पिछले
कुछ दशकों में सामाजिक-राजनैतिक क्षेत्र में धार्मिक पहचान, एक अत्यंत महत्वपूर्ण
कारक बनकर उभरी है। साम्प्रदायिक और कट्टरतावादी राजनीति के उदय से ‘हम कौन
हैं‘-इस प्रश्न के कई नितांत घातक व स्पष्ट तौर पर निहित राजनैतिक स्वार्थों को
साधने वाले उत्तर, जनता के मन में बैठा दिए गए हैं और इनसे
समाज विभाजित हुआ है। हाल में (सितम्बर, 2012) आर.एस.एस
सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि ‘‘जब हम ‘हिन्दू‘ शब्द का उपयोग करते हैं तो हमारा
अर्थ होता है संपूर्ण भारतीय समाज, जिसमें हिन्दू, मुसलमान और ईसाई सभी शामिल हैं। ‘हिन्दू‘ शब्द हमारी पहचान और राष्ट्रीयता
है।‘‘ क्या यह मान्यता सभी भारतीयों को स्वीकार्य होगी? इस
मान्यता के दो पहलू हैं-पहला धार्मिक और दूसरा राजनैतिक-राष्ट्रीय।
क्या हम
सब भारतीय हिन्दू हैं, जैसा कि भागवत साहब ने फरमाया है। यह सही है कि हिन्दू शब्द का इस्तेमाल
आठवीं सदी में शुरू हुआ जब पश्चिम (ईरान-ईराक से) दिशा से आने वालों ने इस शब्द को
गढ़ा। वे सिन्धु नदी के पूर्व में रहने वाले लोगों को सिन्धू कहने लगे। चूंकि उनकी
भाषा में ‘ह‘ अक्सर ‘स‘ के स्थान पर प्रयुक्त होता था इसलिए सिन्धू शब्द “हिन्दू”
में बदल गया। अतः शुरूआती दौर में हिन्दू शब्द का भौगोलिक अर्थ था। बाद में अनेक
धार्मिक परंपराओं जिनमें ब्राहम्णवाद, नाथ, तंत्र, सिद्ध व भक्ति शामिल हैं, के मानने वाले हिन्दू कहलाने लगे और हिन्दू शब्द इन विभिन्न धार्मिक
परंपराओं के मानने वालों के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा। आज भी दुनिया के कुछ
हिस्सों में हिन्दू शब्द को भौगोलिक संदर्भ में लिया जाता है परंतु भारत और विश्व
के अधिकांश देशों में हिन्दू अब एक धर्म विशेष का नाम बन गया है।
हिन्दू
वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत अछूतों के साथ किए जाने वाले पशुवत व्यवहार से दुःखी होकर
अम्बेडकर ने कहा था कि ‘‘मैं हिन्दू पैदा हुआ था क्योंकि वह मेरे हाथ में नहीं
था, परंतु मैं हिन्दू के रूप में नहीं मरूंगा‘‘। उन्होंने हिन्दू धर्म को
त्यागकर बौद्ध धर्म अपना लिया। जैसे-जैसे देश में भारतीय राष्ट्रीयता की भावना
जागृत होना शुरू हुई, साम्प्रदायिक राजनीति ने अपने पंख फैलाने शुरू कर दिए। सामंतवादी वर्ग और
राजा-महाराजा एकजुट हो गए और उन्होंने भारतीय राष्ट्रीयता के प्रति अपने विरोध को
धार्मिक रंग देने की किशिश शुरू कर दी। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की जगह इन सामंती
तत्वों और राजा-महाराजाओं ने मुस्लिम राष्ट्रीयता और हिन्दू राष्ट्रीयता की बातें
करना प्रारंभ कर दिया। सन् 1888 में गठित युनाईटेड इंडिया पेट्रियाटिक एसोसिएशन से
ही धार्मिक राष्ट्रीयता में आस्था रखने वाले विभिन्न संगठन जन्मे। इस संस्था के
संस्थापकों में ढाका के नवाब और कशी के राजा प्रमुख थे। बाद में कुछ मध्यमवर्गीय,
पढे़ लिखे लोग भी इस संस्था से जुड़ गए। युनाईटेड इंडिया
पेट्रियाटिक एसोसिएशन ही वह संगठन था जिसने मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा को जन्म
दिया।
चूंकि
इस्लाम, पैगम्बर पर आधारित धर्म
था इसलिए उसकी पुनर्व्याख्या की आवश्यकता नहीं थी। परंतु हिन्दू धर्म, विभिन्न धार्मिक परंपराओं का मिलाजुला स्वरूप था इसलिए उसे हिन्दू धार्मिक
राष्ट्रवाद का आधार बनाने के लिए नए सिरे से व्याख्यित किए जाने की आवश्यकता थी।
सावरकर ने हिन्दू धर्म को परिभाषित करते हुए कहा कि जिन लोगों की पुण्यभू और
पितृभू भारतवर्ष में है, वे सब हिन्दू हैं। यह हिन्दू की राजनैतिक परिभाषा थी क्योंकि सावरकर,
हिन्दू राष्ट्रवाद के झंडाबरदार थे और वे इस राष्ट्रवाद से
मुसलमानों और ईसाईयों को अलग रखना चाहते थे। सावरकर की हिन्दुओं की इस परिभाषा में
जैन, बौद्ध और सिक्ख भी शामिल थे जिन्हें हिन्दू धर्म के
विभिन्न पंथ बता दिया गया। इन धर्मों के मानने वालों को यह स्वीकार्य नहीं था। वे
अपने-अपने धर्मों की अलग पहचान कायम रखने के इच्छुक थे और हिन्दू धर्म का हिस्सा
बनना नहीं चाहते थे।
अतः यह
कहना, जैसा कि भागवत कह रहे हैं,
कि सभी बौद्ध, जैन, सिक्ख,
भारतीय मुसलमान और भारतीय ईसाई हिन्दू हैं, सत्य
से परे है। यह एक तरह से धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हिन्दू पहचान और हिन्दू
कर्मकाण्ड लादने की कोशिश है। कुछ इसी तरह की बात लगभग दो दशक पहले तत्कालीन भाजपा
अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने कही थी। उन्होंने कहा था कि हम सब हिन्दू हैं- मुसलमान
महमदिया हिन्दू हैं, ईसाई क्रिस्ट हिन्दू हैं इत्यादि।
आजादी के
आंदोलन के दौरान राष्ट्रीयता की दो अवधारणाएं सामने आईं। एक थी भारतीय राष्ट्रीयता, जिसकी आधारशिला भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापकों ने रखी थी। यह राष्ट्रीयता दुनिया के सबसे बड़े
जनांदोलन-भारतीय स्वतंत्रता संग्राम- की नींव बनी। राष्ट्रीयता की इस अवधारणा में
धर्म व्यक्तिगत मसला था जबकि राष्ट्रीयता का संबंध एक विशेष भौगोलिक सीमा के अंदर
रहने वाले लोगों से था। अधिकांश भारतीयों ने राष्ट्रीयता की इसी परिभाषा को
स्वीकार किया और स्वाधीनता संग्राम में हिस्सेदारी की। स्वाधीनता संग्राम का उदेश्य
ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति तो था ही उसने जातिगत और लैंगिक भेदभाव के खिलाफ
भी आवाज उठाई और स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व के मूल्यों
में आस्था प्रकट की। यही मूल्य आगे चलकर हमारे संविधान का हिस्सा बने। दूसरी
राष्ट्रीयता थी धार्मिक राष्ट्रीयता, जिसे जमींदार और सामंती
वर्ग ने पोषित किया और आगे चलकर जो दो समानांतर राष्ट्रीयताओं में बंट गई। इन
दोनों समानांतर राष्ट्रीयताओं के लगभग एक से सिद्धांत थे। ये थीं हिन्दू
राष्ट्रीयता (हिन्दू महासभा व आरएसएस) और मुस्लिम राष्ट्रीयता (मुस्लिम लीग)। ये
दोनों राष्ट्रीयताएं न केवल आजादी के आंदोलन से दूर रहीं बल्कि उन्होंने इस आंदोलन
को कमजोर करने की भरसक कोशिश की। वे “ “हमारी महान परंपराएं“ और “हमारा महान धर्म“
के नाम पर जातिगत और लैंगिक भेदभाव को बनाए रखने की कोशिश करती रहीं। ये दोनों
धार्मिक राष्ट्रीयताएं अपने इतिहास को पुरातनकाल से जोड़ती रहीं। मुस्लिम लीग का
कहना था कि मोहम्मद बिन कासिम के सिंध में अपना राज्य स्थापित करने के समय से ही
मुस्लिम अलग राष्ट्र हैं। जबकि हिन्दू राष्ट्रवादी यह दावा करते थे कि हिन्दू,
अनादिकाल से एक राष्ट्र हैं।
राष्ट्रीयता
को प्राचीन इतिहास से जोड़ना, तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। राष्ट्रीयता की अवधारणा का विकास ही पिछली
दो-तीन सदियों में हुआ है जब राजाओं के साम्राज्य बिखरने लगे और औद्योगिकरण और
षिक्षा से लोगों की सोच में बदलाव आया। राजसी काल के पहले का समाज एकदम अलग था और
उसे किसी भी स्थिति में राष्ट्र नहीं कहा जा सकता। राष्ट्रीयता की ये दोनों
धार्मिक अवधारणाएं अपने-अपने धर्मों के राजाओं का महिमामंडन करती हैं और अन्य
धर्मों के राजाओं का दानवीकरण। वे यह भूल जाती हैं कि संपूर्ण राजतंत्रीय व्यवस्था
ही शोषण व सामाजिक ऊँच-नीच पर आधारित है।
स्वाधीनता
संग्राम के समय से ही दोनों धार्मिक राष्ट्रीयताएं इतर धर्मों के लोगों को दूसरे
दर्जे का नागरिक मानती थीं। पाकिस्तान में मुस्लिम राष्ट्रवाद के नाम पर धार्मिक
अल्पसंख्यकों को सताया जा रहा है और भारत में भी हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद के
परवान चढ़ने के साथ ही, अल्पसंख्यकों के बुरे दिन आ गए लगते हैं। हिन्दुत्व और हिन्दू धर्म
पर्यायवाची नहीं हैं। हिन्दुत्व को मोटे तौर पर हम राजनैतिक इस्लाम का हिन्दू
संस्करण मान सकते हैं। हिन्दुत्व एक तरह का ‘राजनैतिक हिन्दू धर्म‘ है। आर.एस.एस-हिन्दुत्व
के सबसे प्रमुख विचारक एम.एस.गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘व्ही आर अवर नेशनहुड डिफांइड‘
में कहा है कि ईसाईयों और मुसलमानों को हिन्दुओं के अधीन रहना होगा वरना उन्हें
कोई नागरिक अधिकार नहीं मिलेंगे। दुर्भाग्यवश, भारत में
साम्प्रदायिक हिंसा में तेजी से हुई बढ़ोत्तरी के साथ गोलवलकर की यह इच्छा कुछ हद
तक पूरी होती दिखती है।
यह कहना
कि हम सब हिन्दू हैं, धार्मिक अल्पसंख्यकों को दबाकर रखने का राजनैतिक षड़यंत्र है और ऐसा कहने
वाले जातिगत और लैंगिक ऊँचनीच के रखवाले हैं। ऊँचनीच और असमानता, धर्म-आधारित सभी राजनैतिक विचारधाराओं का आवष्यक अंग होती है। हिन्दू धर्म
को सभी भारतीयों की राष्ट्रीयता और पहचान से जोड़ना, भारतीय
राष्ट्रवाद, स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों और भारतीय संविधान
के सिद्धांतों के खिलाफ है। भागवत तो केवल आरएसएस के उस राजनैतिक एजेन्डे को स्वर
दे रहे हैं जिसका उदेश्य प्रजातंत्र का गला घोंटना और पीछे के रास्ते से गोलवलकर
के सपने को साकार करने की कोशिश करना है। यह कहना कि सभी भारतीय हिन्दू हैं तो शुरूआत
भर है। इसके बाद अल्पसंख्यकों से अपेक्षा की जावेगी कि वे हिन्दू कर्मकाण्ड अपनाएं,
हिन्दू धर्मग्रंथों को पवित्र मानें और हिन्दू देवी-देवताओं की
आराधना करें। अतः यह मानना एक भूल होगी कि सभी भारतीय हिन्दू हैं, यह कहकर भागवत किसी उदारता का परिचय दे रहे हैं। वे तो हिन्दू पहचान को
धार्मिक अल्पसंख्यकों पर लादना चाहते हैं। हिन्दू सारे भारतीयों की पहचान न थी,
न है और न हो सकती है। वह केवल हिन्दुओं की धार्मिक पहचान है और
‘हिन्दू‘ कोई राष्ट्रीयता नहीं है। हम सबकी राष्ट्रीयता भारतीय है और हमारी
अलग-अलग धार्मिक पहचानें हैं।
-राम पुनियानी
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