे मुसलमानों ने अपनी उपेक्षा का
बदला वाम दलों से देर से ही सही, लेकिन दुरूस्त लिया।
इन दो राज्यों में बदलाव के बाद बारी उत्तर
प्रदेश की है। क्योंकि यूपी में 90 के बाद की राजनीति धर्म और जाति पर आधारित रही
है और मुस्लिम मतदाताओं पर सपा की दावेदारी किसी से छिपी नहीं है। कांग्रेस भी
अल्पसंख्यक समुदाय को अपना परंपरागत वोट बैंक मानती है। मुस्लिम वोट बैंक के
चक्रव्यूह में राजनीतिक दल सत्ता सुख तो भोगती रहीं हैं, लेकिन अल्पसंख्यक तबका हाशिए
पर चला गया। ये सभी भूमंडलीकरण के दौर में हुआ, जब विदेशी
पूंजी निवेश का हिस्सा कमोबेश सभी तबकों तक पहुंचा। लेकिन अब देश में 1992 में
बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद उपजे धर्मिक उन्माद की आग बुझ चुकी है। अयोध्या मामले
पर न्यायालय के फैसले के बाद दोनों समुदायों ने संयम दिखाकर इसका सबूत भी दे दिया।
यूपी चुनाव में मुसलमान निर्णायक भूमिका निभाते है और यही वजह है कि आज हर
राजनीतिक पार्टी मुसलमानों के वोट के लिए एक मुस्लिम चेहरा रखती है। दुर्भाग्य से
अभी भी उनका उपयोग वोट बैंक के रूप में हो रहा है। राजनीतिक पार्टियां कुछ दलाल
चाहती हैं जो उनके पक्ष में मुसलमानों के वोट का फतवा दे सकें।
इस बार मुस्लिम समाज की पिछड़ी जातियां अपने
पिछड़ेपन को लेकर काफी खफा है और वो इस बार इससे निजात चाहती है। वे अब जज्बात की
आंधी में बहने को तैयार नहीं है। अगर सच्चर कमेटी की सच्चाई को बदलना है तो जरूरी
है कि मुस्लिम समाज के भीतर से ही बदलाव की आवाज बुलंद हो।
जरूरत इस बात है कि बिहार, बंगाल की तरह किसी एक पार्टी
की बपौती यानि वोट बैंक बनने के बजाय अपने वोट का फैसला स्वयं करें। मुस्लिम वोटों
की दलाली करने वाले नेताओं के भरोसे यह बदलाव संभव नहीं है। लेकिन फिर भी जागरूक
होने और वोट बैंक में तब्दील होने से ये तबका खुद को रोक पाएंगा, ये अभी कहना जल्दबाजी होगी।
सार्थक प्रस्तुति, आभार.
ReplyDeleteइस सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकारें.