ऐसी ही राजनीति पिछली सदी के तीसरे दशक
में जर्मनी में भी दिखाई दी थी, जब
वहां हिटलर का शासन था। इतिहास की बेवकूफियों को दोहराए जाने का एक अच्छा नतीजा यह
होता है कि इससे नई पीढ़ियों की हिम्मत की भी जांच हो जाती है। फिलवक्त, यह बेवकूफी अमेरिका से लेकर हिंदुस्तान तक
बेशर्मी से दोहराई जा रही है और इसी बहाने इतिहास अपनी नई पीढ़ी की हिम्मत भी जांच
रहा है।
1933 में नाजी पार्टी के छात्र संगठन
ने ट्रकों में हजारों किताबें भरकर बर्लिन के ओपेरा स्क्वैयर पर जला दी थीं। इन
किताबों को जर्मनविरोधी कहा गया था। ये काम नाजी पार्टी के नेताओं ने नहीं किया था, बल्कि कुछ नौजवानों से करवाया गया था। हां, इसका सीधा प्रसारण सरकारी रेडियो पर किया गया
था। आधी रात में वहां गोएबल्स पहुंचा था और उसने वहां से रेडियो पर लोगों को संबोधित
किया था। हाइनरिष हाइने नामक जर्मन कवि की किताबें भी इसी आग के हवाले की गई
थीं। तब उन्होंने कहा था कि जो लोग किताबें जलाते हैं, अंत में वे इंसानों को भी जलाते हैं और कुछ साल
बाद यही देखने को मिला था। (हिटलर के प्रचारमंत्री और खासमखास गोएबल्स की एक कहावत
बड़ी प्रसिद्ध हुई,
'किसी
झूठ को भी सौ बार बोला जाए तो वह सच लगने लगता है।')
यहां, हिंदुस्तान में इस समय कमोबेश ऐसे ही हालात हैं। सत्ताशीन हिटलर की
तरह हमारी सरकार का भी प्रचार के साधनों पर पूरी तरह से कब्जा है। हिटलर के
शासन को सौ साल होने को हैं, पर वह आज भी मोदी सरकार के लिए प्रेरणास्रोत बना हुआ है। हिटलर की छोटी-छोटी बातों तक को
हिंदुस्तानी पीएम ने आत्मसात कर लिया है। हिटलर के हाथ नचाकर भाषण देने का
अंदाज हो, उसकी लोकलुभावन बातें हों, झूठ और गलत तथ्यों को सच की तरह पेश करना हो, रैलियों में भीड़ जुटानी हो, आधुनिक प्रचार और प्रसार यानी सोशल मीडिया पर
कब्जा करना हो या फिर गोएबल्स जैसा सिपहसालार यानी अमित शाह रखना हो आदि। अगर यह
सिर्फ इत्तेफाक है तो वाकई बहुत कमाल का है!
लेकिन इतिहास में दो और चीजें बड़ी
खूबसूरती के साथ दर्ज हैं। पहली यह कि तब हिटलर की हिंसा का विरोध जर्मनी के
लेखकों और जागरूक लोगों ने पूरे दमखम के साथ किया था और दूसरी यह कि आज जर्मनी के
लोग हिटलर के होने पर इतने शर्मिंदा होते हैं कि गश खाकर गिर पड़ने को तैयार दीखते
हैं। दूसरी बात के लिए पहली बात का होना जरूरी होता है, क्योंकि ऐसे शासन का पहला विरोध समाज और
राजनीति की मशाल- साहित्य की ओर से होना चाहिए। अच्छी बात यह है कि हमारे यहां भी
यह देखने को मिल रहा है। देश के निजाम के फासीवादी और बहरे होते जाने के खिलाफ
हमारे तमाम प्रिय साहित्यकारों ने अपने शीर्ष सम्मान लौटाने की घोषणा की है। इनमें
से कई तो ऐसे भी हैं जो अपना घर चलाने के लिए 60 साल की उम्र तक 20-25 हजार रुपए
महीने की नौकरी कर रहे हैं। ऐसे में वे साहित्य अकादमी को न सिर्फ अवॉर्ड लौटा रहे
हैं बल्कि तब मिली सम्मान राशि- 25 हजार रुपए का चार गुना यानी- 1 लाख रुपए लौटा
रहे हैं। दिल में कितनी भी हिम्मत भरी हो, इन
पैसों का इंतजाम करना भी बड़ी जंग लड़ने से कम नहीं।
60 की उम्र तक तमाम व्याधियां आपको घेर
लेती हैं, शरीर के जोड़ों में दर्द रहने लगता है, आंखों से पानी बहता है, ऊर्जा पहले जैसी नहीं रहती, सर्दी-बुखार जल्दी पकड़ लेता है। अगर कोई गंभीर
बीमारी हुई तो और ज्यादा कष्टकर हालात होते हैं। ऐसे में एक नौकरीपेशा बूढ़े शख्स
का हिंसक सरकार के खिलाफ खुलकर खड़ा होना न जाने कितने नौजवानों को शर्मिंदा और
हिम्मती बनाएगा! पता नहीं,
बनाएगा भी या नहीं!
हाल ही में कैंसर का शिकार हुए हिंदी
के मौजूदा दौर के सबसे चहेते कवि वीरेन डंगवाल ने लिखा था, 'एक कवि और कर ही क्या सकता है/ सही बने रहने की
कोशिश के सिवा', उनकी यह बात उनके दोस्त कवियों मंगलेश डबराल, राजेश जोशी ने सार्थक कर दी है। इनके अलावा यह
बात अशोक वाजपेयी, उदय प्रकाश, नयनतारा सहगल से लेकर तमाम भाषाओं के कवियों, लेखकों के अकादमी अवॉर्ड लौटाने से सही साबित
हो रही है। इस पर संस्कृति मंत्री महेश शर्मा का कहना है कि पुरस्कार लौटाना
साहित्यकारों की पसंद का मामला है, इसमें
वह कुछ नहीं कह सकते। अरे, चुल्लू भर पानी में भी नहीं डूब सकती क्या यह निर्लज्ज सरकार? वैसे भी शर्मा जी को शायद पता न हो, यह ईमानदार शख्स के लिए पसंद का नहीं, जिंदगी और मौत में से एक को चुनने जैसा मामला है।
उधर, साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी बचकानी बातें कर
रहे हैं कि पुरस्कृत लेखक अपनी किताबों के अनुवादों का फायदा उठाने के बाद ऐसा कर
रहे हैं या इन्होंने आपातकाल का विरोध क्यों नहीं किया था आदि। एक कवि-लेखक के
लिए लिखना सांस लेने जैसा होता है। तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन ने क्यों अपनी
मौत की घोषणा कर दी थी? एक
लेखक को अपनी किताब वापस लेनी पड़ जाए यानी सांस लेना बंद करना पड़े, एक ही बात है। कन्नड़ लेखक यूआर अनंतमूर्ति को क्यों कहना
पड़ा, अगर मोदी जीते तो देश में रहना मुश्किल
हो जाएगा? वह इस खतरे की आहट को पहले ही भांप
चुके थे और उनके जाने के बाद यह बात सच भी साबित हो रही है। आजाद भारत में
लेखकों का ऐसा विरोध तो शायद आपातकाल के दौर में भी देखने को नहीं मिला होगा, जिसकी पीएम मोदी दुहाई देते रहते हैं! अच्छा है, इस सुप्तावस्था के दौर में हमें अपनी पुरानी
पीढ़ी पर गर्व करने की एक और वजह मिली है।
भारत सिंह
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