Sunday, September 02, 2012

सफ़र ज़िंदगी का - अज़ीज़ बर्नी


एक बड़े तूफ़ान से गुज़र रहा हूँ, मगर ज़िंदा हूँ और फिर से ज़िंदगी का सफ़र शुरू करना चाहता हूँ, कैसे, कहां से, किस तरह मालूम नहीं, लेकिन अब कुछ तो करना ही होगा। बर्मा, आसाम, कर्नाटक, महाराष्ट्रा, उत्तरप्रदेश के हालात सामने हैं और मैं ज़ंजीरों में जकड़े एक क़ैदी की तरह ख़ामोश तमाशाई, ये घुटन मौत के अंधेरे से ज़्यादा ख़ौफ़नाक है, हर सिम्त अंधेरा ही अंधेरा है, उजाले की तलाश बेसूद, अपने लिए जीना बस एक ख़्वाब की सी बात, क़ौम के मसाइल को नज़रअंदाज करना नामुमकिन, आप सब साथ फिर भी तन्हा, दोनों हक़ीक़त मेरे सामने, आप कहाँ हो, किस तरह मेरे साथ खड़े हो सकते हो, कुछ नहीं मालूम, कभी मैं पुकारता हूँ, किसी तरफ़ से आवाज़ें आती हैं, फिर लंबी ख़ामोशी, कभी मेरी तरफ़ से, कभी आप की तरफ़ से ये सिलसिला टूटता ही नहीं, कोई एक प्लेटफार्म, कोई रोड मैप हो जहां मिलें, कुछ आगे बढ़ें, एन.जी.ओ की शक्ल में एक प्लेटफार्म क़ायम करने का इरादा था और रजिस्ट्रेशन से पहले नाम सामने रखना मुश्किल है मगर, आप सब इस के मेम्बर होंगे तो मुझे ख़ुशी होगी। 

आप लोग मेरे ई-मेल आई.डी. azizburney1@gmail.com पर अपना प्रोफ़ाइल या कुछ तार्रुफ़ भेजें तो रोड मैप बनाने में आसानी हो। ये एन.जी.ओ. एजुकेशन के लिए काम करे, एक बड़ा मीडिया हाऊस क़ायम करे, सोशल जस्टिस की ज़िम्मेदारी क़बूल करे, मुसलमानों को दीगर क़ौमों की तरह एक सियासी ताक़त बना कर खड़ा करे, कश्मीर के दामन से दहशतगर्दी का दाग़ मिटाए, हुकूमतों को इस मसले के हल के लिए मजबूर करे, आलमी सतह पर इस्लाम और मुसलमानों के ख़िलाफ़ जारी साज़िशों की दिफ़ा का रास्ता निकाले, ये सब ज़हन में है और ये सब मुम्किन है, जिन्हें यक़ीन नहीं आता वो रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा में मेरे ज़रिए चलाई गई तहरीक और उसके नताइज को सामने रखें, यक़ीन आ जाएगा, वो सब भी नामुमकिन नज़र आता था जो इस एक अख़बार के ज़रिए हुआ, ग़ैरों से लेकर अपनों तक हैरान परेशान और हसद की आग में जल रहे थे कि अगर इस तहरीक को ना रोका गया, तो ये एक तूफ़ान बरपा कर देगी, वो सब अपने भी, पराए भी, सब एक जुट हुए, उन के ज़ाती मफ़ादात वाबस्ता थे, वो अपने मक़सद में कामयाब हुए, आप सब की तादाद बहुत ज़्यादा थी और है मगर आप सब एक जुट नहीं हैं, इसलिए किसी भी तहरीक को कामयाब नहीं बना सके, कोई प्लेटफार्म नहीं था मेरा, आप सब से राबेता होता गया, सोचा क़ुदरत को क़ौम के लिए मुझसे जो ख़िदमात लेनी थी ले चुकी, चलो अब ख़ामोशी के साथ मौत का इंतेज़ार करते हैं, अगर हो सके तो कुछ अपने लिए जीने की कोशिश करते हैं, बस यही सोच कर गुमनामी के अंधेरों में चला गया, कभी आप पुकारते तो फेसबुक पर ट्वीटर पर चला आता हूँ, आप से गुफ़्तगु करने के लिए, आप दिलचस्पी लेते हैं अच्छा लगता है, लेकिन कुछ करने के लिए इस दायरे के बाहर आना होगा, मेरी क़ौम मसाजिद और मदारिस के ज़रिए तहरीक चलाने का तजुर्बा रखती है, फेसबुक के ज़रिए नहीं, मैंने बारहा आप से दरख़्वास्त की कि कोई मेरे इन नज़रियात को किसी भी तरह मसाजिद और मदारिस तक पहुंचाएं, क्या आप ऐसा कर पाए, मेरी ख़्वाहिश थी और है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक मस्जिद में नमाज़ पढ़ता चला जाऊं, अल्लाह से दुआ करूं, नमाज़ियों से गुफ़्तुगू करूं, मैंने इस लंबे सफ़र के लिए गाड़ी भी तैय्यार की जो बेमसरफ़ खड़ी है, मैं सियासतदां नहीं हूँ, मेरे पास कोई तंज़ीम नहीं है जो रास्ते भर का इंतेज़ाम करे, मुल्क में ऐसी तंज़ीमें हैं जो ऐसा कर सकती थीं, शायद मेरी आवाज़ उन तक नहीं पहुंची, उन्होंने मुनासिब नहीं समझा या कोई मसलेहत रही, ख़ुदा जाने आप लोग तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक हर जगह हैं, आप ही अगर ये बता देते कि रास्ते के किस शहर की किस मस्जिद या मदरसा में आपसे मुलाक़ात होगी और इस मौज़ू पर गुफ़्तुगू होगी, ये इंतिज़ाम कर लिया है तो मैं सफ़र शुरू कर देता लेकिन ऐसा भी नहीं हो सका, अब बताएं में क्या करूं, ना अपने लिए जी पा रहा हूँ ना क़ौम के लिए और मौत आती नहीं। मेरे पास क़ुव्वते इरादा है, हौसला है, कुछ करने का जज़्बा है, क़ौमी मसाइल की समझ है, हुकूमतों को कैसे मजबूर किया जाय ये तजुर्बा है। अल्लाह ने लिखने और बोलने की सलाहियत भी दी है, मगर ऐसा कोई प्लेटफार्म या ज़रिया नहीं है जहां से इस सब का इस्तेमाल कर कोई तहरीक चलाई जा सके, लिहाज़ा आप तय करें कि मुझे क्या करना है, या तो आप साथ खड़े हों इस जज़्बे के साथ की मुल़्क की तस्वीर और क़ौम की तक़दीर बदलना है...........

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