गुजरात हाईकोर्ट द्वारा इशरत जहां मुठभेड कांड
को फर्जी घोषित कर देने के बाद दोषी पुलिस अधिकारियों पर नये सिरे से हत्या का मुकदमा
दर्ज किया जाना है। जिसमें सम्भावना है कि घटना को जघन्यतम मानते हुये कोर्ट फांसी
की सजा सुनाए। इस तरह इशरत जहां के परिवार की इंसाफ की लगभग सात साल लम्बी अदालती
लडाई एक तार्किक निष्कर्ष तक पहुँचती दिख रही है। लेकिन सवाल है कि क्या इस फैसले
भर से ऐसे फर्जी मुठभेडों पर लगाम लग जाएगी। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है कि
न्यायपालिका की कार्यपद्धति की अपनी एक सीमा होती है जो किसी घटना को सुबूत जैसे
तकनीकी पहलुओं पर ही देखती है। जबकि इशरत जहां जैसे फर्जी मुठभेडों का चरित्र
विशुद्ध राजनीतिक और विचारधारात्मक होता है। दूसरे शब्दों में, क्या सिर्फ दोषी पुलिस
कर्मियों को सजा देने भर से पुलिस की साम्प्रदायिक जेहनियत पर लगाम लग सकती है जो
ऐसे फर्जी मुठभेडों की पृष्ठभूमि निर्मित करती है।
दरअसल अगर इस मामले में ही देखें तो पुसिल और
मोदी सरकार ने दावा किया था कि इशरत जहां और उसके साथी नरेंद्र मोदी की हत्या करना
चाहते थे। जिसकी वजह गुजरात 2002 में हुये राज्य प्रायोजित मुस्लिम विरोधी हिंसा
का बदला लेना था। यानि इस फर्जी मुठभेड कांड को वैधता दिलाने के लिये जो तर्क गढे
गये वे राजनीतिक और विचारधारात्मक थे। जाहिर है ऐसे में पुलिस सिर्फ हुक्म बजाने
वाली संस्था भर है, असली
मास्टरमाइंड तो हिंदुत्ववादी विचारधारा वाली प्रदेश सरकार है। इसलिये अगर दोशी
पुलिसकर्मियों को सजा मिल भी जाये तो भी ऐसे मुठभेडों की वैचारिकी तैयार करने वाले
साम्प्रदायिक समाजशास्त्र पर कोई आँच नहीं आने वाली। हालांकि कुछ लोगों का कहना है
कि चूंकि फर्जी मुठभेड पुलिस प्रमोशन के लिये करती है, इसलिये
ऐसे फैसलों से इस पर रोक लग सकती है। लेकिन यह समस्या के खास चरित्र के
सामान्यीकरण की एक चालाक कोशिश भर है। आखिर गुजरात पुलिस को ऐसा क्यूं लगता है कि
सीमी या लश्कर के नाम पर किसी सोहराबुद्दीन शेख या इशरत जहां जैसे मुस्लिमों को
मार कर ही प्रमोशन मिल सकता है? जाहिर है अगर प्रमोशन ही
कारण है तो वह भी राजनीतिक और वैचारिक तर्कों पर ही निर्मित हुआ है।
दरअसल ऐसे फर्जी मुठभेडों को व्यापक
राजनैतिक-वैचारिक दायरे में देखने की जरूरत है कि आखिर बार-बार खाकी वर्दी का
हिंदुत्ववादी एजेण्डे के लिये इस्तेमाल क्यूं आसानी से हो जाता है? या क्यूं खाकी वर्दी बाबरी
मस्जिद विध्वंस या गुजरात 2002 जैसे खास मौकों पर खाकी निक्कर की हमजमात दिखने
लगती है। जहां वह ‘ये अंदर की बात है-पुलिस हमारे साथ है, या
हिंदु हिंदु भाई भाई- बीच में वर्दी कहां से आयी’ जैसे नारे लगाती भीड का अभिवादन
सहमति में मुस्कुराते हुये करती है। जाहिर है पुलिस द्वारा इशरत या सोहराबुद्दीन
की हत्या कोई अचानक होने वाली घटना नहीं है।
दरअसल स्वतंत्रता के बाद से एक संस्था के बतौर
पुलिस का विकास ही धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के बजाये हिंदुत्ववादी आग्रहों पर हुआ है।
जिसकी बडी मिसाल तो थानों में मंदिरों का होना है। आखिर एक बहुधर्मी समाज में
जिसमें साम्प्रदायिकता एक बडी समस्या हो, कानून-व्यवस्था देखने वाली संस्था के अहाते में बहुसंख्यक
धर्म के पूजा स्थल की मौजूदगी का क्या मतलब है? यह तो
धर्मनिरपेक्षता के वैज्ञानिक विचार ‘सर्व धर्म वर्जेत’ जिस पर राज्य को चलना
चाहिये तो दूर ‘सर्व धर्म संभाव’ के गांधीवादी संस्करण जिस पर भारत चलने का दावा
करता है के भी खिलाफ है। सबसे अहम सवाल जो इस प्रक्रिया को सुनियोजित और संदिग्ध
बनाता है, वो ये कि आखिर व्यवस्था के बाकी स्तम्भों मसलन
न्यायपालिका या विधायिक और उसके शाखाओं में मंदिर या दूसरे धार्मिक ढांचे क्यूं नहीं मौजूद हैं? आखिर कानून-व्यवस्था सम्भालने वाली संस्था
में ही मंदिर क्यों हैं। इससे धर्मनिरपेक्ष संविधान का कौन सा और किस का हित सधता
है।
दूसरे बंटवारे के बाद पाकिस्तान के साथ हुये
युद्धों जिन्हें बहुत आसानी से आंतरिक तौर पर मुसलमानों के विरूद्ध युद्ध में
तब्दील कर दिये जाने के कारण एक मुस्लिम विरोधी सैन्य (पुलिसिया) राष्ट्रवाद भी
विकसित होता गया। जिसके चलते मुसलमानों के खिलाफ पुलिसिया हिंसा को राष्ट्रिय सुरक्षा के तर्क के साथ नथ्थी कर दिया गया। परिणामस्वरूप दंगों की स्थिति में
पुलिस दंगाइयों को तो खुली छूट देने ही लगी, खुद भी मेरठ (मलियाना) और भागलपुर जैसी घटनाओं को अंजाम देने
लगी। जहां पहले में उसने लगभग 50 मुसलमानों को गोली मारने के बाद नहर में फेंक
दिया तो दूसरे में इतनों की ही हत्या कर खेत में दफनाने के बाद उपर से गोभी बो
दिया। इन दोनों घटनाओं की सरकारी जांच रिर्पोटों को देखा जा सकता है जिसमें बच गये
लोगों ने बताया है कि कैसे पुलिस ने उन्हें पाकिस्तानी और राष्ट्रविरोधी कह कर गोली
मारी थी। क्या इशरत जहां को इन्हीं तर्कों के साथ फर्जी मुठभेड में मारने वाले
पुसिलकर्मियों को सजा दे देने भर से पुलिस की यह मानसिकता खत्म हो जायगी? जाहिर है समस्या ज्यादा पेचीदा है।
दरअसल जिस तरह 9/11 के बाद साम्प्रदायिक विभाजन
के लिये दंगों की राजनीति की जगह आतंक की राजनीति ने ले लिया है और देश एक पुलिस
स्टेट बनने की दिशा में बढ रहा है, ऐसे में पुलिस की यह सांप्रदायिक प्रवित्ति और मुखर ही नहीं
हुयी है बल्कि उसकी सामाजिक स्वीकार्यता में भी इजाफा हुआ है। इस स्थिति से भारतीय
राज्य कैसे निपटता है इसी पर उसके धर्मनिरपेक्ष राज्य होने का दावा टिका है।
स्वतंत्र पत्रकार/प्रदेश संगठन सचिव पीयूसीएल, यूपी
द्वारा मो शोएब, एडवोकेट
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लाटूश रोड, लखनउ, उत्तर
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मो 0914254919
2007 मक्का मस्जिद ब्लास्ट मामले में गलत तरीके से हिरासत में लिए गए निर्दोष लोगों को राहत के लिए आंध्र सरकार ने 70 लाख रु की राशि जारी करने के आदेश दिए हैं। इस घटना के बाद 50 युवकों से पकड़कर पूछताछ की गई, बाद में उन्हें छोड़ दिया गया। उन सभी को 20 हजार रुपए दिए जाएंगे। जिन 20 निर्दोष लोगों पर चार्जशीट दायर की गई उन सभी को 3-3 लाख रुपए की राहतराशि दी जाएगी।राज्य सरकार ने यह राहतराशि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की सिफारिश के आधार पर दी हैं। आयोग ने सरकार से यह भी कहा है कि यह राशि उन पुलिसवालों से ली जाए जिन्होंने गलत जानकारी देकर निर्दोष लोगों को पकड़ा।मुख्यमंत्री एन. किरण कुमार रेड्डी द्वारा राज्य विधानसभा में इसकी घोषणा किए जाने के एक दिन बाद मंगलवार को राज्य के अल्पसंख्यक कल्याण विभाग ने राशि जारी करने के लिए आदेश पारित किया। यह अपनी तरह का पहला उदाहरण है जब पुलिस की यातना का शिकार हुए पीड़ितों को सरकार मुआवजा दे रही है। आयोग के अध्यक्ष वजाहत हबीबुल्लाह ने अगस्त में मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर इन अनुशंसाओं पर कदम उठाने के लिए कहा था।
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