इस बार 15 अगस्त
को स्वतंत्रता दिवस की एक और वर्षगांठ मना रहे हैं। जाहिर सी बात है कि हर बार की
तरह यह वर्षगांठ भी महज एक रस्म अदायगी मात्र ही है। हम सिर्फ यह कह-सुन कर आपस
में खुश हो लेते हैं कि हम आजाद हैं, लेकिन सच में हम कितना आजाद हैं,
यह
तो हमारा दिल ही जानता है। यही वजह है कि आजादी का आंदोलन देख चुकी हमारी बुजुर्ग
पीढ़ी बड़े सहज भाव में कहती सुनाई देती है कि इससे तो अंग्रेजों का राज अच्छा था।
वस्तुत: हमारी
आजादी आधी अधूरी ही है। इसकी वजह ये है कि हम 15 अगस्त 1947 को अग्रेजों की दासता
से तो मुक्त हो गए, मगर जैसी शासन व्यवस्था है, उसमें अब हम अपनों की ही दासता में
जीने को विवश हैं। सबसे बड़ी समस्या है आतंकवाद और सांप्रदायिक विद्वेष की। इसके
चलते देश के अनेक इलाकों में आजाद होने के बावजूद व्यक्ति को अगर अपने ही घर में
संगीनों के साए में रहना पड़े, तो यह कैसी आजादी। लचर कानून व्यवस्था
और लंबी न्यायिक प्रक्रिया के कारण संगठित अपराध इतना बढ़ गया है कि हम निर्भीक
होकर सड़क पर चल नहीं सकते। हमारी बहन-बेटियों को अपने ही मोहल्लों में अपनी
अस्मिता का भय बना रहता है। हम अपने ही देश में न्याय के लिये भटकते रहते हैं।
शासन और प्रशासन तक अपनी बात पहुंचाने के लिये यदि हमें फिल्म शोले के वीरू की तरह
टंकी या टॉवर पर चढना पड़े या आत्मदाह की कोशिश करनी पड़े तो उसे आजादी कैसे कहा
जा सकता है।
ऐसे में सवाल ये
उठता है कि क्या हमारे अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों ने इसी आजादी के लिये अपना
बलिदान दिया था? क्या महात्मा गांधी ने ऐसी ही आजादी के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा
दिया था? क्या हम सिर्फ फिरंगियों की सत्ता से घृणा करते थे? फिरंगियों
की सत्ता से हमने भले ही मुक्ति पा ली, लेकिन फिरंगी मानसिकता से आज हम 68 साल बाद भी मुक्त नहीं हो सके हैं। जो
काम फिरंगी करते थे, उससे भी कहीं आगे हमारा राजनीतिक तंत्र कर रहा है। ‘फूट डालो,
राज
करो की जगह ‘फूट डालो और वोट पाओ की नीति चल रही
है। राजनीतिक हित साधने के लिए सत्ताधीशों को दंगा-फसाद कराने से भी गुरेज नहीं
है। सत्ता को भ्रष्टाचार की ऐसी दीमक लग चुकी है की पूरा देश इससे कराह रहा है।
संविधान में जिस
स्वतंत्रता और समानता की बात की जाती है, वह स्वतंत्रता और समानता दूर-दूर तक
दिखाई नहीं देती। पहले हम फिंरगियों के जुल्म सहते थे, अब अपनों के
जुल्म सह रहे हैं। पहले भी सत्ता के खिलाफ बोलने पर आवाज बंद करने की कोशिश की
जाती थी, आज भी ऐसा चल रहा है। पहले आजादी के संघर्ष में जान जाती थी, आज
तो पता नहीं, कब चली जाए। पहले अंग्रेज देश को लूट रहे थे, आज वही काम नेता
कर रहे हैं। पहले भी सत्ता की ओर से तुगलकी फरमान जारी होते थे, आज
भी ऐसे फरमान जारी हो रहे हैं। आजादी के लिए बलिदान देने वालों को देश भुला चुका
है। आज ऐसे सत्ताधीशों की पूजा हो रही है, जिनका न कोई चरित्र है, न
जिनमें नैतिकता है और न ईमानदारी। पहले भी लोग भूख से मरते थे, आज
भी मर रहे हैं। सत्ता से चिपके रहने वाले लोग फिंरगी शासन में भी ऐश कर रहे थे,
आज
भी सत्ता से चिपके रहने वाले ही सारे सुख भोग रहे हैं। आखिर यह कैसी आजादी है?
क्या
आम आदमी को भय और भूख से मुक्ति मिली है? क्या आम आदमी को उसके जीवन की गांरंटी
दी जा सकी है? क्या नारी की अस्मिता सुरक्षित है? क्या व्यक्ति
अपनी बात निर्भीकता से रखने के लिए स्वतंत्र है? जाहिर है,
इनके
जवाब ना में ही होंगे। और जब ऐसा है, तब फिर इस आजादी के आम आदमी के लिए
क्या मायने?
दरअसल, अब
हम एक ऐसी परंतत्रता में जी रहे हैं, जिसके खिलाफ अब दोबारा संघर्ष की जरूरत
है। हमें अगर पूरी आजादी चाहिए, तो हमें एक और स्वाधीनता संग्राम के
लिये तैयार हो जाना चाहिये। यह स्वाधीनता संग्राम जमाखोरों, कालाबाजारियों
के खिलाफ होना चाहिए। यह संग्राम भ्रष्टाचारियों से लड़ा जाना चाहिए। यह संग्राम
चोर, उचक्कों, लुटेरों और ठगों के खिलाफ छेड़ा जाना चाहिये। यह संग्राम देश को
खोखला कर रहे सत्ता व स्वार्थलोलुप नेताओ के विरुद्ध लड़ा जाना चाहिए। यह संग्राम
उन लोगों के खिलाफ किया जाना चाहिये, जो गरीबों, दलितों, मजलूमों
और नारी का शोषण कर फल-फूल रहे हैं। अगर हम ऐसे लोगों को परास्त कर सके, अगर
हम ऐसे लोगों से देश को मुक्त करा सके, तब हम कह सकेंगे कि हम वास्तविक रूप से
आजाद हो चुके हैं। लोगों के मन में भ्रष्टाचार के खिलाफ रोष तो है, मगर
व्यवस्था परिवर्तन के लिए कोई तैयार नहीं है।
हर भारतीय की
इच्छा है कि आजादी केवल किताबों और शब्दों में ही नहीं, बल्कि धरातल पर
भी दिखनी चाहिये। हमें गाँधी के सपनों का भारत चाहिये। हमें देश के महान
क्रांतिकारियों के बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने देना है। विडंबना यह है कि हम आजादी
के पर्व पर इन तथ्यों पर जरा भी चिंतन नहीं करते। हम सिर्फ इस दिन रस्म अदायगी
करते हैं। सुबह झंडा फहरा कर और बड़े-बड़े भाषण देकर हम अपने कर्तव्य की इतिश्री
कर लेते हैं और दूसरे ही दिन पुराने ढर्ऱे वाली आपाधापी में व्यस्त हो जाते हैं।
-तेजवानी गिरधर
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