दादरी
हत्या काण्ड के बाद कई प्रकार के बयानात और दावे सामने आए हैं। उन्हीं में एक
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ नेता इन्द्रेश कुमार का भी आया है। उन्होंने
मेवात के इलाक़े में गोरक्षा के नाम पर शुरू की गई एक मुहिम के दौरान कहा है की
सउदी अरब में लोग गोमांस नहीं खाते हैं, बल्कि वह यहाँ तक कह गए हैं की पैग़म्बर-ए-इस्लाम
हज़रत मुहम्मद के ज़माने में गाए ज़बह नहीं होती थी और क़ुरान शरीफ में गाए खाने से
मना किया गया है।
पता नहीं
इन्द्रेश कुमार ने ये जानकारियाँ कहाँ से प्राप्त कीं, मगर उनकी और उन जैसों के मानसिक
और शैक्षणिक स्तर को देखते हुए इस बहस को यहीं ख़त्म करना बेहतर होगा। लेकिन चूँकि
मक़ते में बाल आ ही चुका है तो आम जनता की दिलचस्पी के लिए अर्ज़ करना चाहूंगा की
सउदी अरब में बाक़ी जानवरों के साथ-साथ गाए भी धड़ल्ले से ज़बह होती है और हिंदुस्तान,
पाकिस्तान और अन्य देशों से मटन और बीफ इम्पोर्ट भी होता है। यह और
बात है की वहां रह रहे हिन्दुस्तानी, जिनकी संख्या बीस लाख
से ऊपर है, और दूसरे देशों के नागरिक, बीफ
कम ही खाते हैं बल्कि चिकन के मुकाबले में न के बराबर खाते हैं।
कारण
आर्थिक है। मुसलमान या कोई भी गरीब इन्सान बीफ इस लिए नहीं खाता है की वह किसी
इन्द्रेश कुमार को आहत पहुँचाना चाहता है। हिंदुस्तान में बीफ सस्ता मिलता है जिसे
खाकर वह अपनी गरीबी का हल ढूंढता है। मगर यही बात सउदी अरब पर लागू नहीं होती है।
वहां चिकन के मुकाबले बीफ चार गुना महंगा है। ताज़ा जानकारी के अनुसार वहां इस समय
बाहर से इम्पोर्ट किया हुआ फ्रोज़ेन चिकन सात से आठ रियाल किलो बिकता है (यानी 120-137 रुपये हिन्दुस्तानी)। यदि
वहीँ का ज़बह किया हुआ ताज़ा चिकन लिया जाए तो बारह से चौदह रियाल (200-240 रुपये हिन्दुस्तानी) में आता है जबकि एक किलो बीफ चालीस से पैंतालिस
रियाल (यानी 700-800 रूपए हिन्दुस्तानी) में आता है। बाहर से
इम्पोर्ट किया हुआ बीफ तीस से पैंतीस रियाल किलो (500-600
रुपये हिन्दुस्तानी) मिलता है।
भारत में
मटन 450 रुपये किलो बिकता है
जबकि बीफ 200 रुपये किलो। यानी बीफ के मुकाबले मटन दुगुने से
भी ज्यादा महंगा। मगर अन्य देशों में ऐसा नहीं है। सउदी अरब में मटन और बीफ एक ही
दाम में मिलता है। भारत का मुसलमान और ‘नॉन-वेज’ खाने वाला हिन्दू जिस के पास ज़रा
भी पैसा है वह मटन खाना पसंद करता है। मुझे आज तक ऐसा कोई मुस्लमान नहीं मिला,
न यहाँ न सउदी अरब में, जो पैसे वाला हो और यह
कहता हो की मैं तो सिर्फ बीफ ही खाऊंगा। यदि खाता होगा तब भी ऐलान नहीं करेगा,
क्योंकि ऐसा कर वह अपना स्तर नीचा कर लेगा।
किसी भी
मुसलमान मोहल्ले में जाकर देख लें – जहाँ आमतौर पर लोग बीफ के नाम पर भैंस का
गोश्त खरीदते हैं - ज्यादातर खरीदार गरीब होंगे और उन खरीदारों में जितने मुसलमान
होंगे उतने ही हिन्दू भी होंगे। पर यहाँ एक फर्क होगा। मुसलमान दो सौ रुपये किलो
गोश्त खरीद रहा होगा जबकि हिन्दू 50 और 60 रुपये किलो के हिसाब से
गोश्त का वह हिस्सा ले रहा होगा जिसे पार्चा बनाते वक़्त कसाई छांट कर अलग कर देता
है या फिर जानवर के पेट का वह हिस्सा ले रहा होगा जिसमें गन्दगी होती है और जिसे
सफाई के बाद खाया जाता है। ये वे हिन्दू हैं जो अति पिछड़े हैं। उनके लिए दो वक़्त
की रोटी जुटाना रोज़ का संघर्ष है। इन्द्रेश कुमार जैसे लोग जब बीफ पर पाबंदी लगाने
की बात करते हैं तो वह केवल मुसलमानों की गरीबी का मज़ाक़ नहीं उड़ाते बल्कि
हिन्दुओं की थाली में भी छेद करते हैं।
जहाँ तक
मुसलमानों के बीफ खाने की बात है तो वैसे ही अब इसका रिवाज कम होता जा रहा है। भला
हो पोल्ट्री फर्म्स का कि अब चिकन गली-गली मिलने लगा है। वरना पहले जब तक हम चिकन
की देसी पैदावार पर निर्भर थे तो ‘मुर्गा’ खाना रियासत की निशानी हुआ करता था। इस
समय चिकन भी 200
रुपये किलो है और बीफ भी। किसी भी मुसलमान मोहल्ले में घूम लें चिकन बिरयानी और
चिकन करी वग़ैरा हर नुक्कड़ पर मिल जाएगा, जबकि बीफ की बनी
हुई चीज़ों के लिए थोड़ा घूमना पड़ेगा। किसी इन्द्रेश कुमार के डर से नहीं बल्कि इस
लिए की मांग में कमी आ गई है।
मुसलमानों
के यहाँ शादियों में भी अब बीफ का आइटम कम ही दिखता है। जो गरीब हैं वे केवल चिकन
खिलाते हैं, जिनकी
जेब इजाज़त देती है वे मटन का इंतज़ाम भी करते हैं।
शाहीन नज़र
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