Monday, August 26, 2013

आसाराम बापू और दाभोलकर के बीच


लाख टके का सवाल है। क्या बलात्कार के मामले में आसाराम बापू गिरफ्तार होंगे या हमेशा की तरह आरोपों के दलदल से साफ बच निकलेंगे? एक और प्रश्न है। क्या डॉक्टर नरेंद्र दाभोलकर के कातिल धरे जाएंगे? चौंकिए मत। दाभोलकर और आसाराम के मामलों में असमानता के बावजूद अखंड रिश्ता है। आसाराम संत हैं, लेकिन उन पर कदाचार का आरोप है। दाभोलकर पाखंड के खिलाफ अलख जगाते हुए मारे गए। एक अपराध का शिकार हुआ, तो दूसरे पर गुनाह की तोहमत है। इंसानों के बीच कभी-कभी ऐसे विरोधाभास अनचाहे जुड़ाव रचते हैं। आसाराम से शुरू करता हूं। 15-20 साल पुरानी बात है। आगरा स्थित दफ्तर में कुछ लोग मेरे सामने बैठे थे, सब के सब धनी-मानी और नामी। उनके मुखिया ने बात शुरू की कि ‘राष्ट्रसंत’ आसाराम बापू कुछ महीनों बाद यहां प्रवचन के लिए आने वाले हैं। हम लोग इस आयोजन की समिति से जुड़े हुए हैं। आप और आपके अखबार से सहयोग की अपेक्षा है। धार्मिक हस्तियों के मामले में मैं हमेशा अज्ञानी रहा हूं। पहले कभी ‘बापू’ का नाम नहीं सुना था। अपने अज्ञान को छिपाए बिना मैंने पूछ लिया कि ये कौन साहब हैं? कुछ सेकंड के लिए कमरे में सन्नाटा पसर गया। उनमें से एक ने बताया कि बापू गुजरात के ‘महान संत’ हैं। वह जहां जाते हैं, लाखों लोग जुटते हैं। उनके प्रवचन किसी अमृत वर्षा से कम नहीं होते।
उन्हीं लोगों ने यह भी बताया कि बापू के प्रवचन के लिए साउंड सिस्टम, तंबू-कनात, भोजन, जलपान आदि के लिए लोग पहले से ही नियत हैं। हमें सिर्फ उनका भुगतान करना है। पत्रकारीय जिज्ञासा में मैंने उनसे पूछा कि तब तो इस आयोजन पर लाखों खर्च हो जाएंगे? कहां से जुटा रहे हैं आप लोग इतना? जवाब साफ-साफ नहीं मिला, पर वह बैठक एक अबूझ खटास के साथ समाप्त हुई। मैंने यह भी पता लगाने की कोशिश नहीं की कि इंतजामात के बारे में उन लोगों के दावे कितने सही या गलत हैं, अलबत्ता अनजाने में ही आसाराम के आने का इंतजार करने लगा। संयोग से वह कोठी मीना बाजार के मैदान में प्रवचन करने वाले थे। मैं जिस मकान में रहता था, उसकी छत और बालकनी से वहां का दृश्य साफ दिखता है। एक दिन मैंने भी मैदान का जायजा लिया और विस्मित रह गया। सैकड़ों बड़े-बूढ़े, औरतें और बच्चे वहां मौजूद थे। बापू नियत समय पर प्रवचन करते थे। लाउडस्पीकर की मेहरबानी से एक दिन सुनने की कोशिश की। नि:संदेह, उन्हें लोगों को जोड़ने और बांधने में महारत हासिल थी। उस दिन यह भी देखा कि बापू मर्सिडीज में चलते हैं और कार से ही दर्शनार्थियों को हाथ हिलाकर आशीर्वाद भी देते रहते हैं।
उनके प्रति लोगों की लालसा और जिज्ञासा स्पष्ट थी। कुछ ही साल पहले अमेरिका के ओरेगॉन में ओशो यानी रजनीश संगीन आरोपों में गिरफ्तार हुए थे। तब उनके हिमायतियों ने कहा था कि संसार की सबसे ताकतवर सरकार जबलपुर के पास जन्मे इस शख्स की ओजस्वी वाणी से घबरा गई। किसी ने यह भी उड़ाने का प्रयास किया था कि यह कुछ भयभीत ईसाइयों की साजिश थी। हकीकत जो भी हो, पर यह सच है कि हम जैसे लोग, जिन्होंने रजनीश के विचारों में एक अलग तरह की आब देखी थी, हताश हुए थे। अखबारों में यहां तक छपा था कि आचार्य से ओशो तक का सफर तय कर चुके रजनीश रॉल्स-रॉयस कारों का बेड़ा रखते थे और यह भी कि उन्हें एक निश्चित तापमान में रहना ही पसंद था। एक शख्स, जो अपने विचारों से सादगी की प्रेरणा देता रहा हो, उसके बारे में ऐसी जानकारी हिला देने वाली थी। अब ‘बापू’ सशरीर सामने थे। उन दिनों मन में सवाल उठते थे कि जिस देश में हम ‘धारयति इति धर्म:’ की परंपरा का पालन करते रहे हों, वहां धार्मिक लोगों को इतने तामझाम की जरूरत क्या है? यदि किसी के विचारों में अलख जगाने की शक्ति है, तो उसे प्रचार की क्या आवश्यकता? हम हिन्दुस्तानी मानते आए हैं कि मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाए।
मतलब, सधुक्कड़ी फक्कड़पन का प्रतीक है। जहां रात हुई, वहीं रम लिए और जो मिला, उसी से पेट भर लिया, पर वहां तो आस्था के नाम पर आयोजन का महाकुंभ लगा हुआ था। बरसों बाद जब ‘बापू’ पर हत्या कराने के प्रयास, बच्चों की बलि, जमीन हथियाने जैसे आरोप लगने लगे, तो उनके प्रति मेरे व्याकुल प्रश्नों की सूची कुछ और लंबी हो गई। हमारे यहां साधुओं के परिवार की परंपरा नहीं है, पर उनके पुत्र भी मिलते-जुलते आरोपों के शिकार होते रहे हैं। पता नहीं, कानूनी एजेंसियों ने अपना काम कितनी तन्मयता से किया, पर यह सच है कि उन पर कोई आंच नहीं आई। इसीलिए यह सवाल उठता है कि क्या इस बार उन पर उचित कानूनी कार्रवाई होगी या उनके ऊपर लगे आरोप गलत साबित होंगे? वह और उनके आश्रमवासी तो पीड़ित कन्या पर झूठ बोलने का दोष मढ़ ही रहे हैं। अगर वह ‘बापू’ का नाम किसी साजिश के तहत ले रही है, तो इसके सूत्रधार कौन हैं? पुलिस ने उसकी डॉक्टरी जांच कराई है। क्या उसे भी ‘मैनेज’ किया गया है? उत्तर के लिए इंतजार करना होगा।
ऐसा नहीं है कि ‘बापू’ इन आरोपों के अकेले शिकार हैं। स्वामी नित्यानंद का मामला आपको याद होगा। तमाम महिलाओं से रिश्ते रखने के आरोपी इस तथाकथित संत को तो 52 दिन जेल में रहना पड़ा था। यह बात अलग है कि अब वह बाहर हैं और उनके प्रवचनों का रंग फिर से चोखा होता जा रहा है। 2010 में एक टीवी चैनल ने तमाम प्रवचनकर्ताओं पर स्टिंग ऑपरेशन किया था। उसमें ये बाबा लोग हवाला के जरिये काले धन को सफेद करने का आश्वासन देते दिखाए गए थे। तब भी सवाल उठा था कि ऐसी कलंक कथाएं कब तक चलती रहेंगी? जाहिर है, ऐसे लोगों के पास धन और जन-बल इतना होता है कि वे अव्वल तो कानून के घेरे में नहीं आते और आ भी जाते हैं, तो नित्यानंद की तरह दोबारा अपने स्वार्थ का सरंजाम जुटाने में कामयाब हो जाते हैं। इसके उलट नरेंद्र दाभोलकर जैसे लोग हमेशा अकेले पाए जाते हैं।
धार्मिक अंधविश्वास के खिलाफ अलख जगाने वाला यह जागृत व्यक्ति दशकों से अपना काम मिशन की तरह करने में जुटा था। इसीलिए जिस तरह यह सवाल फिजा में तैर रहा है कि बापू गिरफ्तार होंगे या नहीं, उसी तरह यह भी गौरतलब है कि दाभोलकर के हत्यारे अपने अंजाम तक पहुंचेंगे या नहीं? उनके कातिल यकीनन कुछ ताकतवर लोगों द्वारा संरक्षित हैं। क्या कमाल है? पाप से जूझने वाले अकेले पड़ जाते हैं और पापी ताकतवर होते जाते हैं। पर यकीन जानिए, यह लाचारी का समय नहीं है। डॉक्टर दाभोलकर की हत्या पर इतना हो-हल्ला मचा कि महाराष्ट्र सरकार को अंधविश्वास विरोधी अध्यादेश लाना पड़ा। उम्मीद है कि सरोकार संपन्न लोग उनके कातिलों को कानून की चौखट तक लाने के लिए अपना संघर्ष जारी रखेंगे।
इसके साथ ही एक बात आपको भी तय करनी है। इक्कीसवीं सदी के भारत को डॉक्टर दाभोलकर जैसे लोग चाहिए या शोशेबाजी के जरिये हमारी जेबों से पैसा निकालकर हम ही को धमकाने वाले पाखंडी? भूलिए मत, लोकतंत्र में गेंद कभी-कभी आम आदमी के पाले में भी आती है।

~प्याली में तूफान 

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