फिलिस्तीन के साथ भूमंडलीय
माध्यमों का रिश्ता बेहद जटिल एवं शत्रुतापूर्ण रहा है। कुछ महत्वपूर्ण तथ्य हैं जिन
पर ध्यान देने से शायद बात ज्यादा सफ़ाई से समझ में आ सकती है।ये तथ्य इजरायली माध्यम
शोर्धकत्ताओं ने नबम्वर 2000 में प्रकाशित किए थे।
शोधकर्त्ताओं ने इजरायल-फिलिस्तीन
संघर्ष की खबर भेजने वाले संवाददाताओं का अध्ययन करने के बाद बताया कि इजरायल में
300 माध्यम संगठनों के प्रतिनिधि इस संघर्ष की खबर देने के लिए नियुक्त किए गए हैं।
इतनी बड़ी संख्या में संवाददाता किसी मध्य-पूर्व में अन्य जगह नियुक्त नहीं हैं।
मिस्र में 120 विदेशी
संवाददाता हैं। इनमें से दो-तिहाई पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका से आते हैं। इनमें
ज्यादातर संवाददाता वैस्ट बैंक और गाजा पट्टी से अंग्रेजी में खबर देते हैं। चूंकि
खबर देने वाले संवादाता इजरायल में रहकर खबर देते हैं यही वजह है कि इनकी खबरें इजरायली
दृष्टिकोण से भरी होती हैं।इनमें अधिकांश संवाददाता यहूदी हैं। ये वर्षों से इजरायल
में रह रहे हैं।
औसतन प्रत्येक संवाददाता
10 वर्षों से इजरायल में रह रहा है। अनेक की इजरायली बीबियां हैं। अनेक स्थायी तौर
पर ये काम कर रहे हैं।चूंकि इन संवाददाताओं की मानसिकता पश्चिमी है अत: इन्हें इजरायल
से अपने को सहज में जोड़ने में परेशानी नहीं होती। 91प्रतिशत संवाददाताओं का मानना
है कि उनकी इजरायल के बारे में 'अच्छी' (गुड) समझ है।
इसके विपरीत 41 प्रतिशत
का मानना है कि अरब देशों के बारे में उनकी 'अच्छी' (गुड)
समझ है। 35 प्रतिशत का मानना है कि उनकी 'मीडियम' समझ है।ये जूडिज्म के बारे में ज्यादा जानते हैं, 57
प्रतिशत ने कहा कि वे जूडीज्म के बारे में 'अच्छा' जानते हैं।जबकि मात्र 10 फीसदी ने कहा कि वे इस्लाम के बारे में 'अच्छा' जानते हैं।
ये संवाददाता अरबी की
तुलना में हिब्रू अच्छी जानते हैं: 54 फीसदी को हिब्रू की अच्छी जानकारी है जबकि
20 फीसदी को काम लायक ज्ञान है। इसके विपरीत मात्र 6 प्रतिशत को अरबी का अच्छा ज्ञान
है। मात्र 42 फीसदी संवाददाताओं को अरबी थोड़ा सा ज्ञान है।
सबसे महत्वपूर्ण बात
यह है कि अंग्रेजी समाचार एजेन्सियों के लिए चंद इजरायली संवाददाता लिखते हैं। फिलिस्तीन
के बारे में छठे-छमाहे खबर दी जाती है। फिलिस्तीन के बारे में उनके इलाकों में गए वगैर
खबर देदी जाती है। सबसे बुरी बात यह कि इस इलाके में होने वाली घटना के बारे फिलिस्तीनियों
की राय जानने की कोशिश तक नहीं की जाती। ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि क्या फिलिस्तीन-इजरायल
संघर्ष की वस्तुगत प्रस्तुति संभव है।
भूमंडलीय माध्यम ज्यों
ही आतंकवाद को इस्लामिक फंडामेंटलिज्म से जोड़कर बात करते हैं तो जाने-अनजाने इसके
दुष्प्रभावों को दुनियाभर के मुसलमानों को झेलना पड़ता है। आतंकवाद चाहे वह किसी भी
रुप में व्यक्त हो मूलत: राजनीतिक केटेगरी है। उसे धर्म से जोड़ना ठीक नहीं है।
जब भी कहीं पर आतंकवादी
हमला होता है तो तत्काल मुसलमानों से पूछा जाता है कि आपकी क्या राय है? प्रश्न
उठता है क्या माध्यम भी राय लेते समय धार्मिक अस्मिता का ख्याल करता है? आमतौर पर भूमंडलीय माध्यम धार्मिक अस्मिता का ख्याल रखते हैं। इसके लिए वे
स्टीरियोटाईप प्रस्तुतियों पर जोर देते हैं।स्टीरियोटाईय प्रस्तुतियों के माध्यम से
उसकी वैचारिक प्रकृति को छिपाया जाता है।
इस तरह की प्रस्तुतियों
में मुख्य जोर इस बात पर रहता है कि वह किसका एजेण्ट है? जिसका
एजेण्ट है उसने क्या दिया और क्या कहा? ओसामा बिन लादेन के बारे
में विभिन्न माध्यमों में जो जानकारियां पस्तुत की गयी हैं उनमें मूलत: इन्हीं बातों
का विवरण है। इन पस्तुतियों से उसकी वैचारिक प्रकृति गायब है।
प्रसिध्द माध्यम विशेषज्ञ
एम.सी.वासीउनी के अनुसार स्टीरियोटाईप इमेज अंतत: दर्शक और आतंकवादी के बीच सहिष्णुभाव
पैदा करती है। इस तरह की प्रस्तुतियों का समाज में व्यापक प्रभाव पड़ता है। पहला, आतंक
हिंसा की गतिविधियो को मिलने वाले महत्व से अन्य को वैसी ही कार्रवाई करने के लिए प्रेरित
करती है।
दूसरा, ज्यादा
माध्यम कवरेज से यह संभव है कि राज्य के उत्पीड़न में इजाफा हो। यही स्थिति आतंकवादी
पैदा करना चाहते हैं। इससे उन्हें अपने लक्ष्य के विस्तार में मदद मिलती है। इस तरह
वे राज्य के उत्पीड़न को आमंत्रित करते हैं। जिसका आम जनता के ऊपर बुरा असर होता है।
तीसरा, आतंकवाद
का नियमित या विस्तृत कवरेज आम जनता के अंदर भावशून्य स्थिति पैदा करता है। लेकिन कुछ
माध्यम विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि माध्यम कवरेज 'सेफ्टी वाल्ब'
की भूमिका अदा करता है।
माध्यम कवरेज से पैदा
होने वाली भावशून्यता से आम जनता में सहन करने की क्षमता बढ़ जाती है।वह आतंक और हिंसा
को सच्चाई के रुप में देखने लगती है। नैतिक और राजनीतिक तौर पर उसके अन्दर प्रतिरोध
का भाव खत्म होने लगता है। सामाजिक तौर पर भावशून्यता की स्थिति पैदा हो जाती है। यह
वस्तुत: हिंसा की प्रकृति का विस्तार ही है। भावशून्यता की स्थिति पैदा करने में एक
और तत्व मदद करता है वह है आतंकवादी को आतंकवादी की बजाय किसी और नाम से पुकारना।
मसलन् ओसामा बिन लादेन
को आतंकवादी न कहकर 'जेहादी' ,'फ्रीडम फाइटर','तालिबान' या इसी तरह का कोई और नाम से जब पुकारा जाता
है तो हम उसको जनता से जोड़ने और आतंकवादी गतिविधियों को वैधता प्रदान करने का काम
करते हैं। इसी तरह यदि आतंकवादी को सामाजिक नियंत्रण से परे रुपायित किया जाये तब भी
भावशून्य स्थिति का निर्माण होता है।
आतंकवादी गतिविधियों
को अमूर्त या निर्वैयक्तिक रुप में प्रस्तुत करने से भी भावशून्य स्थिति का निर्माण
होता है। आतंकवादी कार्रवाई को सिर्फ 'नुकसानदेह' घटना के रुप में प्रस्तुत करने से भी भावशून्य स्थिति का निर्माण होता है।
भावशून्य या संवेदनहीन हो जाने के कारण हिंसा का स्तर बढ़ जाता है, आतंकवादी प्रभाव में वृध्दि हो जाती है, पहले से ज्यादा
लोग शिरकत करने लगते हैं।
आतंकवादी हिंसा का एक
सिरा हिंसाचार से जुड़ा है तो दूसरा सिरा माध्यमों में प्रस्तुत हिंसा एवं आतंक के
कार्यक्रमों से जुड़ा है। आतंकवाद पर नियंत्रण हासिल करने के लिए जरुरी है कि जनमाध्यमों
में धर्म, हिंसा
और आतंक के कार्यक्रमों पर अंकुश लगाना जरुरी है वहीं दूसरी ओर आतंकवाद के वैचारिक
स्रोत पर भी पाबंदी लगाने के बारे में विचार किया जाना चाहिए। वे तमाम कार्यक्रम जो
पुरानी मान्यताओं, आचार-व्यवहार, संस्कारों
आदि को धारावाहिकों के जरिए प्रसारित करते हैं उनसे आतंकवाद और तत्ववाद को वैचारिक
मदद मिलती है। जब तक इस क्षेत्र में प्रभावी कदम नहीं उठाए जाते तब तक आतंकवाद या तत्ववाद
को वैचारिक तौर पर परास्त करना असंभव है। संस्कृति-उद्योग के विकास की गति देखते हुए
और बहुराष्ट्रीय पूंजी के हितों को देखते हुए यह कार्य असंभव लग रहा है। फिर भी इस
दिशा में प्रयास करना चाहिए।
No comments:
Post a Comment