Wednesday, July 25, 2012

मुसलामनों का कत्लेआम…ज़िम्मेदार कौन…


बर्मा में मुसलमानों के कत्लेआम की चर्चाएं सोशल नेटवर्किगं और समाचार वेब साइटों पर तो दिखी मगर अफसोस इतने बड़े हादसे की सच्चाई या इस पर से पर्दा उठाने की ज़हमत ना तो भारत के किसी ख़बरिया चैनल ने की और ना ही दुनियां भर के किसी मीडिया हाउस की नज़र इधर गई। ये अलग बात है जब इंसानी खून धरती पर बहा है तब तब दुनियां ने इसका असर महसूस ज़रूर किया है। भले ही पूरी दुनिया का मीडिया इतनी बड़े नरसंहार को दबाने या इसको अपने अंदाज़ से सुलझाने की जुगत में हो, लेकिन ये हादसा इतिहास और दुनियां के बदलाव का एक बड़ा अध्याय बन जाए तो कोई ताज्जुब नहीं…। हो सकता है कि ईराक़, अफगानिस्तान समेत दूसरे कई मुस्लिम देशों की तरह हज़ारों मुसलमानों की हत्या होते देख चुके मीडिया के लिए बर्मा का नरसहांर कुछ नई सनसनी ना ला सका हो। या हो सकता है कि सनी लियोन जैसे घृणित व्यक्तित्व को परोसने के नाम पर कोरोड़ों की डील कर चुके मीडिया के लिए कुछ हजा़र गरीब और बेबस मुसलमानों की जघन्य हत्या टीआरपी के पैमानों पर खरा ना उतरने वाला मसाला हो।
खैर बर्मा में मुसलमानों के नरसंहार के बाद बुद्धिस्टों का भी चरित्र सामने आ चुका है। साथ ही पहली बार डेमोक्रेसी का मज़ा चख रहे बर्मा का भविष्य, दिशा और दशा भी सबके सामने आ चुकी है। लेकिन सबसे ख़ास और ज़रूरी बात यह है इस मौक़े पर दुनियां भर के मुसलमानों को भी अपने गिरेबान में झांक कर देखना होगा कि आख़िर गड़बड़ कहां है। क्या वजह है कि नागरिक हो या शासक, देश हो या बस्ती जिस भी संस्था के साथ मुस्लिम नाम जुड़ गया वो सरेआम अपमानित और किसी ना किसी रूप में पीड़ित ही नज़र आता है। शासकों की दुर्गति के सबूत के तौर पर सद्दाम हुसैन, हुस्ने मुबारक, समेत कई नाम देखे जा सकते हैं। आखिर किसी देश का शासक अपने देश में बदलाव या सुधार के नाम पर किसी दूसरे देश की फौजों के हाथों इस तरह अपमानित हो सकता है। क्या किसी और देश की जनता अपने शासक की इस तरह की दुर्गति को सोच भी सकती है। इसी तरह से दुनियां भर में सबसे ज़्यादा मुस्लिम देश होने के बावजूद सभी देशों की हैसियत डरपोक बिल्ली से ज़्यादा कुछ नहीं नज़र आती।
ऐसा भी नहीं कि मुस्लिम देश साधन सम्पन्न और आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं। तेल और अनेकों तरह के खनिजों से भरपूर लगभग सभी मुस्लिम देश भिखारी से फालतु कुछ नज़र नहीं आते। दूर की बात करने की बजाए आप अपने आसपास मुस्लिम बस्तियों की हालत देखें तो साफ समझ में आ जाता है कि यहां मुस्लिम रहते हैं। अकेले भारत वर्ष में हर शहर की मुस्लिम बाहुल्य बस्तियों के फर्क़ को देखने के बाद हो सकता है किसी भी समझदार मुसलमान का सिर शर्म से झुक जाए। चाहे गंदगी से भरी तंग गलियां हो या दूसरी कई तरह की पहचान, जिनको देखकर कोई ये जान जाता है कि इस बस्ती का ये हाल क्यों है। लगभग कई हज़ार मुस्लिम बस्तियों का मुआयाना करने और कई सर्वे के बाद इस नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि ड्रग्स का धंधा हो या छोटे छोटे बच्चों का स्कूल के बजाए सड़को पर कंचे या कुछ अजीब तरह के खेलों में मगन रहना, तंग गलियों में अतिक्रमण, कारोबार के नाम पर कबाडे के धंधे की भरमार।
हो सकता है कुछ लोगों को हमारी बात पर यक़ीन ना आ रहा हो या फिर कुछ बढ़ चढ़ कर दिखाई दें। लेकिन देश भर की केवल दस मुस्लिम बस्तियों का मुआयना करके सही हालात को देखा जा सकता है। ऐसा नहीं है कि मुसलमान कमज़ोर है… बल्कि आर्थिक रूप से बेहद मज़बूत हुआ है। जिन बस्तियों से अब से दस साल पहले गिने चुने बच्चे ही स्कूल जाते थे आज वहीं से हर सुबह रिक्शों और वाहनो से सैंकड़ों बच्चे स्कूल जाते देखे जा सकते हैं। लेकिन कितने बच्चे दसवीं या उच्च शिक्षा तक जा पाते हैं.. ये किसी से नहीं छिपा है। साथ ही जहां तक कारोबार का सवाल है… ठेले पटरी पर फल और सब्जी बेचने वालों की तादाद तो बढ़ी ही है साथ ही कुछ दस्तकार तबके के कारोबार भी चमके हैं मगर ये सच्चाई है कि कबाड़ का धंधा आज भी मुसलमानों का कॉपी राइट बन चुका है। चाहे शराब की खाली बोतलों को इकठ्टा करने और उनको दोबारा बेचने से लेकर बंद फैक्ट्रियों की मशीनरी के लोहे को गलाने की महारत इन सब में मुस्लिम खासी जगह बना चुके हैं।
अब अगर बात की जाए धार्मिक मामलों की तो हज में लगातार हाजियों की बढ़ती तादाद, कुर्बानी के लिए महंगे बकरे और जानवरों की नुमाइश और मस्जिदों की सुंदरता पर लगातार बढ़ती लागत से अंदाजा़ होता है कि धर्म को लेकर भी जागरुकता बढ़ी है। मगर सवाल तो ये है कि आखिर क्या वजह है कि इस सब के बावजूद इस्लाम की कुछ ज़रूरी अरकान पिछड़ते जा रहे हैं। कमाई और रोज़गार के मामले में हराम और हलाल का फर्क़ किसी हद तक घटता नज़र क्यों आता है। ब्याज लेना और देना दोनों ही हराम है… जबकि ये दोनों ही काम आम होते जा रहे हैं। जिस इस्लाम के पहले खलीफा हज़रत अबूबकर (रज़ि) का कहना था कि अगर ज़कात के ऊंट की रस्सी भी (यानि वाजिबात की अदायगी) देने से कोई इंकार करेगा तो उससे भी सख़्ती से निबटा जाएगा।
लेकिन आज हमारे मामलात बेहद कमज़ोर और ग़ैर ज़िम्मेदाराना क्यों होते जा रहे हैं। जब सड़क से एक ईंट या रोड़ा हटाने के एवज़ 70 नेकियों का सवाब मिलने का वादा है तो हम कैसे हिम्मत कर लेते हैं कि सड़क पर अपने किसी भी सामान या कार्य से अतिक्रमण करके उसमें लोगों के लिए बाधा उत्पन्न कर सकें। आख़िर क्या वजह है कि सबसे ज़्यादा गालियों का इस्तेमाल करने के लिए मुसलमानों का ही नाम लिया जाता है। अगर किसी थाली में कोई बच्चा भी पैशाब कर दे तो शायद किसी का भी उसमे महगीं से महंगी बर्फी या मिठाई खाने का दिल नहीं चाहेगा। तो आख़िर क्या वजह है कि हम जिस ज़ुबान से कल्मा-ए-हक़ और दुनियां के सबसे बड़े इक़रार को दोहराते हैं, उसी ज़ुबान से कोई भी गाली कैसे अदा कर देते हैं।
साथ ही आख़िर क्या वजह है कि जिस क़ुरान को हमारी कामयाबी और दुनियां की हिफाज़त की गांरटी कहा गया है उसी से हम लगातार दूर होते जा रह हैं। हमारे बच्चे ट्विंकल ट्विकंल लिटल स्टार तो बहुत जल्द याद करते हैं और उसको सुनाते वक़्त हम भी गर्व महसूस करते हैं मगर आख़िर उनको क़ुरान की तालीम देने से क्यों दूरी बढ़ती जा रही है। ऐसा नहीं कि क़ुरान की तालीम के बाद दुनियां की तलीम लेना नामुमकिन हो जाएगा। मेरे अपने परिवार में 1932 से लेकर आज तक ग्रेजुएट और उच्च शिक्षा लेने के बावजूद पहले बच्चे को क़ुरान पढ़ना ज़रूरी था और आज भी है। सैक़ड़ों हफिज़ों का उच्च शिक्षा लेते देख कर कोई भी समझ सकता है कि इससे दुनियां की तालीम पर कोई फर्क नहीं पडता।
कहने को तो बहुत कुछ है मगर इस वक़्त इस बात की चर्चा भी बेहद ज़रूरी है कि आज हम मुसलमान से ज्यादा शिया, सुन्नी, देवबंदी, बेरलवी, अहले हदीस, तबलीग़ी जमात, जैसे कई नये नामों से जाने जाना और पहचाने जाना पंसद करने लगे हैं। और तो और कई मस्जिदों में क़ुरान के ऊपर कई दूसरी किताबों को फज़ीलत दी जा रही है। अगर कोई आपसे ये कहे कि क़ुरान को यानि कलाम-उल्लाह ( अल्लाह के कलाम) को तर्क करके कोई और किताब पढ़ा करो तो शायद आप उसको अपना सबसे बढा़ दुश्मन मानने लगो। क्योंकि इस्लाम और हमारे आक़ा (सल्ल.) की सबसे बड़ी दलील और दस्तावेज़ी सबूत क़ुरान ही है। ये वही क़ुरान है जिसकी इंसानी दिलों में मौजूदगी की सूरत में क़यामत तक नहीं आ सकती। जिसमे आज तक एक ज़ेर और ज़बर का फरक़ नहीं आया है। क़ुरान की हिफ़ाज़त का ज़िम्मा ख़ुदा ने ख़ुद लिया है। हर साल रमज़ान में तरावीह के दौरान इसको सुनाने और हिफ्ज़ करने की रिवायत ने इसको दिलों में महफूज़ कर दिया है। इसी क़ुरान को आज हम ख़ुद सिर्फ अपनी बेटियों को विदाई के वक्त तोहफे या दहेज में देने या अपने मकान के शेल्फ में सजाने की चीज मान चुके है। इसकी तिलावत और मायनों के साथ समझ कर पढ़ने की हम ज़हमत ही नहीं उठा रहे हैं। हमें मालूम ही नहीं है क़ुरान क्या है और कैसे ये हमारी कामयाबी का सबूत है।
बात बहुत लम्बी हो गई हो सकता है आप बोर हो रहे हों। मगर बात जहां से शुरु हुई थी अब वहीं चलते हैं। क्या वजह है कि बर्मा में दुनियां की सबसे बहादुर क़ौम यानि मुसलमानों को गाजर मूली की तरह काटा जा रहा है और ये अपनी जान की भीख मांग रहे हैं। जिस इस्लाम के मानने वालों की सिर्फ 313 की तादाद हज़ारों लाखों पर भारी पड़ थी उसी इस्लाम के तथकथित मानने वालों की करोड़ों की तादाद रहम की भीख मांग रही है और उसको मिल रही है ज़िल्लत की मौत। सिर्फ ये मान लो कि अगर आज क़ुरान हमारे दिलों में होता और हमारी ज़िदगी क़ुरान के मुताबकि़ होती, तो किसी की इतनी औक़ात नहीं थी वो तुमसे इस तरह सलूक करता। अपने चरित्र और जीवन को संवारने के लिए ही नहीं अपने मान सम्मान की हिफाज़त के लिए भी क़ुरान की तालीमात पर अमल करना बेहदज ज़रूरी है। जो लोग तुमको क़ुरान के तर्जुमे यानि मायनों को समझने से रोकते हैं… उनको ये समझो कि यहूद की ये एक साज़िश है कि आप अपनी राह से भटक जाएं और मंज़िल तक ना पहुंच सकें।
और हां एक बात और अपनी बर्बादी के लिए अमेरिका, इज़्राइल, यहूदी या आरएसएस जैसे किसी नाम को लेने की बजाए एक बार अपने गिरेबान में झांक कर देखो… आपको नज़र आ जाएगा कि अपनी नाकामी और ज़िल्लत के लिए ख़ुद हम ही ज़िम्मेदार हैं। हमारी अशिक्षा ही हमारी सबसे बड़ी दुश्मन है। साथ ही शादियों में करोड़ों रुपय खर्च करने वाले और छोटी छोटी बातों को नाक का सवाल बना कर रक़म लुटाने वाली क़ौम का आज तक कोई रहनुमा और न्यूज चैनल तक ना होना दलील है इस बात की कि बर्मा जैसी घटनाओं को उठाने के लिए तुम ख़ुद भी संजीदा नहीं हो। हो सकता है कि कुछ लोग कुछ ऐसे नेताओं या न्यूज़ चैनलों का नाम ले जिनके नाम मुसलमान हों मगर मुसलमानों के अलग अलग किरदार हमने भी देखें हैं। क्योंकि चाहे सलमान रुश्दी हो या तस्लीमा नसरीन या फिर नक़वी जैसे नेता ये सब कहने को तो मुसलमान नामों से जाने तो जाते हैं मगर उनकी सच्चाई बताने की शायद कोई ज़रूरत नहीं है।
आख़िर में सिर्फ इतना कहना है कि

वो ज़माने में मुअज्ज़िज थे मुसलमां हो कर |
और हम ख्वार हुए तारिके कुरआँ हो कर ||

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