‘मुंबई बम विस्फोट अयोध्या और मुंबई में क्रमश: दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 की ‘संपूर्ण घटनाअों’ की प्रतिक्रिया नजर आती है।’ -जस्टिस बीएन श्रीकृष्ण रिपोर्ट से जस्टिस श्रीकृष्ण एकदम सही हैं : यदि मुंबई में 92-93 में दंगे नहीं होते तो शृंखलाबद्ध विस्फोट भी नहीं होते। ठीक वैसे ही जैसे गोधरा में ट्रेन नहीं जलाई जाती तो गुजरात में 2002 के दंगे नहीं होते या इंदिरा गांधी की हत्या नहीं होती तो 1984 का सिख विरोधी खून-खराबा नहीं होता। हम यह भी दलील दे सकते हैं कि यदि बाबरी मस्जिद न गिराई गई होती तो बाद में दंगे नहीं होते; यदि इंदिरा गांधी सेना को स्वर्ण मंदिर में नहीं भेजतीं तो सिख आतंकवाद पर काबू पा लिया गया होता; यदि विश्व हिंदू परिषद अयोध्या में कार-सेवा नहीं करती तो किसी ट्रेन को निशाना नहीं बनाया जाता। हिंसा की किसी भी घटना की जड़ की तलाश करने में खतरा होता है। क्रिया-प्रतिक्रिया के ये सिद्धांत हमें कितने पीछे ले जाएंगे और क्या अंतत: वे हिंसा को तर्कसंगत साबित कर देंगे?
और इसके बावजूद, जैसा कि जस्टिस श्रीकृष्ण ने ध्यान दिलाया, मुंबई विस्फोटों को इसके पहले हुए दंगों से अलग करना नामुमकिन है। इसीलिए मुंबई बम विस्फोट के दोषी याकूब मेमन की फांसी से जुड़ी बहस में दंगों पर गौर किए जाने से नहीं बचा जा सकता। मुंबई के माहिम में सफल चार्टर्ड अकाउंटेंसी फर्म (मेमन एंड मेहता, उसके गुजराती हिंदू पार्टनर) स्थापित करने वाला याकूब ‘केवल मुस्लिम’ वाले क्रूर आतंकी षड्यंत्र का हिस्सा क्यों बना? क्या उसमें आए बदलाव का संबंध सांप्रदायिक दंगों के दौरान माहिम के सर्वाधिक प्रभावित इलाकों में शामिल होने से था? या यह कि दंगों में उसके भाई के ऑफिस पर हमला हुआ, उसके परिवार को फोन पर धमकाया गया और शिव सैनिकों ने वहां के मुस्लिमों को ‘पाकिस्तान जाने’ की चेतावनी दी थी।
यह पक्का नहीं है कि याकूब विस्फोटों की पूरी साजिश से वाकिफ था। माना तो यही जाता है कि यह साजिश उसके भाई टाइगर ने अंजाम दी थी। परंतु सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद 1993 के विस्फोटों में उसकी भूमिका पर दशकभर पुरानी बहस खत्म होनी चाहिए और व्यापक हिंसा से हमारी व्यवस्था जिस पक्षपात के साथ निपटती है, उसे ठीक करने के प्रयास शुरू होने चाहिए। टीवी की कर्कश चर्चाओं में जोर दिया गया कि याकूब को दी गई कड़ी सजा आतंकियों को ऐसे काम करने से दूर रखेगी और विस्फोटों के शिकार 257 लोगों के परिवारों को न्याय देगी। परंतु बहुत कम लोगों ने मुंबई दंगों के आरोपियों के खिलाफ ऐसी कड़ी कार्रवाई करने की मांग की। हिंसा में 900 से ज्यादा लोग मारे गए, लेकिन सिर्फ तीन लोग दोषी पाए गए और उन्हें एक साल कैद की सजा सुनाई गई। एक की मौत हो गई, दूसरा जमानत पर बाहर है।
और इसके बावजूद, जो लोग दंगा पीड़ितों के लिए न्याय की मांग उठाते हैं उन्हें ‘राष्ट्र विरोधी,’‘प्रेस्टीट्यूट्स’ और न जाने क्या-क्या कहा जाता है। यह तो सिलेक्टिव एम्नेशिया (स्मृतिनाश) का मामला है, जिसमें मुंबई हिंसा का सफर 12 मार्च 1993 को शुरू होता है और इसके पहले का सुविधाजनक रूप से भुला दिया गया। और यदि अाप याद करने की कोशिश करें तो आप पर ‘आतंकियों’ का हिमायती होने का आरोप लगेगा, जैसे धर्म के नाम पर हत्या करने वाले दंगाई की तुलना आरडीएक्स से लैस आतंकी के साथ नहीं की जा सकती। चूंकि सुविचारित राय को बचाव का रुख अपनाने पर मजबूर कर दिया गया, तो क्या यह आश्चर्य की बात है कि विरोध के स्वर को असदुद्दीन ओवैसी जैसे लोगों ने हथिया िलया है? हैदराबाद से एमआईएम के सांसद उदारवादी नहीं हैं, बल्कि जमीनी राजनेता हैं, जिन्हें उत्तेजना व ध्रुवीकरण के माहौल में ‘मुस्लिम हितों’ के रखवालेे के रूप में खुद को पेश करने का मौका नज़र आया। एक अर्थ में यह मामला बाल ठाकरे से अलग नहीं है। उन्होंने 92-93 की हिंसा में खुद को हिंदुओं का ‘संरक्षक’ माना, एक ऐसी छवि जिसने अंतत: उन्हें 1995 के महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में सत्ता दिला दी। प्रवीण तोगड़िया और यहां तक कि नरेंद्र मोदी ने खुद को कैसे 2002 में हिंदू हृदय सम्राट और गुजराती अस्मिता के संरक्षक के रूप में प्रस्तुत किया। या राजीव गांधी की कांग्रेस ने 1984 के आम चुनाव में घातक अभियान चलाया, जिसका लक्ष्य सिखों को आतंकी बताने का था। फर्क सिर्फ यह है कि तब हमारे सामने इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी गुटों द्वारा वैश्विक ‘जेहाद’ छेड़े जाने का परिदृश्य नहीं था। अब ऐसे गुटों का बढ़ता प्रभाव और तीव्र अलगाव के कारण मुस्लिम युवा तेजी से कट्टरपंथ की ओर जा रहे हैं, जो उन्हें ‘प्रतिशोध’ लेने की ओर धकेल रहा है। ऐसी दशा में राज्य को चाहिए कि वह न्यायपूर्ण और समान व्यवहार करता नज़र आए। घटिया जांच के लिए और कुछ स्पष्ट मामलों में पूरी तरह पक्षपाती राजकीय तंत्र के लिए अब यह बहाना नहीं बनाया जा सकता कि आतंकवादी षड्यंत्र की बजाय दंगों के मामले में सबूत इकट्ठा करना अत्यधिक कठिन होता है।
मुंबई विस्फोट के फैसले को तब आतंकवाद को न बख्शने की नीति का संकेत नहीं समझा जाएगा जब हिंदू अतिवादी गुटों से जुड़े मालेगांव और अजमेर विस्फोट मामलों में बहुत से गवाह मुकर जाएं। मुंबई विस्फोट मामले के सरकारी वकील उज्ज्वल निकम को हीरो क्यों समझना चाहिए जबकि मालेगांव विस्फोट के वकील को धमकियां दी जा रही हों? आप हाशिमपुरा फैसले की व्याख्या कैसे करेंगे, जिसमें 42 मुस्लिमों के मारे जाने के लगभग तीन दशक बाद किसी को दोषी नहीं पाया जाता? यदि गोधरा ट्रेन अग्निकांड के दोषियों को आजीवन कारावास या मृत्युदंड सुनाया जाता है और वे जेल में ही कैद रहते हैं तो नरोडा पाटिया मामले के दोषी जमानत पर कैसे छूट जाते हैं और सरकार उन्हें ज्यादा कड़ी सजा दिलाने पर जोर क्यों नहीं देती। खेद की बात है कि बंटे हुए समाज में ऐसे प्रश्न उठाने पर शायद ‘राष्ट्र विरोधी’ होने का तमगा लगाकर पाकिस्तान का टिकट कटाने की पेशकश कर दी जाए। किंतु इसे दूसरे नज़रिये से देखिए : ये प्रश्न वास्तव में ‘असुविधाजनक सत्य’ हैं और परिपक्व लोकतंत्र को इनका सामना करना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो जाए कि हम एक और पाकिस्तान न बन जाएं!
पुनश्च : वर्ष 1993 में मैं तीन दिन श्रीकृष्ण आयोग के सामने पेश हुआ। मैं जब कोर्ट से बाहर आ रहा था तो एक शिव सैनिक मेरे सामने आकर कहने लगा : ‘भूलो मत, बालासाहेब हमारे ईश्वर हैं, हमारे उद्धारक, कोई अदालत उन्हें दोषी नहीं ठहरा सकती।’ वह सही सिद्ध हुआ। 1995 में महाराष्ट्र की भाजपा-शिवसेना सरकार ने श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट को कूड़े में डाल दिया। वर्ष 2012 में कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की सरकार ने बाल ठाकरे को राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी।
~राजदीप सरदेसाई
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