हाल में म्यानामार के
अराकान राज्य में रोहिंग्या मुसलमानों और बौद्घों के बीच हुए दंगों की खबर ने पूरे
विश्व को चौंका दिया। इन दंगो में 100 से अधिक मुसलमान मारे गये और करोड़ो की संपत्ति
नष्ट हो गई। अमन (एशियन मुस्लिम एक्शन नेटवर्क), जिसका फैलाव पूरे एशिया में है,
ने इस क्षेत्र में शांति स्थापना की पहल करने का निर्णय लिया। म्यानामार (बर्मा) की छवि एक शांतिपूर्ण देश की है और वहां इस बड़े पैमाने पर दंगे होने की अपेक्षा
किसी को नहीं थी।
यह तय किया गया कि म्यानामार
के तीनों प्रमुख धार्मिक समुदायों अर्थात बौद्ध, मुस्लिम और ईसाई, के बीच अंतर्धार्मिक संवाद का आयोजन किया जावे। म्यानामार में मुसलमान,
कुल आबादी का लगभग 10 प्रतिशत हैं। यांगोन (जिसे पहले रंगून कहा जाता
था) में मुसलमानों की आबादी 20 प्रतिशत के आसपास है। यांगोन एक समय म्यानामार की राजधानी
था परन्तु अब वह देश का सबसे बड़ा व्यावसायिक केन्द्र है। राजधानी अन्यंत्र स्थापित
कर दी गई है।
अंतर्धार्मिक संवाद का
आयोजन यांगोन में किया गया था। यांगोन मंझोले आकार का एक सुंदर शहर है। यहां खूब साफसफाई
है और हरियाली भी बहुत है। यांगोन की आबादी लगभग 60 लाख है अर्थात मुंबई से करीब आधी।
यहां मुंबई की तुलना में भीड़भाड़ बहुत कम है और जिंदगी की धीमी रफ्तार और भरपूर हरियाली
इसे मुंबई से अलग करती है। मुंबई के विपरीत, यांगोन में गगनचुंबी इमारतें नहीं
हैं। सबसे ऊंची इमारतों में दो होटलें शामिल हैं जो 25 मंजिला हैं। अन्य इमारतों में
पांच से लेकर पंद्रह मंजिलें तक हैं। एक समय मुसलमान, यांगोन
के काफी प्रभावशाली समुदायों में शामिल थे। उनमें से अधिकांश व्यापारी थे। अकेले सूरत
शहर से इतनी बड़ी संख्या में मुसलमान वहां गये थे कि यांगोन में आज भी एक सुंदर सूरती
मस्जिद है।
म्यानामार का मुस्लिम
समुदाय अत्यंत विविधतापूर्ण है। बर्मी मूल के मुसलमानों की संख्या बहुत कम है। अधिकांश
मुसलमान भारत के विभिन्न हिस्सों से आये प्रवासी हैं जो उस वक्त म्यानामार में बसे
थे जब वह भारत का हिस्सा था। वहां बड़ी संख्या में तमिल, गुजराती,
बंगाली और बोहरा मुसलमान हैं। उर्दू बोलने वाले मुसलमानों की संख्या
बहुत कम है। अब तो सभी मुसलमान बर्मी भाषा बोलते हैं। अपने मुस्लिम नाम के अतिरिक्त
इन सभी के बर्मी नाम भी हैं और सार्वजनिक जीवन में वे अपने बर्मी नाम व मुस्लिम समुदाय
में अपने इस्लामिक नाम से जाने जाते हैं। उदाहरणार्थ, एक व्यक्ति
का बर्मी नाम है चिटको ओ.ओ. और उसी व्यक्ति का इस्लामिक नाम है मो. नसीरउद्दीन। यही
परंपरा वहां रह रहे थाईलैंड के मुसलमान भी अपनाते हैं।
यांगोन में दो स्थान
सबसे प्रसिद्ध हैं। पहला, मुगल बादशाह बहादुरशाह ज़फर की कब्र और दूसरा,
बर्मा का सबसे बड़ा बौद्ध पैगोडा। मैने दोनों स्थल देखे। बहादुरशाह जफर
की कब्र अब भारत सरकार द्वारा बनवाई गई एक मस्जिद के अंदर है। उनकी इस असली कब्र का
पता तब चला जब 199293 में मस्जिद के निर्माण के लिए खुदाई की जा रही थी। अंग्रेजों
ने उन्हे गुप्त रूप से दफनाया था और असली स्थान से कुछ दूरी पर एक बड़ी सी प्रतीकात्मक
कब्र बना दी थी। दोनो कब्रें आज भी हैं। मैं बहादुरशाह ज़फर की कब्र पर गया और भारत
के इस महान स्वाधीनता संग्राम सेनानी को श्रद्घांजली दी। इस स्थल की सरकार द्वारा बहुत
अच्छी तरह से देखभाल की जा रही है।
गोल्डन बौद्ध पैगोडा, बौद्धों
का प्रसिद्ध तीर्थस्थल है और यांगोन का एक प्रमुख पर्यटक आकर्षण भी। असल में यह बहुत
सारे बड़ेछोटे पैगोडा का काम्पलेक्स है और यहां हमेशा भीड़ बनी रहती है। अधिकांश इमारतों
पर सोने की पर्त च़ी है जिससे ये बहुत सुंदर और आकर्षक लगती हैं। काम्पलेक्स के चारों
ओर घनी हरियाली है। यहां बैठ कर अत्यंत शांति का अनुभव होता है। यह दुःखद है कि बुद्ध
के इस देश में मानव रक्त अकारण बहाया गया। अब भी कोई नही जानता कि दंगो में कुल कितने
लोग मारे गये। भगवान बुद्ध दया और अहिंसा की प्रतिमूर्ति थे परन्तु उनके ही अनुयायियों
ने निर्दोषों का खून बहाने में तनिक भी संकोच नही किया। किसी भी धर्म के आदर्शों और
उसके अनुयायियों के क्रियाकलापों में हमेशा बड़ा अंतर रहता है।
जैसा कि मैं पहले भी
कह चुका हूं, बर्मा एक शांतिपूर्ण देश है और यहां के तीनों प्रमुख धार्मिक समुदायों
के सदस्य आपसी प्रेम और सद्भाव से रहते आये हैं। बर्मा के पश्चिमी प्रांत अराकान में
सेना के सत्ता संभालने के बाद समस्याएं शुरू हुईं। यांगोन की अपनी यात्रा के पहले दिन
22 जून को मैं एक ईसाई शिक्षण संस्था में गया। मैंने वहां अंतर्धार्मिक संवाद और उसके
उद्देश्यों पर प्रकाश डाला। संवाद का लक्ष्य एकदूसरे को समझना है, एकदूसरे का मतांतर करना नहीं। धमांर्न्तरण की तो बात ही नहीं की जानी चाहिए।
इससे संवाद की मूल आत्मा ही खतरे में पड़ जाती है। मैंने अंतर्धार्मिक व अंतर्सांस्कृतिक
संवाद की अवधारणा पर विस्तृत प्रकाश डाला और इस बात पर जोर दिया कि विभिन्न धार्मिक
और सांस्कृतिक समुदायों के बीच सतत संवाद चलते रहने से समस्याएं या तो उत्पन्न ही नहीं
होंगी और यदि होंगी भी तो जल्दी ही सुलझ जाएंगी।
हम लोगों ने इस मौके
पर रोहिंग्या मुसलमानों के हालात पर चर्चा नहीं की वरन मुख्यतः अंतर्धार्मिक संवाद
के सैद्घांतिक पक्ष पर विचार किया। इससे भी कई मुद्दों को स्पष्ट करने में मदद मिली।
दंगाप्रभावित प्रांत में मार्शल लॉ लागू है और कफ्र्यू लगा हुआ है। वहां किसी को भी
जाने की इजाजत नही है। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्रसंघ के प्रतिनिधि को भी प्रभावित
इलाके से बेंरग वापस कर दिया गया था। इस स्थिति में मेरे पास इसके सिवा कोई चारा न
था कि मैं इस मुद्दे पर यांगोन के निवासियों से ही चर्चा करुं। यांगोन में काफी संख्या
में रोहिंग्या मुसलमान निवास करते हैं।
मुझे यह बताया गया कि
यह आरोप सही नहीं है कि कुछ मुसलमानों ने एक बौद्ध लड़की के साथ बलात्कार किया था।
सच तो यह है कि एक मुस्लिम युवक और बौद्ध नवयुवती आपस में प्रेम करते थे। उन्होंने
विवाह कर लिया और स्थानीय निवासियों के गुस्से से बचने के लिए अपने घर छोड़ कर भाग
गये। दो मुसलमान लड़कों ने इस युगल के विवाह और उसके बाद उनके वहां से भागने में मदद
की। ठीक ऐसा ही कुछ जबलपुर में सन 1961 में हुआ था। एक मुसलमान लड़के और हिन्दू लड़की
ने विवाह करने का निश्चय किया परन्तु अफवाह यह फैला दी गई कि लड़के ने लड़की के साथ
जबरदस्ती की है। इसके बाद भड़के दंगों में 100 से अधिक लोग मारे गये और करोड़ो की संपत्ति
स्वाहा हो गई।
यही कुछ राखियान प्रांत
में भी हुआ परन्तु यह दंगो की असली वजह नहीं थी। दंगो की असली वजह थी रोहिंग्या मुसलमानों
की नागरिकता का मसला। मैं इस मुद्दे पर आगे प्रकाश डालूंगा। बहरहाल, शादी
करने वाला लड़का और उसकी मदद करने वाले दोनों लड़के पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिए गये।
जिस लड़के ने शादी की थी, वह पुलिस हिरासत में मर गया और कई रोहिंग्या
मुसलमानों का यह आरोप है कि उसे शारीरिक यंत्रणा देकर मारा गया।
इससे भी अधिक दुःखद और
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि जिन दो लड़कों ने विवाह करने में अपने साथी की मदद की थी उन्हे
मृत्युदंड दिया गया है और जल्दी ही उन्हे फांसी दे दी जायेगी। यह केवल सैनिक तानाशाही
में ही हो सकता है, किसी भी ऐसे देश मे नहीं, जहां कानून का राज है। किसी व्यक्ति के मामले की सुनवाई चंद दिनों में निपटा
कर उसे मृत्युदंड दे देना कैसे न्यायपूर्ण हो सकता है। किसी भी व्यक्ति को मृत्युदंड
देने से पहले की न्यायिक कार्यवाही महीनों और कबजब सालों तक चलती है। इस घटना से यह
साफ है कि सैनिक तानाशाहों को मानवाधिकारों से कोई मतलब नहीं रहता।
बर्मा के मुसलमानो के
लिए अभी सबसे जरूरी है इन दोनों लड़कों की जान बचाना। समुदाय का नेतृत्व इस सिलसिले
में गहन विचारविमर्श कर रहा है। मैंने उन्हें सलाह दी कि वे अच्छे वकील की सेवाएं लें
और ऊंची अदालतों में अपील करें। मैने उनसे यह भी कहा कि एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्थाओं
से भी इस मुद्दे पर अभियान चलाने का अनुरोध किया जा सकता है।
दूसरा महत्वपूर्ण मसला
है दंगा पीड़ितों को राहत पहुंचाने का। सरकार किसी को भी दंगा पीड़ित तक सीधे राहत
पहुंचाने की इजाजत नही दे रही है। सरकार की यह शर्त है कि राहत सामग्री एक सरकारी संस्था
को सौंप दी जाए जो कि उसे प्रभावित लोगों तक पहुंचाएगी। मुसलमानों का कहना है कि उन्हें
यह भरोसा नही है कि सरकारी एजेंसी को सौंपी गई राहत सामग्री असली पीड़ितों को मिलेगी।
कुल मिलाकर, रोहिंग्या मुसलमान परेशानियां भोग रहे हैं और उन्हें राहत की तुरंत
आवश्यकता है। परन्तु स्वयंसेवी संस्थाओं को उन तक राहत पहुंचाने की इजाजत नहीं दी जा
रही है।
आराकान (राखियान) प्रांत
में रहने वाले रोहिंग्या मुसलमान बाहर से आकर यहां बसे हैं ठीक उसी तरह जैसे बर्मा
के अन्य इलाकों, विशेषकर रंगून को प्रवासी मुसलमानों ने अपना घर बना लिया है। एक
समय अराकान में मुसलमानों का राज था और इसलिए भी वहां बड़ी संख्या में मुसलमान आकर
बस गये। परन्तु म्यानामार की वर्तमान सैनिक सरकार का कहना है कि उनमे से अधिकांश पिछले
कुछ वर्षों में ही वहां आकर बसे हैं। सरकार उन्हें नागरिक नहीं मानती। दूसरी ओर,
रोहिंग्या कहते हैं कि वे पिछले सौ सालों से भी अधिक समय से अराकान में
रह रहे हैं।
यह कुछकुछ हमारे देश
की असम और बांग्लादेश की समस्या की तरह है। ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन के नेताओं का
आरोप था कि बांग्लादेशी मुसलमान बड़ी संख्या मे असम में बस रहे हैं और जल्दी ही वे
वहां के बहुसंख्यक समुदाय बन जाएंगे। इसी प्रचार के चलते नेल्ली दंगे हुए जिनमें 4,000 बंगाली
मुसलमान मारे गये। बंगाली मुसलमानों का भी यह कहना है कि वे घुसपैठिए नहीं हैं वरन
पिछली सदी के तीसरे दशक के आसपास असम में आकर बसे थे और यह भी कि उनकी संतानें कई पीढ़ियों
से असमिया स्कूलों में पढ़ रहीं हैं।
म्यानामार की सैनिक सरकार, रोहिंग्या
मुसलमानों को नागरिक का दर्जा देने को तैयार नही है। इन लोगों का कहना है कि सन
1982 तक कोई समस्या नहीं थी और वे हर चुनाव में अपना मत देते थे। केंद्रीय सरकार में
अराकान प्रांत से पांच मंत्री हुआ करते थे। इनमें से कई मुसलमान सऊदी अरब व अन्य देशों
में काम कर रहे हैं परन्तु उनके पास बर्मा का पासपोर्ट नहीं है।
वे अवैध रूप से सीमा
पार कर पड़ोसी बांग्लादेश मे घुस जाते हैं और वहां से अवैध पासपोर्ट बनवाकर खाड़ी के
देशों मे काम करने चले जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि सऊदी अरब में वर्क परमिट पर कम
से कम पांच लाख रोहिंग्या मुसलमान काम कर रहे हैं। यांगोन मे रहने वाले कई मुसलमानों
के पास भी नागरिकता संबंधी दस्तावेज नहीं हैं। उन्हें पहचानपत्र तो दिये गये हैं परन्तु
पासपोर्ट नही दिया जाता है। यह भी बर्मा में बड़े विवाद का एक कारण है।
हिंसा की जड़ में ये
सब कारक थे। एक मुस्लिम लड़के और बौद्ध लड़की के भाग जाने की घटना तो मात्र वह चिंगारी
थी जिसने पहले से सुलग रही आग को भड़का दिया। स्थानीय बौद्ध, रोहिंग्या
मुसलमानों को जरा भी पसंद नही करते। उन्हें वे उसी रूप में देखते हैं जिसमें एएएसयू
तथाकथित बांग्लादेशी मुसलमानों को देखती है। परन्तु भारत और म्यानामार में एक बहुत
महत्वपूर्ण अंतर यह है कि भारत एक प्रजातंत्र है और म्यानामार, सैनिक तानाशाही। भारत में समस्याओं का हल प्रजातांत्रिक तरीकों से निकाला जा
सकता है। इंदिरा-जी ने ऐसी कोशिश की थी परन्तु उससे न तो बंगाली मुसलमान संतुष्ट हुए
और न ही असम के निवासी। म्यानामार में तो प्रजातंत्र ही नही है। और इसलिए आंग सांग
सू की ने कहा है कि इस समस्या को तब तक नही सुलझाया जा सकता जब तक कि बर्मा में प्रजातांत्रिक
शासन व्यवस्था की स्थापना नही हो जाती और नागरिकता संबंधी अधिकारों का निर्धारण संवैधानिक
प्रक्रिया से नहीं होने लगता। अभी तो बर्मा में संविधान ही नहीं है इसलिए ऐसा लगता
है कि इस समस्या का जल्द ही कोई हल निकलने वाला नही है।
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