Tuesday, July 28, 2015

सब कुछ टू-इन-वन रेडियो जैसा है, मन किया तो हम देशभक्त, मन किया तो आप देशद्रोही: रवीश कुमार



आज सुबह व्हॉट्सऐप, मैसेंजर और ट्विटर पर कुछ लोगों ने एक प्लेट भेजा, जिस पर मेरा भी नाम लिखा है। मेरे अलावा कई और लोगों के नाम लिखे हैं। इस संदर्भ में लिखा गया है कि हम लोग उन लोगों में शामिल हैं, जिन्होंने याकूब मेमन की फांसी की माफी के लिए राष्ट्रपति को लिखा है। अव्वल तो मैंने ऐसी कोई चिट्ठी नहीं लिखी है और लिखी भी होती तो मैं नहीं मानता, यह कोई देशद्रोह है। मगर वे लोग कौन हैं, जो किसी के बारे में देशद्रोही होने की अफवाह फैला देते हैं। ऐसा करते हुए वे कौन सी अदालत, कानून और देश का सम्मान कर रहे होते हैं। क्या अफवाह फैलाना भी देशभक्ति है।

किसी को इन देशभक्तों का भी पता लगाना चाहिए। ये देश के लिए कौन-सा काम करते हैं। इनका नागरिक आचरण क्या है। आम तौर पर ये लोग किसी पार्टी के भ्रष्टाचारों पर पर्दा डालते रहते हैं। ऑनलाइन दुनिया में एक दल के लिए लड़ते रहते हैं। कई दलों के पास अब ऐसी ऑनलाइन सेना हो गई है। इनकी प्रोफाइल दल विशेष की पहचान चिह्नों से सजी होती हैं। किसी में नारे होते हैं तो किसी में नेता तो किसी में धार्मिक प्रतीक। क्या हमारे लोकतंत्र ने इन्हें ठेका दे रखा है कि वे देशद्रोहियों की पहचान करें, उनकी टाइमलाइन पर हमला कर आतंकित करने का प्रयास करें।

सार्वजनिक जीवन में तरह-तरह के सवाल करने से हमारी नागरिकता निखरती है। क्यों ज़रूरी हो कि सारे एक ही तरह से सोचें। क्या कोई अलग सोच रखे तो उसके खिलाफ अफवाह फैलाई जाए और आक्रामक लफ़्ज़ों का इस्तेमाल हो। अब आप पाठकों को इसके खिलाफ बोलना चाहिए। अगर आपको यह सामान्य लगता है तो समस्या आपके साथ भी है और इसके शिकार आप भी होंगे। एक दिन आपके खिलाफ भी व्हॉट्सऐप पर संदेश घूमेगा और ज़हर फैलेगा, क्योंकि इस खेल के नियम वही तय करते हैं, जो किसी दल के समर्थक होते हैं, जिनके पास संसाधन और कुतर्क होते हैं। पत्रकार निखिल वाघले ने ट्वीट भी किया है, "अब इस देश में कोई बात कहनी हो तो लोगों की भीड़ के साथ ही कहनी पड़ेगी, वर्ना दूसरी भीड़ कुचल देगी..." आप सामान्य पाठकों को सोचना चाहिए। आप जब भी कहेंगे, अकेले ही होंगे।

पूरी दुनिया में ऑनलाइन गुंडागर्दी एक खतरनाक प्रवृत्ति के रूप में उभर रही है। ये वे लोग हैं, जो स्कूलों में 'बुली' बनकर आपके मासूम बच्चों को जीवन भर के लिए आतंकित कर देते हैं, मोहल्ले के चौक पर खड़े होकर किसी लड़की के बाहर निकलने की तमाम संभावनाओं को खत्म करते रहते हैं और सामाजिक प्रतिष्ठा को ध्वस्त करने का भय दिखाकर ब्लैकमेल करते हैं। आपने 'मसान' फिल्म में देखा ही होगा कि कैसे वह क्रूर थानेदार फोन से रिकॉर्ड कर देवी और उसके बाप की ज़िन्दगी को खत्म कर देता है। उससे पहले देवी के प्रेमी दोस्त को मौके पर ही मार देता है। यह प्रवृत्ति हत्यारों की है, इसलिए सतर्क रहिए।

बेशक आप किसी भी पार्टी को पसंद करते हों, लेकिन उसके भीतर भी तो सही-गलत को लेकर बहस होती है। चार नेताओं की अलग-अलग लाइनें होती हैं, इसलिए आपको इस प्रवृत्ति का विरोध करना चाहिए। याद रखिएगा, इनका गैंग बढ़ेगा तो एक दिन आप भी फंसेंगे। इसलिए अगर आपकी टाइमलाइन पर आपका कोई भी दोस्त ऐसा कर रहा हो तो उसे चेता दीजिए। उससे नाता तोड़ लीजिए। अपनी पार्टी के नेता को लिखिए कि यह समर्थक रहेगा तो हम आपके समर्थक नहीं रह पाएंगे। क्या आप वैसी पार्टी का समर्थन करना चाहेंगे, जहां इस तरह के ऑनलाइन गुंडे हों। सवाल करना मुखालफत नहीं है। हर दल में ऐसे गुंडे भर गए हैं। इसके कारण ऑनलाइन की दुनिया अब नागरिकों की दुनिया रह ही नहीं जाएगी।

ऑनलाइन गुंडागर्दी सिर्फ फांसी, धर्म या किसी नेता के प्रति भक्ति के संदर्भ में नहीं होती है। फिल्म कलाकार अनुष्का शर्मा ने ट्वीट किया है कि वह ग़ैर-ज़िम्मेदार बातें करने वाले या किसी की प्रतिष्ठा को नुकसान करने वालों को ब्लॉक कर देंगी। मोनिका लेविंस्की का टेड पर दिया गया भाषण भी एक बार उठाकर पढ़ लीजिए। मोनिका लेविंस्की ऑनलाइन गुंडागर्दी के खिलाफ काम कर ही लंदन की एक संस्था से जुड़ गई हैं। उनका प्रण है कि अब वह किसी और को इस गुंडागर्दी का शिकार नहीं होने देंगी। फेसबुक पर पूर्व संपादक शंभुनाथ शुक्ल के पेज पर जाकर देखिए। आए दिन वह ऐसी प्रवृत्ति से परेशान होते हैं और इनसे लड़ने की प्रतिज्ञा करते रहते हैं। कुछ भी खुलकर लिखना मुश्किल हो गया है। अब आपको समझ आ ही गया होगा कि संतुलन और 'is equal to' कुछ और नहीं, बल्कि चुप कराने की तरकीब है। आप बोलेंगे तो हम भी आपके बारे में बोलेंगे। क्या किसी भी नागरिक समाज को यह मंज़ूर होना चाहिए।

इन तत्वों को नज़रअंदाज़ करने की सलाह बिल्कुल ऐसी है कि आप इन गुंडों को स्वीकार कर लीजिए। ध्यान मत दीजिए। सवाल है कि ध्यान क्यों न दें। प्रधानमंत्री के नाम पर भक्ति करने वालों का उत्पात कई लोगों ने झेला है। प्रधानमंत्री को लेकर जब यह सब शुरू हुआ तो वह इस ख़तरे को समझ गए। बाकायदा सार्वजनिक चेतावनी दी, लेकिन बाद में यह भी खुलासा हुआ कि जिन लोगों को बुलाकर यह चेतावनी दी, उनमें से कई लोग खुद ऐसा काम करते हैं। इसीलिए मैंने कहा कि अपने आसपास के ऐसे मित्रों या अनुचरों पर निगाह रखिए, जो ऑनलाइन गुंडागर्दी करता है। ये लोग सार्वजनिक जीवन के शिष्टाचार को तोड़ रहे हैं।

मौजूदा संदर्भ याकूब मेमन की फांसी की सज़ा के विरोध का है। जब तक सज़ा के खिलाफ तमाम कानूनी विकल्प हैं, उनका इस्तेमाल देशद्रोह कैसे हो गया। सवाल उठाने और समीक्षा की मांग करने वाले में तो हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई भी हैं। अदालत ने तो नहीं कहा कि कोई ऐसा कर देशद्रोह का काम कर रहे हैं। अगर इस मामले में अदालत का फैसला ही सर्वोच्च होता तो फिर राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास पुनर्विचार के प्रावधान क्यों होते। क्या ये लोग संविधान निर्माताओं को भी देशद्रोही घोषित कर देंगे।

याकूब मेमन का मामला आते ही वे लोग, जो व्यापमं से लेकर तमाम तरह के भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण ऑनलाइन दुनिया से भागे हुए थे, लौट आए हैं। खुद धर्म की आड़ लेते हैं और दूसरे को धर्म के नाम पर डराते हैं, क्योंकि अंतिम नैतिक बल इन्हें धर्म से ही मिलता है। वे उस सामूहिकता का नाजायज़ लाभ उठाते हैं, जो धर्म के नाम पर अपने आप बन जाती है या जिसके बन जाने का मिथक होता है। फिल्मों में आपने दादा टाइप के कई किरदार देखें होंगे, जो सौ नाजायज़ काम करेगा, लेकिन भक्ति भी करेगा। इससे वह समाज में मान्यता हासिल करने का कमज़ोर प्रयास करता है। अगर ऑनलाइन गुंडागर्दी करने वालों की चली तो पूरा देश देशद्रोही हो जाएगा।

यह भी सही है कि कुछ लोगों ने याकूब मेमन के मामले को धार्मिकता से जोड़कर काफी नुकसान किया है, गलत काम किया है। फांसी के आंकड़े भी इसकी पुष्टि करते हैं कि फैसले का संबंध धर्म से नहीं है। लेकिन क्या इस बात का वे लोग खुराक की तरह इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं, जो हमेशा इसी फिराक में रहते हैं कि कोई चारा मिले नहीं कि उसकी चर्चा शहर भर में फैला दो। क्या आपने इन्हें यह कहते सुना कि वे धर्म से जोड़ने का विरोध तो करते हैं, मगर फांसी की सज़ा का भी विरोध करते हैं। याकूब का मामला मुसलमान होने का मामला ही नहीं हैं। पुनर्विचार एक संवैधानिक अधिकार है। नए तथ्य आते हैं तो उसे नए सिरे से देखने का विवेक और अधिकार अदालत के पास है।

90 देशों में फांसी की सज़ा का प्रावधान नहीं हैं। क्या वहां यह तय करते हुए आतंकवाद और जघन्य अपराधों का मामला नहीं आया होगा। बर्बरता के आधार पर फांसी की सज़ा का करोड़ों लोग विरोध करते हैं। आतंकवाद एक बड़ी चुनौती है। हमने कई आतंकवादियों को फांसी पर लटकाया है, पर क्या उससे आतंकवाद ख़त्म हो गया। सज़ा का कौन-सा मकसद पूरा हुआ। क्या इंसाफ का यही अंतिम मकसद है, जिसे लेकर राष्ट्रभक्ति उमड़ आती है। इनके हमलों से जो परिवार बर्बाद हुए, उनके लिए ये ऑनलाइन देशभक्त क्या करते हैं। कोई पार्टी वाला जाता है उनका हाल पूछने।

फांसी से आतंकवाद खत्म होता तो आज दुनिया से आतंकवाद मिट गया होता। आतंकवाद क्यों और कैसे पनपता है, उसे लेकर भोले मत बनिए। उन क्रूर राजनीतिक सच्चाइयों का सामना कीजिए। अगर इसका कारण धर्म होता और फांसी से हल हो जाता तो गुरुदासपुर आतंकी हमला ही न होता। उनके हमले से धार्मिक मकसद नहीं, राजनीतिक मकसद ही पूरा होता होगा। धर्म तो खुराक है, ताकि एक खास किस्म की झूठी सामूहिक चेतना भड़काई जा सके। जो लोग इस बहस में कूदे हैं, उनकी सोच और समझ धार्मिक पहचान से आगे नहीं जाती है। वे कब पाकिस्तान को आतंकी बता देते हैं और कब उससे हाथ मिलाकर कूटनीतिक इतिहास रच देते हैं, ऐसा लगता है कि सब कुछ टू-इन-वन रेडियो जैसा है। मन किया तो कैसेट बजाया, मन किया तो रेडियो। मन किया तो हम देशभक्त, मन किया तो आप देशद्रोही।



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